कहाँ गए सावन के झूले---विनोद बब्बर

लोक साहित्य से फिल्मांे तक हर जगह सावन की महिमा का बखान देखने को मिलता है। एक नहीं, अनेको गीतों में झूले की उल्लेख है तो ऐसे दृश्यों की भी भरमार रही है जिसमें नायिका अपनी सहेलियों के साथ झूला झूलते हुए गीत गा रही है। वास्तव मंे प्राचीन काल से परम्परागत रूप से सावन में झूला झूलने को परम्परा रही है क्योंकि हमारे पूर्वज इसे केवल मनोरंजन की दृष्टि से नहीं देखते थे। वे जानते थे कि इन झूला झूलने से हमे अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति भी होती है।
बेशक पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव ने पौष, माघ पर जनवरी, फरवरी को हावी कर दिया है लेकिन ज्येष्ठ की लू को मई-जून नहीं दबा सके। सब जानते हैं कि लू की चपेटों के बाद आषाढ़ के उमस भरे दिन आते है तब किसी के लिए भी पूरी तरह से संतुष्ट प्रसन्न रहना संभव नहीं होता। ऐसे में सभी को इंतजार होता है सावन की ठण्डी फुहार का जब मौसम मनोहरम हो उठता है। वो सावन की रिमझिम बूंदे ही है जो प्यासी धरती पर पड़ते ही अपना असर दिखाने लगती है। पहली बूंद पड़ते ही मिट्टी की सोंधी-सोंधी सुगन्ध मन मोह लेती है। तो इस महीने में पड़ने त्यौहारों पर बनने वाले पकवानों की सुगंध भी सारा साल याद रहती है।
सावन  में देश के किसी एक अंचल में नहीं बल्कि पूर्व-पश्चिम, उत्तर- दक्षिण का भेद मिटाते हुए लगभग हर क्षेत्र में तीज त्यौहारों का सिलसिला शुरु हो जाता है। हरियाली तीज के क्या कहने। इसे फिल्मों का प्रभाव कहे या संपन्नता की नुमाइश, फार्म हाउसनुमा लम्बे-चौड़े घरो में अब सारा साल झूला टंगा रहता है लेकिन सावन में झूला झूलने की परम्परा जो सदियों में चली आ रही थी वह छिन्न्-भिन्न हो रही है। किसी भी गांव में गीत गाती लड़कियां महिलाएं झूला झूलते हुए दिखाई देती थी। खुद झूलने का जो आनंद है वह तो शब्दातीत है लेकिन किसी उपवन में दूसरों को झूलते देखने से भी मन में उल्लास, उमंग, उत्कंठा होती है। वास्तव में  खुली हवा में झूलना मात्र आनंद की अनुभूति नहीं अपितु एक ऐसा शरीरिक व्यायाम  है जो हमारे फेफड़ों को सावन के मनोरम मौसम के कारण प्रदूषण मुक्त कई शुद्ध वायु देते हुए सुंदर स्वास्थ्य सुनिश्चित करता है। क्योंकि सावन में वातावरण  अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक रमणिक और कम से कम प्रदूषित होता है। वर्षा होते रहने के कारण वातावरण में विद्यमान धूल, धूएं के कण, पानी में घुलनशील सभी हानिकारक गैसें भी वर्षा के जल के साथ-साथ धरती पर आ जाती हैं जिससे हवा शुद्ध होकर स्वास्थ्य के लिए उत्तम हो जाती है।
धरती की प्यास बुझते ही सावन में चहुंदिशा हरियाली छा जाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालते हुए नेत्र ज्योति बढ़ता है। इसके अतिरिक्त झूलते समय दृश्य कभी समीप और कभी दूर जाते होते है। रोमांच के कारण आंखे कभी बंद होती हैं तो खुलती है। इस क्रम में  नेत्रों का सम्पूर्ण व्यायाम भी हो जाता है। इसके अतिरिक्त झूलने से मन मस्तिष्क में रोमांच वृद्धि होने से तेजी से रक्त संचार होने से मस्तिष्क और अधिक सक्रिय बनता है। तनाव न्यून होता है तथा स्मरण शक्ति बढ़ती है। इसके साथ ही झूलते समय श्वांस अधिक भरा, रोका एवं वेग से छोड़ा जाता है। इससे  स्वतः प्राणायाम हो जाता है।
