बेरोजगारी की जिम्मेवार राजनैतिक व्यवस्था # Unemployment

भारत विविधता का देश है। जीवन का हर रंग यहां मौजूद हैं। हर विचारधारा यहां फलती-फूलती दिखाई देती है। कुछ लोगों के अनुसार विकास की गंगा बह रही है। तो कुछ को ‘कुछ’ भी नजर नहीं आता। इस बात से शायद ही कोई असहमत होगा कि देश की तस्वीर बदल रही है। बेशक मुफ्त न हो परंतु टोल वाली सड़कों का जाल बिछा है। सड़कें ही नहीं वाहन भी बड़े हैं। देशभर में ट्रैफिक जाम का बढ़ता प्रचलन किश्तों पर कार और बाइक की करामात नहीं तो और क्या है? युवा से बूढ़े तक लगभग हर हाथ में मोबाइल, इंटरनेट की पहुंच प्रमाण है कि देश में संचार सुविधाएं बढ़ी। निजी ही सही लेकिन स्कूल, कालेजों, विश्वविद्यालयों की भरमार है। सरकारी अस्पताल बेशक बदहाल हो लेकिन पंचसितारा अस्पताल आपके इंतजार में पलक पावड़े बिछाये बैठे हैं। ऐसा ही और भी बहुत कुछ गुदगुदाता है लेकिन जब चपरासी के 368 पदों के 23 लाख दावेदार सामने आते हैं तो गुदगुदाहट सुगबुगाहट में बदल जाती है। लेकिन उस समय हृदय को छलनी हो जाता है जब यह तथ्य सामने आता है कि पांचवीं पास और साइकिल चलाने में सक्षमता रखने वाले पद की दौड़ में पीएचडी, एमटेक, बीटेक, स्नातकोत्तर और स्नातक भी शामिल है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जिस प्रदेश ने देश को सर्वाधिक प्रधानमंत्री ही नहीं दिये बल्कि प्रधानमंत्री पद के अनन्त दावेदार भी दिसे। यह तस्वीर राजनीति के लिए आरोप-प्रत्यारोप का अवसर हो सकता हैं लेकिन  हर देशभक्त को आत्म चिंतन के लिए विवश करता है। क्या यही है उत्तमप्रदेश? क्या यही है सामाजिक न्याय की वह प्रयोगशाला जहां अपनी मूर्ति लगवा कर परिवर्तन की आंधी के दावे थे। क्या ऐसे लोगों के लिए विकास का अर्थ ‘अपना’ और ‘अपनों’ का विकास है? 
अनुभवीजन गरीबी, अज्ञानता, गन्दगी, बीमारी और बेरोजगारी, को मानवता के लिए अभिशाप बताते हैं लेकिन अकेले बेरोजगारी को इन पांचों अभिशापों का मूल माना जा सकता है। निसंदेह बेरोजगारी एक ऐसा  दानव है जो देश के भविष्य को आत्मघात की ओर ले सकती है। यह सत्य है कि बेरोजगारी वैश्विक समस्या है। दुनिया का कोई कोना ऐसा न होगा जहां बेरोजगारी न हो। और न ही यह तस्वीर केवल ‘एक’ राज्य की है। केरल में क्लर्क की भर्ती के लिए लाखों आवेदन  आये तो छत्तीसगढ़ में भी चपरासी के 30 पदों के लिए 75 हजार आवेदन आये। कोटा में सफाई कर्मियों के लिए भी उच्चशिक्षितांे की कतार लगी थी। लगभग हर राज्य में कमोवेश यही स्थिति है।‘एक अनार, सौ बीमार’ का परिणाम भर्तियों में घोटाले का कारण बनता है। एक राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अपने पुत्र सहित अपने ऐसे ही एक पाप की सजा भुगत रहे हैं। पिछले दिनांे जोधपुर में सेना की भर्ती के लिए इतनी भीड़ उमड़ी की अव्यवस्था फैल गई। पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा। ऐसे अनेक और भी उदाहरण हो हैं। 
विश्वशक्ति बनने का दावे करने वाले देश की यह तस्वीर उसकेे विकास माडल पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है। इस स्थिति को जनसंख्या विस्फोट कहने वालो की कमी नहीं है लेकिन क्या हम उस शिक्षा प्रणाली को दोषमुक्त बता सकते हैं जो डिग्रियां बांटने/ बेचने की दुकानें बन कर रह गई हैं। आज दोहरी शिक्षा प्रणाली से आरंभ हुई असमानता और तनावों की यह यात्रा रोजगारी की पटरी पर आकर  उलट जाती है क्योंकि अच्छे स्कूल में दखिले की होड, डोलेशन, भारी भरकम फीस के बाद कालेज में दाखिले की जदोजहद। जहां, लगभग शत-प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले ही दाखिला पाते हो वहां शेष के लिए समस्या। डिग्री पा भी गए तो रोजगार की समस्या।  अब उस शिक्षा को स्वस्थ ज्ञान कहे भी तो कैसे एक तरफ जो मेहनत को घटिया और ब्रांडेड कपड़ो को आवश्यक बताये। आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भर (स्वरोजगार) बनाने में असफल हो तो दूसरी ओर कम जिम्मेवारी वाले ‘जॉब’ का गुलाम बनाये। अनेक परिवारों में स्थिति यह है कि उच्चशिक्षित बेटा बेरोजगार है तो उसी का कम पढ़ा-लिखा भाई पूरे परिवार का खर्च चला रहा है। इसी प्रकार कई विभागों में प्रशिक्षित श्रमिकों की कमी के समाचार भी सामने है। इन तमाम तथ्यों के बावजूद यदि सरकारें यह न समझ पा रही कि समस्या कहां है तो नेतृत्व के विवेक पर प्रश्न चिन्ह लगना ही चाहिए। पेंट कोट की जेब में हाथ डालने वोल ‘बाबू’ बनाने वाली शिक्षा प्रणाली को व्यवसायोन्मुख बनाने के लिए उसमें आमूल चूल परिवर्तनों के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। 
