मना का आधार और आधार की मना (व्यंग्य) Manaa-- Refuse or Celebration?


 मना का आधार और आधार की मना
हमारे घसीटाराम जी का मना से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। वे खाने के बाद भी खा लेंगे लेकिन मना नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें उनके गुरु ने किसी का दिल तोड़ने से मना किया था। गुरु की आज्ञा को मना करने का सवाल ही पैदा नहीं होता इसलिए उन्होंने इस आज्ञा का आजीवन पालन के लिए मन को मना लिया। आज रंगा माथा  और पिचके गाल लेकर पहुंचे तो मेरा माथा ठनका कि आखिर माजरा क्या है। बार-बार पूछने पर बोले, ‘सब तुम्हारे जैसों को किया धरा है। आज रास्ते में दबाव ज्यादा बढ़ गया तो एक स्थान पर जरा रुक कर दबाव घटाया ही था कि कुछ लोगों ने घेर लिया। बोले, शक्ल से तो लिखे-पढ़े मालूम होते हो पर यहां लिखा क्यों नहीं पढ़ा?’
बिना यह समझे कि मना के अनेक अर्थ, अनेक भाव होते हैं, उन्होंने वहां लटकेे एक बोर्ड की ओर इशारा किया, जिसपर लिखा था ‘यहां वो करना मना है।’
बेचारे घसीटाराम जी ने उन्हें समझाना चाहा कि ‘मना’ आपने आप में अजूबा है। आप मना को निषेध घोषित करते हुए जगह-जगह लिख देते हो, ‘यहां यह मना है, वह मना है’ लेकिन समझदार लोग दबाव में आ जाते हैं क्योंकि मन ‘मना’ को लेकर अक्सर कन्फूज िया जाते है। ‘सुमिरन कर ले रे मना’ मना नहीं करता। ‘जमकर मना जीत का जश्न’ मना नहीं करता तो ‘यहां थूकना मना है’ को निषेध मानना आखिर क्यों संवैधानिक बाध्यता है ई बात के माने क्या है? पहले आप तय तो कीजिए कि मना माने क्या?
स्वच्छता अभियान वाले उनकी सुनने को तैयार ही कहां थे। घसीटाराम जी ने लाख समझाया, ‘अरे भाई कहीं भी देख लो, जहां  लिखा हो- ‘यहां मना है’ वहां आम आदमी क्या करता है। आप समझे या न समझे पर साधारण आदमी सोच समझ कर ही फैसला करता है। यही तो लोकतंत्र है। आपकी समझ में लोकतंत्र क्या है मैं नहीं जानता पर लोक के लिए फैसला करना भी एक उत्सव है जिसे वह अपने ढ़ंग से ‘मना’ लेता है। एक स्थान पर लिखना था- ‘यहां मना है’ लिखते लिखते स्याही और स्थान कम पड़ गये तो पेंटर वहां ‘यहां मना’ ही लिख सका। आप जैसे समझदारों  के लिए ‘यहां मना है’ और ‘यहां मना’ एक ही हो सकता है लेकिन इस देश को आम आदमी अच्छी तरह से समझता है कि किस अवसर को कहां और कैसे मना लेने में उसका हित है। अगर ‘यहां मना’ लिखा देख कोई अगर वहीं ‘मनाने’ लगे तो आप उसके मनाने में खलल डालने वाले आप कौन हो।  दबाव झेल रहे एक बच्चे या एक बूढ़े को उसके अधिकार दिये बिना आप उसे उसके कर्तव्य सिखाने निकले हो तो यह आपकी ज्यादती है।’
घसीटाराम जी उस पक्ष की सुने बिना नामी वकील की तरह ही तो धुआंधार तर्क पर तर्क प्रस्तुत कर रहे थे लेकिन वे लोग भी लोकतंत्र के सच्चे सिपाही थे। उन्हें भी कहां मालूम था कि कब मान जाओ और कब मना ओं। जिस तरह घसीटाराम के लिए ‘मना’ दबाव घटाने का अवसर था वहीं उनके लिए दबाव बढ़ाने का सुअवसर था। दोनो ने अपनी अपनी परिभाषाएं अपनी सीमा से बाहर जाकर तय की थी इसलिए बात तनिक बढ़ गई और. सीखते सीखते बात सिकाई तक जा पहुंची।  
केवल घसीटाराम जी का नहीं, किसी का भी उनका रंगा माथा  और पिचके गाल देखकर हमारा मन मौन रहने से ‘मना’ करता है। इसलिए मना के बदले सिकाइ्र के बाद मरहम पट्टी की व्यवस्था की।’ कुछ राहत पाते ही घसीटाराम जी दहाड़े, ‘अरे बहुत हुआ मिजाज पुरसी। तुम फौरन चाय पकौड़ा का इंतजाम करो। वैसे भी  ई मामला जीएसटी का है।’ 
‘जीएसटी???’
‘गर्मागर्म चाय संग मिर्ची के गर्मागर्म भजुए का एक डोज लेने के बाद ही बात आगे बढ़ेगी। अगर तुम्हारा मन नहीं है तो मना क्यों नहीं करते?’
‘मेरा मन अनमना होकर भी आपको ‘मना’ नहीं कर सकता। ‘तबले की बला बंदर के सिर’ यानी गलती न मालूम किसकी पर बीती हमारी जेब पर। 
चाय की चुस्कियां लेते हुए घसीटाराम जी ने फरमाया, ‘बच्चा, जीएसटी को एक ही मतलब है  गलती सब तुम्हारी। काहे नहीं तय किये कि मना को कब ‘मनका’ तो कब ‘मन का’ माना जायेगा। गर आपातकाले मर्यादा न होने का नियम है तो दबाव में मना को आप केवल एक ही अर्थ की मर्यादा में कैसे बांध सकते हो? अपने लिए नियमों में ‘मना’ यानी उस ओर देखना मना है परंतु दूसरों के लिए ‘मना’ यानी मना।’
‘अपने घर के कोई साइकिल भी खड़ी कर दे तो तूफान सिर पर उठाओं लेकिन खुद दूसरों के आगे लम्बी कार पार्क करके भी कहो- थोड़ी देर की ही तो बात है। आपकी जगह आपके पास ही रहेगी। हम इसे कार में रखकर साथ तो ले जा नहीं रहें।’
‘सड़क पर सबसे आगे निकलने के लिए अपने वाहन को खूब टेढ़ा सीधा करो। कोई कुछ भी कहता रहे परवाह मत करो। लेकिन कोई दूसरा ऐसा करने का प्रयास करे तो उसे लानत भेजों। ट्रैफिक रूल्स बताओं। जाम का कारण बताओं।’
‘बच्चा, 70 बरस के सफल लोकतंत्र से एक बात सीखी जा सकती है कि मजे में रहना है तो गलत-सही  कुछ भी करो पर कभी मत भूलों कि, ‘आई एम आलवेज राइट’ ज्यादा नहीं तो इतना जरूर याद रखो कि मना के माने आधार कार्ड की तरह मौके की नजाकत को देखकर तय किये जाते हैं। फिलहाल इतना ही। अब जल्दी से  दबाव से मुक्ति का मार्ग बता।’
 विनोद बब्बर संपर्क-   09868211911, 7892170421 (rashtrakinkar@gmail.com)

मना का आधार और आधार की मना (व्यंग्य) Manaa-- Refuse or Celebration? मना का आधार और आधार की मना (व्यंग्य) Manaa-- Refuse or Celebration? Reviewed by rashtra kinkar on 04:53 Rating: 5

No comments