पाप या अपराध नहीं, समय की मांग है ‘समीक्षा’
बिहार चुनाव के दौरान ‘आरक्षण की समीक्षा’ सर्वाधिक चर्चित विषय रहा। शब्द को कितने मनमाने ढ़ंग से परिभाषित किया जा सकता है यह बिहार चुनाव की एक उपलब्धि भी कही जा सकती है। राजनैतिक लाभ के लिए समर्थकों को आरक्षण समाप्त होने का भय दिखाया गया तो दूसरी ओर आरक्षण विरोधी भी भ्रम में रहे। परिणाम जो होना था सो हुआ लेकिन ‘समीक्षा’ की समीक्षा नहीं हुई। अब जबकि लाभ-हानि का दौर समाप्त हो चुका है इसलिए यह जरूरी होगा कि ‘समीक्षा’ के निहितार्थ को समझा जाये।
समीक्षा कोई पाप अथवा अपराध नहीं है और न ही यह शब्द पहली बार उपयोग में लाया गया है। केवल भारत में ही नहीं, दुनिया भर में समीक्षा की परम्परा है। आज से नहीं, आदिकाल से जारी इस परम्परा पर कभी विराम भी नहीं लगाया जा सकता क्योंकि मनुष्यता की सबसे बड़ी कसौटी है- ‘अपने व्यवहार और उसके परिणामों पर विचार करते हुए उसमें आवश्यक सुधार।’ आज विश्व आतंकवाद के खतरों से जूझ रहा है। अतः आतंकवाद का सामना करने के लिए सभी पक्षों लगातार समीक्षा कर रहे हैं। दुनिया के हर स्कूल कालेज में होने वाली परीक्षाएं भी तो परीक्षार्थी की योग्यता की समीक्षा ही है।
स्वतंत्रता के पश्चात से अब तक देश के संविधान में अनेक संशोधन हुए। अनेक पुराने कानूनों को बदला गया। नये कानून बने। देश की सबसे बड़ी अदालत ने संसद द्वारा पारित कानूनों की समय- समय पर समीक्षा कर उन्हें अमान्य तक घोषित किया है। शाहबानों मामला किसे याद न होगा जब गुजारा भत्ता मामले में सरकार ने अदालत के फैसले की समीक्षा कर उसे उल्ट दिया। उसके बाद जब मामला फिर अदालत के सम्मुख आया तो सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की मूल भावना के विरूद्ध बताते हुए उस कानून को अमान्य करार दे दिया। हां यह बात अलग है कि सरकार ने अदालत के निर्णय की फिर से ‘समीक्षा’ कर उस कानून को संविधान की उस सूची में डाल दिया जहां अदालत कुछ नहीं कर सकती। इसी बीच अनेक बार सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान का संरक्षक होने की जिम्मेवारी का निर्वहन करते हुए सरकार के कामकाज की ‘समीक्षा’ की। कुछ दिन पूर्व जजों की नियुक्तियों से संबंधित कानून के संसद से पारित होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने उसे अमान्य किया। इसके अतिरिक्त न्यायिक समीक्षा तो जैसे सामान्य ही है।
वास्तव में हर नई परिस्थिति में नई चुनौतियों होना स्वाभाविक है। अतः समीक्षा ही यह तय करती है कि अगला कदम क्या होना चाहिए। केवल शान्ति काल में ही नहीं, युद्ध भूमि में भी योद्धा हर रात समीक्षा कर भविष्य की रणनीति बनाते थे। किसान अगली फसल को और अधिक लाभकारी बनाने के लिए समीक्षा करता हैं तो निरन्तर समीक्षा करना व्यापारी की दिनचर्या का अंग है। यहां तक कि गृहस्थ और संन्यासी भी आत्म चिंतन करते हैं। यह आत्मचिंतन समीक्षा के अतिरिक्त आखिर क्या है?
