रिश्तों में घुलता जहर

पाषाण काल से आधुनिक सभ्यता तक का सफर मानवीय संबंधों के परस्पर आकर्षण की गाथा है। कुछ रिश्ते बनाये जाते है तो कुछ अपने आप बन जाते हैं। आदिमानव से परिवार और समाज की ओर बढ़ना रिश्तों के कारण हीं संभव हुआ, जिसने दुनिया की तस्वीर ही बदल दी। अपने परिवार और निकटजनों के जीवन को सुखकर बनाने के लिए, तो कभी रिश्तों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करने के लिए मनुष्य ने क्या नहीं किया। ‘आसमान से तारे तोड़ लाने’ की बात अकारण नहीं है। वास्तव में, आज की समस्त भौतिक सुख-सुविधाएं और नित नये आविष्कार मानवीय संबंधों से, संबंधों द्वारा, संबंधों के लिए ही तो है। दुनिया से कटे एक-अकेले व्यक्ति को धन कमाने, महल खड़ा करने और नये-नये आविष्कारों का जरूरत ही नहीं होती। न दश्रथ मांझी पहाड़ काटकर सड़क बनाता तो कोई अन्य बेटा अपनी मां, अपने पिता, कोई प्रेमी बपनी प्रेमिका का स्वप्न साकार करने के लिए असंभव को संभव बनाने के लिए खून पसीना एक करता।  
हाँ यह भी सत्य है कि परिस्थितियों की धूप और धूल कुछ रिश्तों को धुंधला कर देती है, क्योंकि हर रिश्ते को फलने-फूलने के लिए स्नेह, समर्पण की खाद, त्याग बलिदान का जल,समय की छाया और दीये की तरह खुद जलकर दूसरों के लिए उजाला करने सी कोशिश चाहिए। रिश्ते-नातों की अनन्त महिमा होते हुए भी आज इन्हीं संबंधों की नींव पर खड़ा समाज और समाज की मर्यादा और शांति खतरे में है। लगता है मानो मानव सभ्यता के विकास की यात्रा जैसे बर्बरता यानि उलटी दिशा की तरफ मुड़ गई है।पूत कपूत सुने पर माता न कभी कुमाता’ जैसे विश्वास को खण्डित करने वाली ताजा दास्तां तो सभी को झकझोड़ रही है। जहां  समृद्धि और ग्लैमर की दुनिया में जीने वाली इंद्राणी ने वैवाहिक रिश्तों को व्यापार बना दिया। महत्वाकांक्षा पूरा करने के लिए हर दिन नये रिश्ते। बाधा न आए, इसलिए पुराने संबंध से हुई बेटी को बहन बताया। बेटी का जब नए पति के पूर्व विवाह से हुए बेटे से प्रेम संबंध विकसित हुआ, तो बेटी को मार डाला। उसने इस हत्या को तीन साल तक छिपाए रखा लेकिन इसी बीच हत्या में शामिल ड्राइवर किसी दूसरे मामले में पकड़ा गया तो बात सामने आई। इतना सब होने पर भी वह स्वयं को निर्दोष बता रही है। तो शानी का पिता इन्द्राणी से विवाह को नकारता है परंतु बेटी को अपनी बताता है।  चिंताजनक पहलू है कि अगर रिश्ते ही धोखे की बुनियाद पर बनने लगें, तो क्या वैसे समाज में स्थिरता या सुख-शांति की कल्पना कैसे की जा सकती है? यह एकता कपूर जैसी दुष्टा द्वारा प्रस्तुत टीची सीरियलों का दुष्प्रभाव है कि आज के दौर में रिश्तेे खोखले,  और छद्म हो रहे हैं। विवाहेत्तर संबंध तो जैसे फैशन बन गए। बेशक वैवाहिक संबंधों का टूटना और नए संबंध बनना सदा से होता रहा है लेकिन आज जिस तेजी से इसका संक्रमण हो रहा उसे देख कोई भी कह सकता है कि आज हम बहुत खराब दौर में प्रवेश कर चुके हैं। 
खुलेपन के नाम पर रिश्तों की पवित्रता को बकवास और पिछड़ापन बताने वाले यौन स्वच्छंदता को अपना अधिकार मानते हैं। महानगरों में यह गंदगी इतना बढ़ रही है कि रिश्तें रिसने लगे हैं। अपनेे प्रेमी के साथ आपत्तिजनक मुद्रा में पाये जाने पर माँ की डांट के बादं माँ की हत्या का समाचार हो या दिल्ली की एक बहू द्वारा बूढ़ी असहाय सास को बार-बार धक्का देकर गिराने की विडियों क्लिप। मुरादनगर मे ं माँ बेटी को कहीं जाने से रोका तो उसने सड़क पर ही माँ को पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। ऐसी अनेक ताजा  घटनाएं हैं। सभी का उल्लेख करना न केवल अनावश्यक है, बल्कि शर्मनाक भी है क्योंकि उस परिवार नामक संस्था पर कलंक हैं, जहाँ रिश्ते की पवित्रता और गरिमा की खातिर अपना सर्वोच्च बलिदान देने तक से संकोच नहीं किया जाता। आखिर, फिज़ां में ऐसा क्या ज़हर घुल गया है कि लोग रिश्तों की मर्यादा को भूल रहे हैं। जिन संबंधों के लिए अपनी जान तक दी जाती थी, आज जान लेने से भी लोग संकोच नहीं करते। आखिर, खून के रिश्तों को स्वार्थ की काली छाया कलंकित क्यों कर रही है, क्यों सफेद हो रहा है हमारा अपना खून? ‘खून पुकारता है!, ‘खून पानी से गाढ़ा होता है’, ‘अपना-अपना होता है’ जैसे अनेक जुमले अचानक थोथे क्यों दिखाई देने लगे?  