‘मेरे पैरो में घूंघरू बंधा दे तो..........! Golden Jublee of Art Relation

जीवन रेल के सफर जैसा है जिसमें हर स्टेशन कुछ यात्री उतर जाते हैं तो कुछ नये सवार हो जाते हैं। लेकिन कुछ सहयात्री ऐसे भी होते हैं जो लम्बी दूरी तक साथ चलते है। इसी बीच अभिवादन से शुरु हुआ वार्तालाप का सिलसिला कब आत्मीयता में बदल जाता है कहना मुश्किल है। लगभग हर स्टेशन पर चेतावनी रूपी बोर्ड लगे होते हैं कि ‘किसी अन्जान से कुछ न लें। उसके हाथ की कोई वस्तु न खाये, वह नशीली हो सकती है। आपके साथ धोखा हो सकता हैं।’ हम सावधान रहते हुए भी अनेक बार सहयात्रियों से इतना घुल मिल जाते हें कि चेतावनी याद ही नहीं रहती और हम आपस में चाय, पानी, खाना ही नहीं दुःख दर्द ही नहीं शेयर करते हैं। यात्रा के बाद भी उनसे संवाद रहता है। अनेक बार सफर में मिले कुछ लोग दुनिया के मेले में बिछड़े भाईयों के मिलन की कहानी बन जाती है। अक्सर ऐसे मिलन का स्मरण भी हमारी झोली को खुशियों से भर देता है।
हम सबके जीवन में भी अनेक लोग मिले, बिछड़े,। फिर मिले, तो ऐसे मिले की मन मिल गया। न खून का संबंध, न भाषा का, न जाति का, न प्रांत का, न व्यवसाय का, अनेक बार तो परिस्थिति, परिवेश भी भिन्न। शौक भी भिन्न लेकर जीवन के किसी मोड पर मिले ऐसे लोग इतना अभिन्न हो जाते हैं कि छूटकर भी नहीं छूटते। निश्चित रूप से इसका कोई कारण अवश्य होता होगा। कुछ लोग इसे प्रारब्ध कहते है तो कुछ संयोग। इस बात से असहमति की गुंजाइश कम ही है कि इसके पीछे जरूर किसी न किसी गुण का प्रभाव अथवा आकर्षण होता है जो संबंधों को स्थायित्व प्रदान करता है।
जीवन के इस सफर में पिछले चार दशक से मेरे मित्र, सखा, भाई, साथी गिर्राजप्रसाद का जन्म राजस्थान के अलवर जिले के रामगढ़ गांव में एक साधारण कुम्भकार परिवार में हुआ। मात्र स्कूली पढ़ाई के बाद पिता की मदद करने लगे तो बहुत जल्द मिट्टी को आकार देने में विशेष दक्षता प्राप्त कर ली। जो भी उनके काम को देखता, प्रशंसा किये बिना न रहता। 1966 में शादी हुई तो कुछ समय बाद दिल्ली आ गये। कुछ वर्ष दूसरों के पास काम कर पर्याप्त सम्मान और संतुष्टि प्राप्त की। एक दिन उनकी नवविवाहिता पत्नी अंगूरी देवी ने दूसरों की बजाय अपना स्वतं काम आरम्भ करने का आग्रह किया। तो वे उधेड़ बुन में लग गये- न जगह है, न साधन है। कैसे करेंगे? क्या करेंगे? लेकिन ‘जहां चाह, वहां राह’ की कहावत अकारण नहीं है। किसी का खाली प्लाट किराये पर लेकर पति-पत्नी ने मिट्टी उधार ली और दिन-रात मेहनत कर कुछ ही वर्षों में दिल्ली में अपने लिए ही घर ही नहीं बनाया बल्कि अपनी इ्रमानदारी, मेहनत और कला योग्यता से लोगों के दिलों में भी अपना घर बना लिया। उनकी कला की शोहरत दूर-दूर तक फैली। पहले स्टेट अवार्ड, नेशनल अवार्ड, राष्ट्रपति द्वारा सम्मान, भारत सरकार द्वारा शिल्पगुरु का दर्जा, दुनिया के अनेक देशों में अपनी श्रेष्ठ कला का प्रदर्शन के लिए भेजे के बीच भी बहुत कुछ तक ऐसा है जिस पर गिर्राजप्रसाद के परिजन और मित्र गर्व कर सकते है। आश्चर्य कि इतनी ऊंचाईयों को छूकर भी गिर्राज जी विनम्र बने रहे। इसी बीच दोनो बेटो श्याम प्रसाद ने फोटोग्राफी में तो भुवनेश प्रसाद ने टेराकोटा में विशेष नाम कमाया। किसी भी माँ और बाप के बाद उनके बेटों को भी श्रेष्ठ कला के लिए राष्ट्रपति सम्मान मिलना असाधारण उपलब्धि है।जैसा कि हम सभी जानते हैं कि रेल के सफर अनेक बाद ‘सफरिंग’ भी होती है। हर तरह से संतुष्ट लेकिन सादगी का जीवन जी रहे गिर्राज प्रसाद जी को कर्क रोग ने घेर लिया। उपचार के बीच समस्या बढ़ती चली गई। 7 वर्ष पूर्व एक समय ऐसा आया कि जब उन्होंने समस्त आशांए भी त्याग दी थी। लेकिन इतिहास एक बार फिर से दोहराया गया। सावित्री (अंगूरी देवी) ने अपने तप, सेवा और संकल्प से अपने सत्यवान (गिर्राज प्रसाद) को काल के क्रूर पंजे से वापस खींच लिया। धीरे- धीरे जीवन लगभग सामान्य हो गया।
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अक्षित, मैं, पद्मश्री भारती बंधु, गिर्राज जी, डा पवन अग्रवाल,श्याम |


आनंदोत्सव का साक्षी बनने का सौभाग्य मिला। यह देख बहुत शकून मिलता है कि गिर्राज प्रसाद जैसा कलाकार अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति संबंधों में भी दिखा सकता है। अभिनन्दन! ईश्वर से प्रार्थना- कर्क रोग से उबार कर स्वर्ण जयंती का सौभाग्य प्रदान किया है तो उनके बेटो, पोतों को डायमंड जुबली का आशीर्वाद भी प्रदान करना। सफल आयोजन के लिए श्याम प्रसाद को बधाई देने की औपचारिकता नहीं निभाना चाहता। पर इतना अवश्य कहूंगा- ईश्वर ने ऐसी भावना सबको दें! ॐ शुभम्! 12 दिसम्बर, 2016
‘मेरे पैरो में घूंघरू बंधा दे तो..........! Golden Jublee of Art Relation
Reviewed by rashtra kinkar
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