असहिष्णुता का हॉट केक

पिछले दिनों असहिष्णुता ‘हॉट केक’ की तरह हाथो-हाथ बिकी  कुछ लोगों के लिए तो यह ‘केक वाक’ था.  इसलिए तो मोर्चा लेने के लिए ‘मार्च’ भी हुए । जिसे देखो वही असहिष्णुता, असहिष्णुता  चिल्ला रहा था यह साबित करने के लिए कि इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली गई है। कुछ लोग सड़क पर अभक्ष्य का भक्षण  कर अपनी बात को सही साबित कर रहे थे  कि यहां खाने तक की स्वतंत्रता नहीं है। कुछ मित्र ऐसे भी थे जिनकी अंतर्रात्मा को अचानक जाग उठी और वे महसूस करने लगे कि वे इस या उस पुरस्कार अथवा सम्मान के योग्य तो नहीं थे लेकिन उन्हें दे दिया गया। वे उस समय कुछ करते उससे पहले ही मित्रों ने बधाईयों का सिलसिला शुरु कर दिया तो बात दब गई। शायद बधाईयों के शोर में अन्तर्रात्मा की आवाज या तो दब गई या फिर अन्तर्रात्मा भी शोर में विभोर में होकर विचलित हो गई हो। अब जबकि  बिहार चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। बहुत संभव है कि असहिष्णुता कुछ दिन ठण्डे बस्ते में रहे। सम्मान वापसी का काफिला फिलहाल अपने तम्बू लपेट ले। लेकिन यह कब तक? भारत में चुनाव बारहमासी उत्सव है। बहुत जल्द फिर बिगुल बज सकता है। ऐसे में  इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस ‘जांचे, परखे, खरे’ हथियार का प्रयोग बार-बार किया जाएगा।
खैर सबकी अपनी-अपनी आत्मा है और सबका अपना-अपना मिजाज। ठीक उसी तरह से जैसे सहिष्णुता की भी अनन्त व्याख्याएं है। सबकी अपनी- अपनी है। अनेक बार तो एक ही आदमी के पास अनेक व्याख्याएं होती है। जब, जहां, जैसी जरूरत हो पेश कर दो।
हमारे एक मित्र है। फेसबुक पर काफी सक्रिय रहते है। उनकी चेतना जागृत है तो वाणी और व्यवहार विशुद्ध। इसमें दो राय नहीं कि वह योग्य हैं। लेकिन उनकी हर बात से सहमति ही हो ऐसा नहीं हो सकता। परंतु उन्हें अपने विचार से असहमति अस्वीकार है। जरा किसी ने कुछ नहीं कि आक्रामक हो उठते हैं। किसी को भी बाहर का रास्ता दिखाते एक क्षण नहीं लगता। वे नहीं मानते कि उनका व्यवहार ‘सहिष्णु’ नहीं है। अब जब नहीं मानते, तो नहीं मानते। आप कौन होते हैं कहने वाले। समझाने वाले। वैसे वह खुद स्वीकार करते हैं कि जिस आश्रम में रहते हैं उसके प्रबंधकों की उन्हें परवाह नहीं। अपने गुरु तक से असहमति घोषित करने वाले यह महानुभाव आजकल असहिष्णुता पर बहुत अच्छा प्रवचन कर रहे हैं। अच्छा लगता है क्योंकि उनके मुंह से कभी-कभी अच्छी बात भी निकल जाती है। इसी प्रकार एक अन्य मित्र साधारण बातचीत में ही पारिवारिक शब्दावली का उपयोग करने लगते हैं। टोकने पर उग्र हो जाते हैं। अब इसे असहिष्णुता कहे तो मुस्कराकर कहते हैं- अरे आपकोे मेरा दिल देखना चाहिए। मैंने आज तक किससी के प्रति बुरा सोचा तक नहीं। हां, कभी-कभी बोलने में थोड़ा इधर उधर हो जाता है। 
आजकल बहुत से अंग्रेजी दा लोग जो ‘जीरो प्रसेन्ट टोलरेन्स’ की बात तो बहुत गर्व से करते हैं असहिष्णुता पर वे भी बहती नाली में हाथ नीले कर रहे है। क्यों न पहले इसी बात चर्चा की जाए कि आखिर असहिष्णुता है क्या? उसे गलत कहे या ठीक? क्या एक राष्ट्र को अपनी सीमाओं की रक्षा करने के मामले में सहिष्णुता होना चाहिए? यदि हां तो क्या जरूरत है सीमा सुरक्षा बल की? रेंजर की? और अगर नहीं तो यह गलत कैसे? क्या कानून को सहिष्णु होना चाहिए? क्या न्याय सहिष्णु होता है? अगर है तो पुलिस, कोर्ट, जेलें क्यों?
