क्या राष्ट्र से बड़ा है परिवार?

पिछले दिनों  दूरसंचार मंत्रालय ने रामायण और महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों के साथ ही मोहम्मद रफी और किशोर कुमार जैसे मशहूर कलाकारों और बटुकेश्वर दत्त, सुखदेव, अशफाकउल्लाह खान जैसे स्वतंत्रता सेनानियों तथा वामपंथी नेता और पूर्व सांसद भुपेश गुप्त की स्मृति में डाक टिकट जारी करने की घोषणा करते हुए बताया कि लगातार चलन में रही इंदिरा गांधी और राजीव गांधी केे कुछ डाक टिकट बंद किए जाएंगे। लेकिन जवाहर लाल नेहरू, बी.आर. अंबेडकर, मदर टेरेसा की तस्वीरों वाले डाक टिकटों को अक्षुण्ण रखा गया है। इस श्रृंखला में अब सर्वश्री नेताजी सुभाषचंद्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल, शिवाजी, मौलाना आजाद, भगत सिंह, जयप्रकाश नारायण, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया, स्वामी, विवेकानंद और महाराणा प्रताप की स्मृति वाले डाक टिकट भी शामिल किये गए हैं। उन्होंने इसे नियमित प्रक्रिया  बताया है। लेकिन कांग्रेस को इसमें ‘प्रतिशोध की राजनीति’ दिखाई दी तो संचार मंत्री ने सवाल किया कि केवल एक ही परिवार के नाम से डाक टिकटें क्यों निकाली जाती है। क्या देश की तरक्की में अन्य महापुरुषों का कोई योगदान नहीं था जो उनके नाम पर आज तक टिकट नहीं निकाली गईं। क्या सरदार पटेल और अंबेडकर का योगदान कोई नहीं है?
बात केवल डाक टिकटों तक सीमित नहीं है। देश के आजादी के बाद आरंभ किये गये संस्थानों और परियोजनाओं में से लगभग आधी (27में 16 राजीव गांधी, 8  इंदिरा गांधी  और 3 जवाहर लाल नेहरू)  एक परिवार के नाम पर हैं जबकि महात्मा गांधी के नाम पर 4 तथा अंबेडकर के नाम पर 4 संस्थाएं एवं परियोजनाएं हैं। इसी प्रकार महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी के नाम पर 1, शास्त्री जी के नाम पर 2,  सरदार पटेल के नाम पर 1 है। कई सौ शिक्षा संस्थाएं, हवाई अड्डे, लगभग सभी 50 खेल अवार्ड, 20 स्टेडियम, कई सौ सड़कें, चौराहे, 50 प्रादेशिक योजनाएं, इन तीनों के नाम पर रखी गई हैं। देश की रााजधानी दिल्ली में ही दो नेहरू स्टेडियम, जे.एन.यू., इन्दिरा गांधी स्टेडियम, हवाई अड्डा, ओपन विश्वविद्यालय, कला केन्द्र। राजीव गांधी ही नहीं बिना किसी संवैधानिक पद पर रहे संजय गांधी के नाम पर भी अस्पताल और न जाने क्या-क्या? सैंकड़ो कालोनियों के नाम एक परिवार पर, कनॉट प्लेस का नाम भी उन्हीं को समर्पित, देश के विकास संबंधित योजनाओं पर भी उन्हीं का कब्जा।  आखिर यह क्या है? अन्य देश भक्तों को सम्मान न दिया जाना पीड़ा जनक है। 
अंधभक्त तर्क प्रस्तुत करते हैं कि वे देश के लिए शहीद हुए।  यह सही है कि वे शहीद हुए थे लेकिन उनकी कुर्बानी की इतनी कीमत तो शेष शहीदो की अनदेखी, उपेक्षा क्यों? आखिर नेताजी सुभाष बोस, सरदार पटेल, भगत सिंह, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जयप्रकाश नारायण, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया जैसी विभूतियों की उपेक्षा क्यों होनी चाहिए? क्या देश की आजादी अथवा राष्ट्र निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं है? शायद उस एक परिवार की  चौथी पीढ़ी के लगभग आधी सदी तक सत्ता में रहने के कारण उन्हें भ्रम हुआ कि वे ही इस देश के एकमात्र उद्धारक हैं। ‘इन्दिरा इज इण्डिया, इण्डिया इज इन्दिरा’ का नारा किसे याद न होगा। आज भी उसी मानसिकता वाले चाटुकार यह जानते हुए भी कि पार्टी की दुर्दशा का जिम्मेवार युवराज है लेकिन फिर भी उसे सम्राट बनाने की मांग करने से बाज नहीं आते। छूत के रोग की तरह इस मानसिकता ने उत्तर प्रदेश की पूर्व मुखिया को भी अपने मोहपाश में ले लिया था जब उन्होंने स्वयं अपनी मूर्तियों को स्थापित कर एक नई परम्परा आरम्भ की थी। शायद उनके मन में आशंका रही होगी कि भविष्य में उनका कोई अनुयायी सत्ता में आ भी गया तो जरूरी नहीं कि वह उनके प्रति कृतज्ञ हो। इसलिए खुद ही इतिहास को अपने नाम और निशान वाले पत्थरों से पाट देना चाहिए। बेशक जनता ने इन दोनों मानसिकताओं को नकार कर यह स्पष्ट संदेश दिया है कि  कोई व्यक्ति अथवा परिवार राष्ट्र से बड़ा नहीं हो सकता है। आज भी बेशक किसी नोट या सिक्के पर उनकी तस्वीर नहीं लेकिन देश की जनता के दिलों में  जो सम्मान सर्वश्री बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, वीर सावरकर तथा लाखों स्वतंत्रता सेनानियों के लिए है वह किसी नकली नायक को कभी प्राप्त हो ही नहीं सकता। 
