धरती पुत्र होने की भावना ही एकता की गारन्टी

एकता शब्द की बहुत महता है। ‘एकता में बल है’, ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’,   Union is Strengh, Unite we Stand- devide we fall जैसे अनेको मुहावरे प्रचलित है जो एकता का महिमा मंडन करते है। दुनिया भर में एकता का गुणगान करते हुए अनेक ग्रन्थ लिखे जा चुके है। सैंकड़ों शोध कार्य हुए। हजारों नहीं, लाखों कविताएं और गीत एकता का वंदन करते हैं। दुनिया का कोई सम्प्रदाय, कोई गुरु, कोई उपदेशक, कोई अभिभावक  ऐसा नहीं जिसने एकता पर बल न दिया हो। लेकिन आश्चर्य कि एकता का सर्वत्र अभाव दिखाई देता है। दुनिया की बात नहीं अगर हम केवल अपने देश, परिवेश की बात करें तो हम जाति, धर्म, भाषा, प्रांत, अमीरी-गरीबी ही नहीं शिक्षित और उच्च शिक्षित जैसे द्वीपों में बंटे दिखाई देते है। एकता से साक्षात्कार होना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। हां, समाज परिवार को बांटती एकता कपूर जरूर बिन बुलाये हर घर में प्रकट हो जाती है। संदेह होता है कि हम एकता के नाम पर आखिर क्या करते हैं? याद आया एक बार नेता अपने समर्थकों को विजय का मंत्र देते हुए समझा रहा थां- ‘विजय उसी समाज, उसी दल की होती है जो समझ लें- एकमत हो! एकमत हो!’ लोग तालियां बजा रहे थे लेकिन बहुत कम लोगों ने ही देख-सुन पाया कि वह ‘एकमत हो’ नहीं, ‘एक मत हो’ का उद्घोष कर रहा था। उसकी  एक अंगुली पंडुलम की तरह हिलते हुए उसके इरादों की कहानी कह रही थी। जो समझे वे खबरदार हो गए और जो नारों में बह गये वे अगले ही दिन हुए दंगों में काम आ गए। जय हो एकता के नारों की। बलिहारी एकमतता की।
क्या यह जरूरी नहीं कि हम पहले समझे कि एकता दिखावटीहै, सजावटी हैै, सतही है या इसमें कुछ गंभीरता भी है। आतंकवाद को ही लें। सब इस बात से शत-प्रतिशत सहमत है कि आतंकवाद मानवता का शत्रु है। जिसने भी उसका साथ दिया, इसने उसे भी नहीं छोड़ा। विश्वास न हो अफगानिस्तान में आतंकवाद को बढ़ावा देने वालो का हाल देख लो।  लेकिन न जाने क्यों जब भी  कोई अनहोनी घटना घटती है तो कुछ लोग प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से बचाव करने लगते है। तो कुछ संकट की इस घड़ी में एकता की जरूरत पर बल देने लगते है। एकता सम्मेलनों का आयोजन होने लगता है। 
क्षमा करें, स्वयं को श्रेष्ठ बताते हुए अपने गुण गाने-बताने और दूसरों में दोष दर्शन करते हुए एकता की बात करना अच्छा अभिनय तो हो सकता है पर अच्छा व्यवहार नहीं हो सकता। यह ठीक उसी तरह से है जैसे किसी व्यक्ति को गीता के कुछ श्लोक या वेद के कुछ मंत्र या कुरान की कुछ आयते कंठस्थ तो हो लेकिन यह सब उसके व्यवहार में ढ़ूंढ़ने पर न मिले। जाकिर नाईक को ही लें। उसे अपने धर्म प्रचार का अधिकार है लेकिन उसे हिन्दू देवी-देवताओं का मजाक बनाने का अधिकार हर्गिज नहीं है। यदि पैगम्बर साहब अथवा उनकी पवित्र पुस्तक पर टिप्पणी ‘ईश निन्दा’ है तो जाकिर जैसे सिरफिरो का करोड़ो लोगों की आस्था पर प्रहार करना क्या है?
