विज्ञान की कसौटी और धार्मिक मान्यताएं Dharm # Vigyaan

धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक है।हिरोशिमा त्रासदी धर्म रहित विज्ञान का उदाहरण है तो ढ़ोंग और अन्धविश्वास अवैज्ञानिक धर्म का शर्मनाक सत्य है।  हाँ परमाणु शक्ति के मानव हित सदुपयोग को  विज्ञान का धर्म कहा जा सकता है तो नर सेवा नारायण सेवा को धर्म का विज्ञान। कहने को धर्म की अनन्त परिभाषाएं हो सकती हैं लेकिन धर्म नैतिकता का पर्याय है जो सदा से मानव जीवन को व्यवस्थित बनाने का कार्य करता रहा है। सरल शब्दों में कहे तो मैं धर्म एक ऐसा संविधान है जो मानव जाति को जीवन जीने का एक ढंग सिखाता है। उसके लिए कुछ नियम है। देश के संविधान की तरह इसमें भी समय, काल, परिस्थितियों के अनुसार संशोधन हो सकता है क्योंकि जीवन की आवश्यकताएं और परिस्थितियां निरंतर परिवर्तित होती रहती है। जैसे एक वृक्ष के पत्ते, टहनियां परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं। हिलते-झूमते हैं। अपना रंग तक बदलते हैं लेकिन उसकी जड़ स्थिर रहती है। ठीक उसी प्रकार से धर्म भी परिस्थितियों से प्रभावित होंगे ही। 
कल का आदि मानव आज दूसरे ग्रहों तक न पहुंचा। बैलगाड़ी, ऊंटगाड़ी के बदले हाई टेक होकर हवाई जहाज को सहज स्वीकार करने वाले कुछ नासमझ लोग धर्म को मूल की बजाय बाहरी जड़ता से जोड़ने की कोशिश करते हैं क्योंकि वे यह समझने को तैयार नहीं कि यदि समीक्षा और बदलाव को स्वीकार न किया जाए तो जड़ता रूपी सड़ान को रोका नहीं जा सकता। बेशक ऐसे लोगों के मनमाने अर्थात् जड़ता को पुष्ट करते आचरण मानव धर्म की अवधारणा को ठेस पहुंचाते हैं क्योंकि कोई भी सभ्य समाज धर्म और जड़ता को पर्याय नहीं बना सकता। हमारे ऋषि मुनि धर्म और विज्ञान को एक-दूसरे का पूरक मानते रहे हैं। यदि इतिहास की गहराईयों में ज्यादा दूर न भी जाए तो पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति का डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद अक्सर कहा करते थे,  ‘जहाँ विज्ञान ख़त्म होता है, वहां से आध्यात्म आरम्भ होता है।’ 
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे लगभग हर त्यौहार, हर परम्परा के मूल में मानव हित और प्रकृति प्रेम की कोई न कोई अवधारणा निहित है। हां, जो लोग हिन्दुत्व और विज्ञान से अनभिज्ञ हैं उनके लिए ये अंधविश्वास अथवा मिथक हो सकती है। दूसरी ओर कुछ लोग धर्म और विज्ञान को परस्पर विरोधी भी मानते हैं। ऐसे अज्ञानी लोगों के बीच छिपे स्वार्थी तत्वों ने उनकी इस कमजोरी से फायदा उठाने के लिए ढ़ोंग, पाखंड और अंधविश्वास का जाल फैलाया। इसे यूं भी कह सकते हैं कि आदिकाल में अपने आस-पास की प्रकृति और परिवर्तनों को देख मानव इसे किसी अदृश्य सत्ता का प्रकोप अथवा चमत्कार मानता रहा है। हिंसा, घृणा, क्रोध के साथ-साथ अन्धविश्वास जैसी मानवीय दुर्बलता लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी मानव मन में कहीं गहरे दफन हैं, परंतु उसे कुछ निहित स्वार्थी लोगों द्वारा बार -बार भय कस भूत बनाकर खड़ा किया जाता है। केवल भारत ही नहीं दुनिया भर के हर धर्म- सम्प्रदाय में इसकी उपस्थित महसूस की जाती है। 
वास्तव में अन्धविश्वास एक संक्रमण रोग है जिसे विज्ञान से डर लगता है। उसे तर्क नहीं, कुतर्क प्रिय है। ऐसे रोगी अपने जैसे रोगियों से अधिक इस रोग को फैलाने वाले ‘वायरस’ से घिरे रहते हैं। जो  धर्म को कर्मकांड का बंदी बनाकर एक प्रकार से बुद्धिहरण विश्वविद्यालय चलाते हैं। ऐसे बुद्धिहरण विश्वविद्यालय चलाने वालों में ‘चटनी’ खिलाकर ‘कृपा आने’ का रास बताने वाले से लेकर  फलां ‘मां’ और फला ‘बापू’ तक, अध्यात्म की बजाय फिल्मी हीरो बनने वाले से गंड़ा-ताबीज बनाने वालों और बात बेबात फतवा जारी करने वालों तक अन्तहीन सूची है। देश