आजादी के बाद भी अनेक नेताओं तथा अन्य क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्तित्वों ने अपनी सादगी, समर्पण तथा ईमानदारी से देश की खुशहाली में महत्वपूर्ण योगदान दिया परंतु फिर भी उनकी चर्चा नहीं की जाती क्योंकि वे सत्ता के केन्द्र की परिक्रमा नहीं करते थे। आत्मकेन्द्रित सोच के कारण यह गलत प्रचलन   आरंभ हुआ कि जो व्यक्ति सचमुच समाज का हित चाहता है तथा जनता की भलाई के लिए मरने मिटने के लिए तैयार हो, उसे किनारे लगाओं। पिछले दिनो आजादी के बाद भी ऐसे लोगों की अपनी सरकारों द्वारा जासूसी के समाचार उसी सोच का विस्तार है। ऐसे में यह समझना कठिन नहीं कि सुभाष, भगत सिंह, सावरकर को उस काल में असफल करने की कोशिशें क्यों हुई और बाद में भी उनको आपेक्षित सम्मान नहीं दिया जाता वरना देश के इतिहास से महत्वपूर्ण स्थानों के नामकरण  में एक ही परिवार का बोलबाला क्यों होता? इसलिए खुद ही इतिहास को अपने नाम और निशान वाले पत्थरों से पाट देनी इस मानसिकता  पर देश के बुद्धिजीवी वर्ग को इस पर अपना मुंह बंद नहीं रखना चाहिए। देश पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वालों की विरासत को आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा के लिए कुछ अवश्य किया जाना चाहिए।
क्या यह उचित नहीं होगा कि भविष्य का भी कोई शासक ऐसी मनमानी न कर सके इसके लिए किसी संस्थान अथवा योजना, परियोजना के नामकरण अथवा नाम बदलने के लिए कोई न्याय संगत और निष्पक्ष  प्रणाली होनी चाहिए तथा एक ही व्यक्ति के नाम पर अधिकतम संस्थानों की सीमा होनी चाहिए। ऐसा न हो कि अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वालों के नाम पर कुछ भी नहीं और तिकड़म से शिखर तक पहुंचने में सफल लोगों के नाम हर दीवार पर हो। योगदान के अनुसार हर स्वतंत्रता सेनानी  की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए कुछ किया जाना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियां भी उनसे प्रेरणा ले, और उनमें भी देश धर्म पर कुर्बान होने का जज्बा पैदा हो सके।
चलते-चलते प्रथम प्रधानमंत्री प.जवाहरलाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित का संस्मरण जिसमें उन्होंने लिखा है, ‘मैं यह सुन-सुन कर थक गई थी कि नेहरू परिवार ने सबसे बड़ी कुर्बानी की है। किसी ने मुझ से पूछा था कि क्या आप समझती हैं कि नेहरू खानदान ने सबसे अधिक कुर्बानी दी थी? मेरा जवाब था कि अगर हमने ऐसे किया है तो हमें मुआवजा भी बराबर मिल गया है।’ इंदिरा को यह बात पसंद नहीं आई। उसी रात उसका फोन आया। बोली, ‘बुआ क्या आपने ऐसा कहा है?’ मेरा जवाब था, ‘क्या तुम नहीं समझती कि यह सही कहा है? मेरा भाई इतने वर्ष सत्ता में रहा। उनके बाद तुम बनी।’
आश्चर्य है कि जिस देश में बच्चे- बच्चे को घुटी में ही सिखाया जाता है कि देश से बड़ा कुछ भी नहीं है। हम ‘भारत माता की जय’ का उद्घोष करते है तो फिर कोई बेटा अपनी मां से बड़ा कैसे हो सकता है? राष्ट्र से एक परिवार अथवा एक व्यक्ति को बड़ा घोषित करने वालों के लिए किसी कवि ने क्या खूब कहा है- 
जाने कितने झूले थे फांसी पर, कितनो ने गोली खाई थी। 
क्यों झूठ बोलते हो साहिब,  बस चरखे से आजादी पाई थी। 

-- विनोद बब्बर संपर्क-rashtrakinkar@gmail.com
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