इधर ढ़ाका की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद एक ऐसे ही ‘एकताभक्त’ के उस ट्विट की चर्चा है जिसमें उसने फरमाया है- ‘अब तो यह समझ में आ जाना चाहिए कि केवल कुरान ही मौत से बचा सकती है’ ऐसा कहने वाला नासमझ खुद ही नहीं समझ पा रहा कि आईएसआईएस से आईएसआई द्वारा मारे जा रहे लोगों में अधिकांश कुरान की एक नहीं, अनेक आयतें जानते थे। स्पष्ट है कि केवल आयत या मंत्र जानने से बात बनने वाली नहीं है। बात तब बनेगी जब हम सभी न केवल मानवता का अर्थ समझे बल्कि उसे आत्मसात भी करें।
मुझे याद है लगभग दो दशक होने को है, मशहूर शायर फैज साहिब दिल्ली आये। संयोग से एक कार्यक्रम में मैं भी मौजूद था। जब फैज साहिब का परिचय पाकिस्तानी के रूप में कराया गया तो उन्होंने इसपर आपत्ति करते हुए कहा था, ‘मुझे पाकिस्तानी कहा गया लेकिन हम पाकिस्तानी तो महज पचास सालों से हैं जबकि हिन्दुस्तानी तो सदियों से हैं। मुझे मुस्लिम शायर कहा जाता है। अरे भाई मुस्लिम तो हम पन्द्रह सौ बरसो हैं लेकिन हम हजारों सालो से हिन्दू भी तो है।’ आज एकता की बात करने से पहले हम अपने अन्तर्मन में टटोलना चाहिए कि फैज साहिब ने जो कहा था वह ठीक था या नहीं? शायद ही इस बात से किसी की असहमति हो कि कुछ पीढ़ी पहले तक भारतीय उपमहाद्वीप के सभी निवासी समान धार्मिक विश्वास को मानने वाले थे। कुछ कारणों से कुछ ने अपनी पूूजा पद्धति बदल ली। बेशक ऐसा करना उनका अधिकार था। लेकिन धर्म बदलने से पूर्वज तो नहीं बदले जा सकते। हम अपने नये विश्वास के अनुसार जीवन पद्धति अपना सकते हैं लेकिन अपने पूर्वजों की जीवन शैली की निंदा कैसे कर सकते है। अगर हम यह बात समझ ले तो ‘हिन्दू -मुस्लिम भाई-भाई’ नारा नहीं, वास्तविकता बन जायेगा। और भाईयों जैसे संबंध, सद्भावना कायम हो सकती हैं।
इधर धार्मिक कट्टरता देश की एकता को भी प्रभावित कर रही है। यह बेहद दुखद की बात है कि हम लोग किसी भी घटना- दुर्घटना पर प्रतिक्रिया देने से पहले प्रभावित लोगों के धार्मिक विश्वास को भी देखने लगे हैं। ऐसे वातावरण में एकता नारों से आगे बढ़ेगी इसमें संदेह होता है। मुझे याद है कुछ वर्ष पूर्व पाकिस्तान के बच्चों का एक दल सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अन्तर्गत भारत आया। उन्हें देश के महत्वपूर्ण स्थलों- स्थानों का दौरा कराया गया और अंत में दिल्ली मैट्रो की सैर करा विदाई देनी थी। विदाई की बेला में उन बच्चों से पूछा गया- ‘भारत कैसा लगा? उन्होंने खूब प्रशंसा की- ‘ताजमहल बहुत सुंदर है। चण्डीगढ़ अच्छा लगा। ये.. ये भी बहुत सुंदर लगा। मैट्रो अद्भुत लगी।’ एक पत्रकार ने पूछा, ‘क्या भारत पाकिस्तान से अच्छा लगा?’ उस दल का जो सबसे बड़ा लड़का उत्तर दे रहा था बोला, ‘नहीं, सारे जहां से अच्छा पाकिस्तान हमारा!’ मुझे नहीं मालूम कि उसका जवाब सबको अच्छा लगा या बुरा लगा। लेकिन मुझे यह सुनकर बहुत अच्छा लगा। ऐसा लगा मानो वह बालक भी वंदेमातरम् कह रहा हो। मैं नहीं जानता कि वंदेमातरम् का समर्थन करने वालो से विरोध करने वालो तक जानते है या नहीं जाने कि वंदेमातरम् में कहीं भी भारत, इण्डिया, हिन्दुस्तान, आर्यवर्त शब्द नहीं है। पाकिस्तानी बच्चों की ओर से उत्तर देने वाला वह बालक उस दल का इकलौता हिन्दू था। उसका ‘सारे जहां से अच्छा पाकिस्तान हमारा!’ कहना उसका धर्म था। उसका वंदेमातरम् था। एकता का मंत्र था। लेकिन जब अपने घर में नजर दौड़ाते है तो यहां राष्ट्र-धर्म दूर-दूर नदारद दिखाई देता है। ध्यान रहे धार्मिक विश्वास अलग होते हुए भी राष्ट्र    धर्म हमें किसी भी अन्य वस्तु से ज्यादा मजबूती से जोड़े रखता है।ं 
मैं दावे के साथ कह सकता हूं जिस दिन हम अपने आपको एक भारत माता की सन्तान मानेगे, सहोदर बन कर एकता के नारे से बहुत ऊपर उठ जायेगे। तब हमें एकता सम्मेलनों की जरूरत शायद ही पड़े। एकता का तब कोई अर्थ हो सकता है जब हमें अपने भाई के गुण दिखाई देंगे और अपने अवगुण दिखाई देंगे। मैं कुरान की उस आयत की भावना को नमन करता हूं जिसके अनुसार- ‘यदि हमारा हमसाया भूखा है तो हमारा खाना हराम है।’ लेकिन जिस पाकिस्तान को हम- आप मुस्लिम राष्ट्र मानते हैं वही पाकिस्तान अपने हमसाये यानि भारत को बर्बाद करने पर तुला है। विचार करें कि आखिर वह कैसा मुस्लिम है? 
मैं यह भी कहने का साहस रखता हूं कि ‘वसुधैव कुटम्बकम’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का उद्घोष करते हुए यदि कोई मनुष्य तो क्या किसी भी जीव को पीड़ित, प्रताड़ित करता
है तो वह हिन्दू नहीं हो सकता। वह मानव नहीं हो सकता। इस देश के बहुसंख्यक लोगों के  लिए मानवता ही धर्म है। यदि कोई स्वयं को मानवता और राष्ट्रधर्म से रहित बनाते हुए धार्मिक कहलाना चाहता है तो उसका धर्म उसे मुबारक। हर भारतीय को ऐसे किसी भी विश्वास का विरोध करना चाहिए।
 (पिछले दिनों आयोजित एकता सम्मेलन में विनोद बब्बर  द्वारा दिये व्याख्यान के अंश)
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