लोकतंत्र में हर पांच वर्ष बाद होने वाले चुनाव भी तो सरकार के कामकाज की समीक्षा है। दिल्ली में लगातार तीन बार जनता का समर्थन पाने में सफल रही शीला दीक्षित चौथी बार बुरी तरह पराजित हुई। क्या पहले तीन बार समर्थन अकारण था? क्या चौथी बार का निर्णय गलत था? नहीं, यह एक व्यक्ति का नहीं, जनता के बहुमत का निर्णय है। जनता ने अपने ढ़ंग से समीक्षा के बाद जो फैसला लिया वहीं शिरोधार्य। सर्व स्वीकार्य। स्वयं बिहार चुनाव परिणाम भी तो जनता द्वारा विभिन्न पक्षों के दावों की समीक्षा ही है। वहां के नए मंत्रीमंडल गठन की लाख आलोचना की जाए लेकिन सरकार के मुखिया ने अपने ढ़ंग से निश्चित समीक्षा कर यह निर्णय लिया होगा।
जहां तक आरक्षण की समीक्षा का प्रश्न है। वह संविधान लागू होने के बाद से लगातार जारी है। आरंभ में दस वर्ष का प्रावधान था जिसे समीक्षा के बाद बार-बार बढ़ाया गया। आरंभ में अनुसूचित जाति और जनजाति को ही आरक्षण का लाभ मिलता था जिसमें कालान्तर में लम्बे सोच विचार अर्थात समीक्षा के बाद ‘अन्य पिछड़ी जातियों’ को भी शामिल किया गया। इस सूची में अपनी-अपनी जाति को शामिल कराने के लिए अनेक आंदोलन भी हुए। ताजा उदाहरण गुजरात की पटेल जाति का है। इससे पूर्व राजस्थान में गुर्जर और हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों का आंदोलन चर्चा में रहा। जाटों को मिले आरक्षण की समीक्षा के बाद उच्चतम न्यायालय ने ओबीसी के तहत आरक्षण वाली अधिसूचना को रद्द करते हुए स्पष्ट कहा, ‘ऐतिहासिक रूप से देश में जाति व्यवस्था नाइंसाफ़ी का प्रमुख कारण रही है। लेकिन वर्तमान में किसी वर्ग के पिछड़ेपन का एकमात्र कारण जाति नहीं हो सकती। अतः इसके लिए नए तरीक़े और मानदंड बनाने हांेगे। आरक्षण का दरवाजा केवल उन्हीं के लिए खोला जाए जो सबसे अधिक पीड़ित हैं। इसके अलावा किसी और को इसमें आने की इजाज़त देना सरकार के लिए संविधान के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे हटने जैसा होगा।’
समीक्षा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आरक्षण में शामिल जातियों की सूची लगातार बड़ी होती जा रही है। स्वतंत्रता के लगभग सात दशक बाद आज तक एक भी जाति इस सूची से बाहर की गई हो ऐसा समाचार कभी प्राप्त नहीं हुआ। स्पष्ट है कि बेशक कुछ बदलाव हुआ लेकिन आरक्षण किसी भी जाति के सभी लोगों को सामाजिक व आर्थिक रूप से सक्षम नहीं बना सका। वैसे भी दुनिया भर की किसी भी जाति के सभी सदस्य समान रूप से समृद्ध अथवा कमजोर नहीं होते हैं। शायद यही बात तथाकथित स्वर्ण जातियों के साथ भी है। ऐसे में समीक्षा का अर्थ यह भी हो सकता है कि आरक्षण समाप्त न करते हुए इसकी सीमा तय कर दी जाए कि एक आदमी को आखिर कितनी बार आरक्षण दिया जाए। क्या पासवान, लालू जैसे लोगों, अनेक बार के सांसदों, विधायक, मंत्री, आईएएस, आईपीएस को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए या उसी जाति के गरीबों को? जिस तरह 10 लाख से अधिक आय वालों को गैस सबसीड़ी के अयोग्य घोषित करने की योजना है, इसी तरह की एक क्रीमी लेयर को आरक्षण की श्रेणी से बाहर कर उसी वर्ग के गरीब लोगों को उसका लाभ क्यों न दिया जाए? इस तथ्य से किसे इंकार होगा कि फिलहाल आरक्षण का लाभ कुछ लोग ही ले रहे हैं। शेष लोगों की स्थिति जस की तस है। इसीलिए बार-बार लाभ प्राप्त करने वाला वर्ग आरक्षण से वंचित लोगों को गुमराह करता है।