के हर कोने में विद्यमान ऐसे तत्वों की मदद करने वालो की भी कमी नहीं है। बेलगाम मीडिया तो जैसे इनके लिए वरदान है जो इन्हें  अनावश्यक प्रचार प्रदान करता है। कुछ चैनल तो इनकी गतिविधियों की चर्चा इस तरह चटखारे लेकर करते हैं मानो ये ‘वायरस’ ही धर्म हो। हमारी उदारता का लाभ उठाने वाले कभी एक दिन के लिए ‘मांस’ पर लगे प्रतिबंध को लेकर इस तरह हाय तौबा मचाते हैं मानो देश के सामने बहुत बड़ा संकट आ गया हो। तो कभी दो या अधिक लोगों को अपने स्टूडियों में बैठाकर उन्हें सम्पूर्ण समाज का प्रतिनिधि घोषित करते हुए हिन्दुत्व को बदनाम करने का अपराध करते हैं। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत का यह आह्वान कि ‘जिन मूल्यों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, उन्हें खत्म कर दिया जाना चाहिए’ सर्वथा और वर्तमान परिस्थितियों की मांग है। देश कोें शांति, सौहार्द और विकास के पथ पर आगे बढ़ाने के लिए अन्य धर्म सम्प्रदायों में भी ऐसे साहसिक विचारों की आवश्यकता है।   
जयपुर के एक कार्यक्रम में श्री मोहन भागवत ने हिन्दू मान्यताओं और धार्मिक मूल्यों की वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार समीक्षा किए जाने की अपील करते हुए ठीक ही कहा कि हिन्दू धर्म में संतुलित तरीके से सृजन व निर्माण को आगे बढ़ाने की योग्यता और क्षमता है। गलत रूढ़ियों को नकारते हुए शाश्वत जीवन मूल्यों के आधार पर दुनिया से अच्छी बातों को स्वीकार करने की भारतीय परम्परा रही है। अतः सभी मुद्दों व समस्याओं को हिन्दू जीवन के दर्शन की कसौटी पर देखा जाना चाहिए। भारतीय पारिवारिक संरचना के मूल्य व महत्व कई दिक्कतों के बाद भी मजबूती से कायम हैं। 
एक तरफ सारी दुनिया को  एक धर्म विशेष के झंड़े तले लाने के इरादे तो दूसरी ओर एक फिल्म में संगीत देने पर निकाल बाहर करने का फरमान जारी करने वालो को समझना ही होगा कि कट्टरता सदैव आत्मघाती होती है। बुनियादी जरूरतों की बजाय कभी पहनावे तो आधुनिक शिक्षा पर सवाल खड़े करने वाले वास्तव में अपनी ही कौम के सबसे शत्रु हैं। आखिर आईएस वाले गैरों को नहीं अपनो को ही तो मार रहे हैं। यदि बेगुनाहों को बेघर करना धर्म है तो फिर तय करना ही पड़ेगा कि अधर्म क्या है इस संबंध में कुछ वर्ष पूर्व की एक फिल्म की चर्चा करना समीचीन होगा जिसमें एक स्थान पर नसीरुद्दीन शाह ने कहा था, ‘हमने माशरत और मज़हब का ऐसा जोड़ कर दिया है कि यह समझ में नहीं आता कि मज़हब क्या है और माशारत क्या है। एक अन्य स्थान पर कहा गया था, ‘दीन में दाढ़ी है दाढ़ी में दीन नहीं।’ सच ही तो है कि धर्म किसी वेश का नाम नहीं है और न ही कोई धर्म इतना कमजोर होना चाहिए कि छोटी-छोटी बातों से उसके अस्तित्व पर संकट के नारे लगने लगे। धर्म वहीं जो दूर से संचालित न हो। धर्म मानवता का रक्षक है। उसे अपनी माटी, अपनी परिस्थितियों और परिवेश से विमुख करना धर्म को जड़ो से अलग करना है जबकि उसे उस देश के सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ने का नाम ही धर्म है। 
आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि हम अपनी संस्कृति  के प्रवाह को धर्म, आधुनिकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समन्वित करते हुए एक ऐसे समाज का निर्माण करने की दिशा में आगे बढ़े जो हमारी आने वाली पीढ़ियों को अज्ञान, अन्धविश्वास, असमानता  से मुक्त करें। यही ‘अप्राप्त को प्राप्त करना और प्राप्त की रक्षा करना’ है जिसका संदेश योगीराज भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में दिया था। यही शिक्षा मानवता की अलख जगाने वाले नानक, कबीर, दादू, फरीद, बुल्लुशाह जैसे संत हमें लगातार देते रहे हैं।
 विनोद बब्बर संपर्क-09868211911
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