मात हीन तड़फत मन मोरा

बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए।।
लेकिन उसकी अगली पंक्तियों में सीता के वियोग से दुःखी राम जी के मुख से कहलवाते हैं-
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।
यह ऋतु राहत देती है तो हवा में नमी अधिक होने के कारण उमस भी हो जाती है। ऐसी स्थिति में बेचैनी और दम घुटता है। जुलाई आते ही आंखों से अधिक मन में आद्रता बढ़ने लगती है। उमस से अधिक ‘अनाथ’ होने का अहसास ंबेचैनी बढ़ाता है। क्योंकि एक ऐसी ही शाम प्रकृति ने अब तक का सबसे बड़ा आघात करते हुए हमसे हमारी माँ छीन ली थी। मेघ गरजन को देख मन चित्कार करता है- घन घमंड नभ गरजत घोरा। मात हीन तड़फत मन मोरा।।
गरीब की हो या अमीर की, भारतीय हो या विदेशी, सामाजिक प्राणी (इंसान) की हो किसी अन्य जीव की एक अदद माँ होती है। मां, जिसका आकाश अनंत लेकिन ह्रदय समुन्द्र से भी विशाल होता है। इसलिए तो आसमान की सुने तो माँ एक इन्द्रधनुष है, जिसमें सभी रंग समाये हुए हैं। लेकिन प्रकृति के नजरिये से देखे तो माँ एक दिलकश फूल है, जो हमारे जीवन रूपी गुलशन को मह्काता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम माँ (जननी) और मातृभूमि (जन्मभूमि) को स्वर्ग से भी बढ़कर मानते है तो महाभारत के रचयिता वेद व्यास घोषित करते है -माता के समान कोई गुरु नही है। यहाँ तक कि इस्लाम जो किसी के सामने सजदा करने से मना करता है उसमे भी कहा क्या है-माँ के क़दमों के नीचे जन्नत है।
दुनिया की हर माँ की तरह मेरी माँ भी मेरी प्रेरणा थी। जिसने हर कष्ट सहकर भी मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। मुझे विवेक और धैर्य प्रदान किया। वह कहा करती थी- बेटा, अच्छे के साथ तो सब निभा लेते है लेकिन अच्छा वह होता है जो सबके साथ समन्वय कर चलने का प्रयास करता है। कहानी हुए वह उसे छोड़ देती थी- और हमसे पूरा कहती- इसी से मेरी कल्पना शक्ति बढ़ी जिसने मुझे लेखनी पकड़ने का सौभाग्य प्रदान किया। यूं कहानी सदियों से चली आ रही है। लेकिन मेरी माँ की दृष्टि में कहानी वह जिसमें कुछ ऐसा अवश्य होना चाहिए जो कहा तो नहीं गया पर है। सच आज मैं जो कुछ हूँ उसका समस्त श्रेय मेरी माँ है- उसकी प्रेरणा, उसका प्रशिक्षण ही तो हमें उसका सच्चा आशीर्वाद है- दुनिया की हर माँ में मुझे अपनी माँ की छवि दिखती है।
समय हर समस्या का समाधान है लेकिन बढ़ती आयु अनेक समस्याएं लेकर आती है। वहाँ समय भी बेबस नजर आता है क्योंकि हर समय का अपना समय है, कभी चहचहाहट तो कभी सुगबुगाहट। कभी खिलखिलाहट तो कभी सिसकियांँ। आयु ने माँ के शरीर को बेशक अशक्त कर दिया लेकिन संकल्प से वह अंतिम सांस तक बहुत मजबूत रही। अपना काम स्वयं करने का जज्बा देेख किसी को भी ताजुज्ब होता था। एक बार मेरी बहन ने शिकायती स्वर में कहा कि ‘आज मैंने माँ अपनी खाने की थाली स्वयं साफ करते देखा है। भाभी से कहो कि यह सब नहीं होना चाहिए। क्या वृद्ध माँ को यह सब करने देना चाहिए?’ लेकिन यह सुनकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई कि मेरी माँ इस योग्य है कि वह अपना काम स्वयं कर सकती है।
अनन्त में विलिन होने से कुछ दिन पूर्व जब माँ ने मृत्यु की चर्चा की तो मैंने इसपर आपत्ति की तो माँ ने कहा था, ‘जग तक बेटे-बेटियां रहेंगे माँ मर नहीं सकती।’ सच ही तो है, सुख में तो बेशक माँ की याद आये या न आये पर जरा सा कष्ट होते ही सबसे पहले माँ ही याद आती है। हम कष्ट में माँ को स्मरण करते रहे और यह भ्रम पाले रहे कि माँ जिन्दा है। लेकिन कुछ दिनों से माँ की चिंता सताने लगी है। श्वेत केश, नजर कमजोर, घुटनों में दम नहीं, दांत भी कहें अब हम नहीं। यादाश्त भी गड़बड़ाने लगी है पर माँ को कभी नहीं भूला। इसीलिए सोचता हूं कि अब जबकि मेरी अनंत की यात्रा भी बहुत दूर नहीं है तो तब माँ जिन्दा कैसे रहेगी। लेकिन इतिहास के झरोखों को देखता हूं तो समझ में आता है यह जरूरी नहीं कि सभी की माँ उनके साथ ही....! भगतसिंह, महात्मा गांधी, विवेकानंद, दयानंद जैसे अनेक महापुरूषों की माँ तो आज भी जिंदा है। वे कुछ ऐसा कर गये जिसने उनकी जननी को भी अमर कर दिया मगर मुझमें इतनी शक्ति सामर्थ्य कहां जो मेरी जननी भी मेरे बाद जिंदा रहे। परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं कि मैं अपने जीवन और उसकी उपलब्धियों से असंतुष्ट हूं। मुझे जो कुछ भी मिला, जितना भी मिला मैं उससे बहुत संतुष्ट हूं। मैं सर्वप्रथम ईश्वर का धन्यवादी हूं जिसने मुझे माँ दी। अगर माँ न होती तो ‘मैं’ भी कहां होता। तब मेरी समस्त रचनात्मकता, संवेदनशीलशीलता, दुनिया भर के खट्टे-मीठे अनुभवों का अस्तित्व भी ढूंढे भी न मिलता। आज 10 जुलाई माँ की पुण्यतिथि पर याद आ रही है किसी की ये पक्तियां-
पूछता है जब कोई दुनिया मै मोहब्बत है कहां?
मुस्कुरा देता हूं मैं और याद आ जाती है माँ!
मात हीन तड़फत मन मोरा
Reviewed by rashtra kinkar
on
17:21
Rating:

No comments