यह भी समझा जाना चाहिए कि सहिष्णुता एक तरफा नहीं हो सकती है। सीमापार कर आने वाले आतंकी के इरादे जगजाहिर है। अब यदि कोई वहां सहिष्णुता का उपदेश दे तो उसके इरादो पर शक क्यों न किया जाए? हां, कोई भला आदमी अनजाने में ऐसी गलती करे तो जांच की उसे छोड़ा जा सकता है। इसी प्रकार यदि कोई कहें कि मैं  अपने घर पर जो मर्जी करूं। आपको या कानून को इससे क्या लेना देना? तो भाई समझ लो- अगर आप अपने घर को बम से उड़ाओंगे या उसे आग लगाओंगे तो पड़ोसियों को भी खतरा है। आपको कानून अथवा समाज से सहिष्णुता की आशा नहीं करनी चाहिए। आपको अपनी इच्छानुसार जीने का अधिकार है लेकिन समाज की मर्यादाओं का पालन करना भी तो आपका कर्तव्य है। यह भी हमें समझना चाहिए कि यदि हम दूसरो की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की तरफ बढ़ते हो तो सहिष्णुता की दुहाई देने का अर्थ  है कि हम स्वयं को शातिर और दूसरों को मूर्ख समझते है। ऐसा कर हम समाज को धोखा देना चाहते है। हां, यह भी सत्य है कि किसी को भी कानून को अपने हाथ में लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती। हिंसा अस्वीकार्य है। क्योंकि वह प्रतिहिंसा को जन्म देकर वातावरण को दूषित करती है।
राजनीति की अपनी आवश्यकताएं, विवशताएं हो सकती है लेकिन राजनैतिक लाभ के लिए देश के सम्मान को कम करना अनैतिक ही नहीं असंवैधानिक भी होगा। आम धारणा है कि नेता और  नैतिक परस्पर विरोधी है। इनका मेल असंभव तो नहीं लेकिन कठिन अवश्य है। लेकिन देश के बुद्धिजीवी वर्ग को जिम्मेवारी से नहीं भागना चाहिए। कहीं कुछ गलत हो रहा हो तो उनकी जिम्मेवारी दोतरफा है। एक वह गलत का विरोध करे। दूसरा वह स्थिति को सामान्य बनाने के लिए रचनात्मक सहयोग और सुझाव प्रस्तुत करें। यदि समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है तो उन्हें अपनी प्रथम दो जिम्मेवारियों को पूरा किये बिना अचानक पलायन की ओर बढ़ना उनकी असहिष्णुता के अतिरिक्त आखिर क्या है? 
आज सड़क पर छोटी-छोटी बातों पर मारपीट, गाली-गलौच, तनाव, परिवारों में टूटन, रिश्तों का रिसना सभी देख रहे है। छोटे-छोटे बच्चे तक अपने माता-पिता की बात नहीं मानते। अपनी जिद्द पूरी कराना चाहते हैं तो युवा वर्ग बहुत तेजी से आत्मकेन्द्रित हो रहा है। यह सब एक दिन में नहीं हुआ है। किसी दल या दलदल के आने या जाने से इसका संबंध जोड़ना स्वयं कह अयोग्यता का प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना है। इसके लिए जरूर एक से अधिक परिस्थितियां जिम्मेवार होंगी। बुद्धिजीवी वर्ग को उन परिस्थितियों का अध्ययन करना चाहिए। पूरी ईमानदारी से उसके कारणो को खोजना होगा क्योंकि मर्ज को जाने बिना मरीज का इलाज करना उसकी जान को खतरे में डालने जैसा है।
हम बार-बार कहते हैं इस देश में किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। लेकिन समान कानून से क्यों भागते हैं? शिक्षा के मामले में भी एक  अनिवार्य पाठयक्रम के अतिरिक्त धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है। इससे भागने का औचित्य जनमानस में भ्रम पैदा करता है। निश्चित रूप से ेधर्म हमारी आवश्यकता है। हमारी पहचान है। लेकिन यह हमारा व्यक्तिगत मामला है। हमारी व्यक्तिगत श्रद्धा है। व्यक्तिगत निष्ठा है। इसे हम दूसरो पर कैसे थोप सकते हैं। तय कीजिए- ‘किसी भी धार्मिक स्थल पर लाउडस्पीकर नहीं लगेगा।’ लेकिन इसमें भेदभाव का अर्थ है नैतिकता से दूर रहने वाले हमारे नेता समाज को एक नजर से नहीं देखना चाहते। सामाजिक सद्भाव उन्हें नहीं भाता। उन्हें फूट पसंद है। लेकिन उन्हें फूट की छूट नहीं दी जा सकती।  यह जिम्मेवारी हर जागरूक व्यक्ति की है कि वह अपने चिंतन को  निष्पक्षता से जोड़े। धर्म मानव  जीवन को सहज, सरल बनाने के लिए हैं नकि इसे कठिनतर बनाने के लिए। संसार था, है और रहेगा।  लेकिन उसके पर्यावरणमें अनेक परिवर्तन हुए है। परिस्थितियां भी बदली है। ऐसे में धर्म के स्वरूप भी बदलने चाहिए। हमने मौसम के अनुसार कपड़े बदलना सीखा। परिस्थितियों के अनुसार छोटे घरों में रहना सीखा। खानपान में भी बदलाव स्वीकारे। बेहतर जीवन की तलाश के लिए हमने अपनी जन्म भूमि को छोड़ना स्वीकार कर लिया। तो बेहतर संबंधों के लिए हमें अपने-अपने धार्मिक मान्यताओं को भी कट्टरता से अलग करना चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि धर्म से पहले मानव धर्म है। समाज धर्म है। राष्ट्रधर्म है। इन सबकी मर्यादा को रौंदकर किसी भी धर्म का सम्मान  नहीं बढ़ाया जा सकतेा किसी भी विश्वास को नहीं बचाया जा सकता।
यदि मेरी यह बात आप तक पहुंच रही है तो इसका मतलब है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बरकरार है। यदि मेरी बात आपके दिल तक पहुंच रही है तोे स्पष्ट है सहिष्णुता की आवश्यकता है। और यदि ऐसा है तो कुछ सिरफिरे लोगों का प्रलाप अथवा पलायन  तो क्या दुनिया की कोई ताकत हमारी एकता को तोड़ नहीं सकती। सदियों से दुनिया को सहिष्णुता सिखाने वाले हिन्द को कोटिशः नमन!
-- विनोद बब्बर संपर्क-09868211911
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