आरक्षण अर्थात् विशेषाधिकार कोई नई पद्धति नहीं है। सदियों से हारे समाज में भी परिवार का ंजब कोई सदस्य बीमार हो जाता है तो शेष परिवार स्वयं रूखा-सूखा खाकर भी उसे दवा संग फल, दूध आदि देते हैं ताकि वह जल्द स्वस्थ होकर परिवार की समृद्धि में अपना योगदान सुनिश्चित करें। यह स्मरणीय है कि ऐसा करते हुए हम उसके शीघ्र सामान्य होने की कामना भी करते है। इसी प्रकार शारीरिक रूप से असक्षम समाज के सदस्य का भी ध्यान रखा जाता है। विचारणीय बिन्दू है कि सवा सौ करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश में जिस उद्देश्य से भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया था, क्या वह प्राप्त हुआ? यह भी समझना जरूरी है कि अब तक जनसंख्या में जिस अनुपात से वृद्धि हुई है सरकारी पद नहीं बढ़ हैंे। देश में केंद्रीय तथा राज्य सरकार के कुल 47 लाख कर्मचारी बताये जाते हैं। इसके अतिरिक्त स्थानीय निकायों में 21 लाख कर्मचारी हैं। सातवे वेतन आयोग की रिपोर्ट बताती है कि सरकारी नौकरियों में सुरक्षा तथा सुविधाओं का आकर्षण का क्यों है इसलिए मारामारी होना स्वाभाविक है। पिछले दिनों उप्र में पांचवी कक्षा योग्यता वाले सहायक के कुछ पदों के लिए लाखों उच्च शिक्षितों का उम्मीदवारी पेश करना इसका एक उदाहरण है।
संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत जी ने एक पत्रिका से साक्षात्कार में आरक्षण नीति की समीक्षा के लिए एक अराजनीतिक समिति के गठन का सुझाव दिया जो यह देखे कि किस जाति-वर्ग को कितने आरक्षण की जरुरत है और कितने लम्बे समय तक। इस मांग में आरक्षण को समाप्त करने का कहीं कोई संकेत तक नहीं है। समीक्षा समय सापेक्ष है। उससे भागना स्वयं को धोखा देना है। देश के हर बच्चे को अच्छी शिक्षा, योग्यतानुसार रोजगार मिलना ही चाहिए। इस समीक्षा में रोजगार के अवसर बढ़ाने तथा वेतन में असमानता कम करने पर विचार होना चाहिए ताकि युवा असंतोष देश के विकास को बाधित न कर सके।
- विनोद बब्बर संपर्क-09868211911, 09458514685
पाप या अपराध नहीं, समय की मांग है ‘समीक्षा’
Reviewed by rashtra kinkar
on
20:34
Rating:
Reviewed by rashtra kinkar
on
20:34
Rating:
![Rashtra Kinkar [राष्ट्र किंकर] :: Official Blog Page](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNu95SKpCW238sRVga5VRXBm0FiR20xexYthgw7TixtmD_5ZxbeQrwvB90e1PhTrlOblozLq3i1cdU8nxr1I2wuemj3GQs8C302LkBLxO1wduw2caKy7DDFr7BmiGKczMg2FjGSxSlrAw/s1600/hk.jpg)
No comments