वैसे जिस तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हुई है उस अनुपात में रोजगार के साधन नहीं बढ़े क्योंकि खेती पर निर्भरता की सीमा है। जिस तरह गति से औद्योगिक विकास होना चाहिए था। वह नहीं हुआ। जो हुआ भी उसका स्वरूप केन्द्रीकृत था जो कुछ नगरो, महानगरों के ईद-गिर्द सिमट कर रह गया। उसने हमारे सामाजिक ताने-बाने को तो छिन्न-भिन्न किया ही अनेक नई समस्याओं को भी जन्म दिया। अतः राजनेताओं को  मुफ्त ‘ये’ या ‘वो’ बांटने के वादे करने से बाज आना चाहिए और  विकास का विकेन्द्रीकरण सुनिश्चित करना चाहिए ताकि किसी को भी रोटी, शिक्षा अथवा उपचार के लिए  भटकना न पड़े। यदि ऐसा संभव हो सकता तो आज जो सरकारी नौकरियों के प्रति  बहुत ज्यादा आकर्षण है, उसपर लगाम लगेगी।  वैसे सरकारी नौकरियों के लिए इस अनियंत्रित मारा मारी के एक नहीं अनेक कारण हैं। स्थायित्व के अतिरिक्त वेतन तथा अन्य सुविधाओं का अंतर बहुत ज्यादा है। सातवे वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद तो यह अंतर आकाश- पाताल की उपमा भी पा सकता है। क्योंकि असंगठित क्षेत्रों में वेतन नाममात्र  है। छोटे शहरो कस्बों में  तो वेेतन के नाम पर जो कुछ दिया जाता है वह शर्मिंदा करता है परंतु देने वालो की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। अतः केवल कानून बनाने से ही स्थिति बदलने वाली नहीं है। देश भर में बढ़ती मॉल संस्कृति उसपर भी ऑन लाइन शोपिंग ने छोटे व्यापारी की स्थिति बहुत खराब कर दी है। उसे अपनी दुकान का लाइसेंस,  कन्वर्जन चार्ज, अनेक प्रकार के सरकारी टैक्स, नेता टैक्स, जागरण- भंडारा टैक्स,  गुंडा टैक्स, ईंस्प्ेक्टर टैक्स तथा दुकान खर्च  जैसे अनेक तनावों के बाद जब अपना खर्च चलना मुश्किल हो रहा हो तो उससे यह आपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह अपने पास काम करने वाले को सरकारी कर्मचारी से आधा वेतन भी दे सके।   स्पष्ट है कि जब तक छोटे व्यवसायी की स्थिति नहीं सुधरेगी, वेतन में  आकाश पाताल सी असमानता समाप्त नहीं होगी, सरकारी नौकरियों के लिए पागलपन काबू नहीं आ सकता। 
माननीय प्रधानमंत्री जी जिस स्किल इंडिया और मेक इन इंंिडया  की कल्पना कर रहे हैं उसमें स्वरोजगार के अवसर बढ़ाने में बाधक तत्वों को पहचानना पड़ेगा। सरकारी कर्मचारियों को बहुत ज्यादा वेतन देकर भ्रष्टाचार समाप्त करने की अवधारणा पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। इसी प्रकार कृतज्ञ राष्ट्र द्वारा अपने बहादुर सैनिको कोें ‘समान रैंक पर समान पेंशन’ देना सर्वथा उचित है। लेकिन  यह मांग यहां रूकने वाली नहीं है। शेष सरकारी कर्मचारी भी इसकी मांग को लेकर आदोलन की धमकी दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।  ऐसे में वेतन को उत्पादकता और अपादेयता से जोडकर सरकारी नौकरियों के प्रति दीवानगी काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। ....और यदि दुर्भाग्य से हम अब भी नहीं चेते तो राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभाने की बजाय बेरोजगार युवा शक्ति का आक्रोश विनाश का कारण भी बन सकता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संसाधन प्राप्त करने में असफल कदम अपराध, अपहरण, तस्करी, आतंकवादी गतिविधियों की ओर भी बढ़ सकते हैं। औद्योगिकरण आज की आवश्यकता है परंतु तमाम वादों और दावों के बावजूद विद्युत की कमी, परिवहन की असुविधा, कच्चा माल की समस्या बरकरार है। उसपर भी हस्त व लघु उद्योगों की उपेक्षा, त्रुटिपूर्ण नियोजन, इंस्पेक्टरराज के साथ-साथ आयात को अति उदार बनाकर हम आत्मघाती मार्ग की ओर बढ़ रहे हैं। पक्ष-विपक्ष का शत्रुतापूर्वक व्यवहार भी औद्योगिकरण अर्थात् बेरोजगारी की राह रोक रहा है। राष्ट्रहित में बारहमासी राजनीति पर रोक लगाने की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब सारे चुनाव एक साथ हो। सदाबहार चुनावी वातावरण निर्वाचित सरकार को काम करने से रोकता है। क्या वे अपनी राजनैतिक दुकान चलाने के लिए यूं ही शर्मसार करतेे रहेंगे या राष्ट्रहित में सहमति और सहयोग का सबक भी प्ड़ेंगे?।
--विनोद बब्बर संपर्क-09868211911 rashtrakinkar@gmail.com
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