एक विशेष बात जो झूले के साथ जुड़ी हुई है वह है सुदृढ़ पकड़ का होना। जब खड़े होकर झूलने से अथवा कभी उठकर तो बैठकर झूलने जैसी क्रियाओं से एक ओर हाथ, हथेलियों और उंगलियों की शक्ति बढ़ती है।  पीठ-रीढ़ सहित पूरे शरीर के अंग-अंग का का व्यायाम होता है। 
आश्चर्य कि झूलने के इतने फायदे होते हुए भी झूले तो जैसे गायब से हो रहे हैं। शहर तो छोड़िए गांवों तक में झूले अब नहीं दिखते।  इस बदलते परिवेश में ग्रामीण अंचलों में सुनाई देने वाले सदाबहार लोकगीतों के प्रवाह का रूक जाना जैसे संस्कृति के स्रोत का सूख जाना है। इस क्षति को आज बेशक न समझा जा रहा हो लेकिन भविष्य इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकाएगा। यदि हम इसके कारणो का जानना चाहे तो बहुत साफ दिखाई देता है कि यह सांस्कृतिक पर्व कुछ पाश्चात्य सभ्यता भी भेंट चढ़ गया तो रही सही कसर पेड़ों के काटने से पूरी हो गई। आज इंटरनेट, के माध्यम से सोशल मीडिया तो दूसरी ओर मॉल संस्कृति में नकली मेले लगाकर इन पर्वों की औपचारिकता को पूरा किया जा रहा है। परिवारों का विखंडन यानि अपनी से जड़ो से कट जाने और व्यस्त जिंदगी को जिम्मेवार ठहराये भी तो कैसे आखिर हमने ही तो एकल परिवार के छोटे-छोटे लाभों की गणना करते हुए संयुक्त परिवार के बड़े-बड़े लाभों को अनदेखा किया है। 
एक वो भी जमाना था जब हम अपने बचपन में कागज की नाव बना कर खेलते थे। आम, नीम, शहतूत के पेड़ों पर झूले झूलते थे तो नीचे उतर कर घर में बने पकवानों पर टूट पड़ते थे। लेकिन आज??? आज तो बाजारवाद का बोलबाला है। घेवर भी खरीदना हो तो दाम सुनकर डर लगता है। तीज मेले तो है पर झूले को छूने तक की भारी भरकम कीमत चुकानी पड़ती है। हाँ, ब्यूटी पार्लरों, मेंहदी वालों के पास जरूर भीड़भाड़ देखने को मिल सकती है।
आज की युवा पीढ़ी को कौन है जो बताये सावन और सिंदारे का रिश्ता। तीज पर मायके से उनके लिए चूड़ी, बिंदी, साड़ी और मिठाई जैसी चीजें सिंदारा के रूप में भेजने की प्रथा कहां है। हाँ, ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी  नवविवाहिताओं के लिए पहली तीज का विशेष महत्व होता है। ं मिलकर झूले झूलने से मंगल-कामना के गीत गाना, मेंहदी लगाना, व्रत करना तो जैसे ढ़ोंग, दकियानूस, अंधविश्वास समझकर हमारे शहर लगभग छोड़ से चुके है। यह संतोष की बात है कि सावन पूर्णिमा को मनाई जाने वाली राखी, रक्षाबंधन, पहुंची का प्रभाव पूरी ठसक के साथ आज भी कायम है। राखी की लाज हम सबने राखी है। हम भी सावन की अनंत महता को अगले दो सप्ताहों के लिए राखते हुए आज यही विराम देते है। आशा ही नहीं विश्वास है कि यह सावन धरती से तन-मन तक, परिवार से परिवेश तक अपनी ताजगी की छटा बिखेरेगा। -- विनोद बब्बर 9868211911 
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