ऐसा लगता है कि हम अपनी संस्कृति को भुला बैठे हैं अथवा आदर्शों को व्यवहार में उतारने की बजाय उनके गीत गाने तक ही सीमित रहे हैं। इन घटनाओं में यदि हम कन्या भ्रूण-हत्याओं को भी शामिल कर दें, तो तस्वीर काफी भयावह दिखाई देने लगेगी। इस जहरीले वातावरण का दोषी कौन है और इसका समाधान क्या है? यह प्रश्न समाज के हृदय को आन्दोलित करना चाहिए। आखिर, पारिवारिक रिश्तों के बीच कैक्टस कौन बो रहा है?  किसकी नजर लगी है, मेरे देश को? 
यदि इन प्रश्नों का उत्तर चाहिए, तो हमें अपने ही मन को टटोलना होगा। क्या हम सचमुच अपने संबंधों के प्रति ईमानदार हैं? कहीं यह सब पिछले कुछ वर्षो से टीवी चैनलों पर परोसी जा रही तड़क-भड़क, विकृत संस्कृति, कामुकता, विवाहेतर संबंधों को अनदेखा करने के परिणाम तो नहीं हैं? दुखद आश्चर्य यह है कि देश के एक वर्ग को इसकी रत्ती-भर भी चिंता नहीं हैं कि अमर्यादित संस्कृति यहाँ फलने-फूलने के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराया जा रहा है। ऐसे में, संस्कार-विहीन लोग अक्सर हिंसक होकर अपनों की जान लेने तक उतर आते है तो आश्चर्य की क्या बात है? यह भोगवाद की संस्कृति और भौतिक पदार्थों की मृग-मरीचिका का उप -उत्पाद है जो केवल अपने सुख- सुविधाओं और अहम के आगे सोचती ही नहीं जबकि हमारे सद्ग्रन्थ हमें त्यागपूर्वक भोग की शिक्षा देते हैं। पूरे वातावरण को कलुषित करने वाली ऐसी घटनाएं हमारी शिक्षा प्रणाली को भारतीय संस्कृति के नैतिक पक्ष से विमुख करने के प्रति सावधान करती है। समाज में एक दूसरे के प्रति संवेदना, सहानुभूति हो, आवश्यकता पड़ने पर एक हाथ दूसरे हाथ की मदद करने के लिए खुद-बखुद आगे आना चाहिए।  ऐसे श्रेष्ठ संस्कार राष्ट्र की नई पीढ़ी में कैसे रोपित किये जाएं, यह चिंता पूरे समाज की होनी चाहिए।  
आज परिवार टूट रहे हैं। संयुक्त परिवार एकाकी हो रहे हैं। लेकिन शर्मनाक  सत्य तो यह है कि आज परिवार का हर सदस्य ही एकाकी हो चला है। कुछ लोग पैसे की चमक-दमक और आत्मकेंद्रित सोच को पारिवारिक तनाव और कटूता का कारण मानते हैं। यदि सचमुच ऐसा है, तो यह कैसी उन्नति है, जिसमें मनुष्य में मनुष्यता का लगातार पतन हो रहा है? क्या भौतिकवाद की हवस ने मनुष्य को धनपशु बनने को मजबूर कर दिया है? सभ्यता, संस्कृति, शालीनता तो छोड़ियें साधारण मानवता का भी न रहने देने वाले दौर को विकास कहे या विनाश?  
क्या आपका मन आपसे यह प्रश्न नहीं करता कि आखिर कहाँ पहुँच गये हैं हम और हमारा समाज? आपसी संबंधों में तनाव की परिणति हिंसा में होना सचमुच सिहरन पैदा करता है।  इसके अनेक कारण हो सकते हैं।  आज, हम एक ऐसे समाज का अंग बनते जा रहे हैं जहाँ हर आदमी आत्मकेंद्रित है। उसमें स्वार्थ कूट-कूटकर भरा है। कोई किसी की बात ही नहीं सुनना चाहता। अब, हर समय तो कोई आपकी प्रशंसा, स्तुति, वंदना नहीं कर सकता, गलत को गलत भी कहना पड़ता है। यदि परिवार के किसी एक सदस्य को अधिक धन अथवा यश प्राप्त होता है, तो बाकी सदस्य उसे ईर्ष्या के रूप में क्यों ले? नशे का बढ़ता चलन भी खतरनाक है। आज, हर शादी पार्टी में नशे का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। कुछ लोग नशें में सुध-बुध खोकर संबंधों की मर्यादा को भी भूल जातेे हैं। आज नशे के बदलते हुए रूप सामने आ रहे हैं। दौलत का नशा, रूप का नशा, सत्ता का नशा, योग्यता का नशा, ऊँचे संबंधों का नशा, जब और कोई नशा नहीं हो, तो अहम का नशा। 
क्या यह सत्य नहीं कि हम आदर्शों की बड़ी-बड़ी बातंे तो कर सकते हैं परन्तु, किसी भी सामाजिक बुराई के विरुद्ध कदम उठाते हुए हमारे पाँव काँपने लगते हैं। न जाने हमंे  यह डर नहीं सताता कि यदि हम अब भी नहीं चेते, स्वयं को अनुशासित, संस्कारित ढ़ाँचे में नहीं ढाला, तो बहुत संभव है कि रिश्तों पर पानी फेरती घटनाओं का अगला शिकार हम ही हों।

शुभकामनाओ सहित
डा. विनोद बब्बर संपर्क-09868211911

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