मानवता के लिए अंगदान, देहदान Dehdan--

कहा जाता था कि ’पशु मरे, सौ काज संवारे, मनुज मरे किसी काम न आवे’ पर अब विज्ञान के बढ़ते कदमों के साथ अपने कदम मिलाकर चलने वाले लोगों ने इस कहावत को भी बदल डालने का जज़्बा दिखाया है। नमन है ऐसे लोगो कांे जो विचारों में क्रांति के ध्वजवाहक बनते हैं, जैसे कुछ वर्ष पूर्व जाने-माने  साहित्यकार डॉ. विष्णु प्रभाकर ने शरीर छोड़ा, तो उनकी इच्छा के अनुरूप उनके परिवार वालों ने उनकी देहदान कर सभी के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। इसी प्रकार से प्रख्यात समाजसेवी नाना देशमुख, पश्चिमी बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु की इच्छानुरूप उनकी देहदान कर दी गई।  
इसी सप्ताह हमारे समाजसेवी मित्र श्री हरिकिशन चावला के इकलौते युवा पुत्र संजीव का अचानक हृदय गति रूक जाने के कारण देहावसान हो गया। शोक की इस घड़ी में परिवार ने संजीव का नेत्रदान कर समाज के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया। पिछले ही महीने इंदिरापुरम का 17 वर्षीय अंकित अंगदान कर महादानियों में शामिल हो गया है। हेपेटाइटिस-बी के कारण दुनिया छोड़ने वाले अंकित की आंखें आज भी दुनिया देख रही हैं। उसका दिल किसी और के शरीर में धड़क रहा है और किडनी से एक व्यक्ति को जीवनदान मिल चुका है। अंकित के दुनिया छोड़ने से दुखी परिवार के सदस्य उसके इस फैसले से गर्व महसूस कर रहे हैं। हालांकि उसके बड़े भाई का आधा लिवर उसे ट्रांसप्लांट किया गया लेकिन ऑपरेशन के दस घंटे बाद ही अंकित का निधन हो गया। उसके पिता के अनुसार ऑपरेशन के चार घंटे बाद होश में आने पर अंकित ने कहा था कि यदि वह नहीं बचता है तो उसके अंग दान कर दिये जाए। इसी प्रकार पिछले दिनों सड़क दुर्घटना में निष्प्राण हो गए एक युवक के माता-पिता ने उसका देहदान कर 50 लोगों के जीवन को आबाद किया।  वर्षों से खराब गुर्दे से परेशान हमारे एक मित्र की बेटी के जीवन को भी उसने सामान्य कर दिया। 
धन्य है वे लोग जिन्होंने अपने जीते-जी तो इस शरीर से समाजसेवा की ही, जाते-जाते भी कईयों के जीवन का अर्थ बदल गये। ऐसे ही महानुरुषों ने दूसरों को भी अपनी सोच बदलने के लिए प्रेरित किया है जो मरणोपरांत अंगदान के प्रति भिन्न मत रखते हैं। हमारी महान् संस्कृति त्याग और बलिदान को सर्वाेपरि  मानती है, जहाँ दधीचि जैसे ऋषि ने असुरों के संहार के लिए अपनी अस्थियां ही दान कर दी थीं, जिनसे बने वज्र से वृत्रासुर मारा गया, तो सभी ने राहत की सांस ली थी। वही देश, वही संस्कृति, परन्तु न जाने क्या कारण है कि आज अंग(नेत्र) दान में भी हम अपने एक छोटे से देश पड़ोसी श्रीलंका से भी पीछे हैं? अंगदान या नेत्रदान के प्रति हमारी निष्क्रियता एक तरह से हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित त्याग बलिदान के आदर्श के विरुद्ध लगती है।
आज विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि किसी का हृदय, लिवर, एवं गुर्दे खराब हो जाने पर किसी मृत व्यक्ति के ये अंग प्रत्यारोपित किए जा सकते हैं। लेकिन, इसके लिए किसी ऐसे व्यक्ति के ही ये अंग काम आएंगे जिसकी दिमागी मृत्यु (Brain Stem Death) हुई हो यानी दिमाग ने पूर्ण रुप से काम करना बंद कर दिया हो और शरीर के बाकी अंग काम कर रहे हों। ऐसी मृत्यु आंकड़ों के आधार पर, लगभग एक हज़ार में से एक व्यक्ति की ही होती है। ऐसी मृत्यु होने पर उसके बहुत से अंग जैसे हृदय, लिवर एवं गुर्दे आदि किसी अन्य व्यक्ति में प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं। आज, अनेक कारणों से गुर्दे का रोग बढ़ता जा रहा है, हजारों लोग अपने दोनों गुर्दे खराब हो जाने के कारण बहुत कठिन जीवन व्यतीत करने को बाध्य हैं। अनेक लोगों को सप्ताह में दो या तीन बार डायलिसिस करवाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में वे सामान्य जीवन जीने में असमर्थ हो जाते हैं। यदि उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति का गुर्दा प्रत्यारोपित कर दिया जाये जिसकी ब्रेन डैथ हो चुकी हो, तो उसकी कठिनाइयां काफ़ी हद तक कम हो सकती हैं। 
मृत शरीर को हम अग्नि देवता को भेंटकर अथवा दफन करके अन्त्येष्टि करते हैं जिससे वह शरीर पुनः पंचतत्व में विलीन हो जाता है। आज, हर विवेकशील मनुष्य के चिंतन का विषय है कि क्या मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व कोई नेक कार्य नहीं किया जा सकता? यदि हम अपने किसी अंग को दूसरे की सहायतार्थ छोड़ जाते हैं, तो उसका जीवन सुखमय एवं गतिशील बन सकता है। यदि मृतक के  नेत्र किसी नेत्रहीन व्यक्ति में प्रत्यारोपित कर दिये जाते हैं, तो वह पुनः देखने लगता है उसके जीवन का कंटकाकीर्ण मार्ग किसी सुगंधित वाटिका में परिवर्तित हो सकता है। 
अब रहा सवाल कि ऐसा करे कौन? मृतक या मृतक के संबंधी? यदि हम स्वेच्छा से किसी जरूरतमंद का भला चाहते हैं, तो अपने जीवन में ही यह कार्य कर बैठिए। यदि आप ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो अब मृतशैय्या पर पड़े व्यक्ति के संबंधी के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपने प्रिय को कितना चाहता है। यदि उसे  वास्तव में अपने प्रिय से लगाव है, तो उसके नेत्रों को आप दान करें ताकि अपने जीवन के बाद भी वह किसी दूसरे के शरीर में जीवित रहे। इससे हजारों नेत्रहीनों के जीवन में उजाला आ सकता है। 
रूढ़िवादी मान्यताओं और अंधविश्वास के कारण कुछ  लोग मानवता की सेवा के इस महान कार्य में बाधक बनते हैं जो यह भ्रम फैलाते  हैं कि इस जन्म में अगर नेत्र दान करंे, तो अगला जन्म  दृष्टिहीन होकर बिताना पड़ेगा। आज के वैज्ञानिक दौर में ऐसी बातें हास्यास्पद हैं। हमें चाहिए जहां तक भी हमारा सामाजिक दायरा हो, इस अभियान के तहत अज्ञानता, अंधविश्वास को दूर कर जागरूकता लाएं। जबकि हमारे धर्म गं्रन्थों  ने बार -बार कहा है कि दान का बहुत बड़ा महत्व है। कहा तो यह भी जाता है कि दान देने वाले को कई गुना अधिक मिलता है। ऐसा देखा जा रहा है कि समाज-सुधारक इस विषय पर मौन ही हैं। ऐसा क्यों? क्या इससे समाज का भला नहीं होगा। यह अति पुण्य का कार्य है। हमारे धर्माचार्य साधु-संत, महात्मा, शिक्षक, बुद्धिजीवी, समाज में फैली भ्रंातियों को दूर करके श्रेष्ठ मानवीय कार्य के लिए वातावरण बनाते हुए उन्हें स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। उन्हें अपना संकल्प-पत्र भरना होगा। आप अपने प्रियजनों को इस नेक कार्य के लिए प्रेेरित करें एवं अपने अंगों का दान करके हमारे आदर्श दानी दधीचि का अनुसरण करें। नेत्रदान-देहदान के लिए वातावरण बनाने के लिए हमें दूसरों को भी प्रेरित करना चाहिए। इस संबंध में व्याप्त भ्रांतियों को भी दूर करने का प्रयास करना चाहिए। आखिर हम शव को दफन कर अथवा दाह -संस्कार  कर पंच तत्वों में विलीन ही तो करते हैं। क्या यह अच्छा नहीं होगा कि हमारा कोई प्रियजन मृत्यु के बाद भी किसी के शरीर का अंग बनकर अमर रहे। 
सरकार को भी कानून की जटिलताओं को दूर कर इस मानवीय कार्य को सुगम बनाना चाहिए। आश्चर्य है कि दधीचि ऋषि के देश में ही नेत्रदान, अंगदान, देहदान उपेक्षित हैं। हमारे समाज ने हमें बहुत कुछ दिया है, हमें हमारी आखिरी साँस तक समाज से कुछ मिलेगा तो फिर हम भी जाते-जाते इस ऋण का एक अंश चुकाने का संकल्प क्यों न लें? आज हम सभी इस संबंध में चिंतन करें, तो मानवता का बहुत बड़ा हित हो सकता है। एक निष्प्राण देह 50 जरूरतमंद लोगों की मदद कर सकती है।
हमारे देश में लिवर, किडनी और हार्ट के ट्रांसप्लांट होने की सुविधा है। कुछ मामलों में पैनक्रियाज भी ट्रांसप्लांट हो जाते हैं, लेकिन इनके अलावा दूसरे अंदरूनी अंग मसलन गुर्दे (किडनी), दिल (हार्ट), यकृत (लिवर), अग्नाशय (पैनक्रियाज), छोटी आंत (इन्टेस्टाइन) और फेफड़े (लंग्स), त्वचा (स्किन), बोन और बोन मैरो, आंखें (कॉर्निया) आदि भी जरूरतमंदों को प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं। 
आंखें हमेशा से कवियों का पसंदीदा विषय रही हैं। दरअसल आंखें हमें ईश्वर का दिया सबसे खूबसूरत उपहार है। सारा जहां इन दो आंखों में समाया है। सही अर्थों में आंखें कई जगह जुबां का काम करती है। निश्चित रूप से हम ओर आप चाहेंगे कि आपके बाद भी आपके नेत्र जीवित रहें। आइए  नेत्रदान, अंगदान महादान अभियान में शामिल हों। किसी भी स्थिति में मृत्यु होने पर हर मृतक के परिजन उसका नेत्रदान कर सकते हैं। उम्र का इससे कोई लेना-देना नहीं है। बच्चे से 90 साल के बुजुर्ग तक के अंगदान कामयाब हुए हैं। -- विनोद बब्बर संपर्क-09868211911 rashtrakinkar@gmail.com
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