विश्वास की जीत, विवाद की हार Five States Election showed 2019 scene


विश्वास की जीत, विवाद की हार
चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है। उत्सव सा उत्साह और चहल पहल सर्वत्र दिखाई देता है। अन्य उत्सवों और इस उत्सव में अंतर यह है कि नेता और राजनैतिक दल अति सक्रिय होकर मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। ऐसा करते हुए अक्सर अनाप-शनाप दावे और वादे करते हैं,परंतु बहुसंख्यक मतदाता लगातार मौन रहकर उनपर नजर रखता है और अंत में अपने विवेक से निर्णय लेता है। इसीलिए अनेक बार उसका निर्णय चौंकाता भी है। जैसा भी हो मतदाताओं का निर्णय ही लोकतंत्र का प्राण है। दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतंत्र में हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है। चुनाव तंत्र की परीक्षा है। परीक्षक उसके कार्यों और शैली से संतुष्ट है या नहीं एक निश्चित अवधि के बाद इसकी जांच करना ही लोकतंत्र है। 
केन्द्र सरकार का आधे से अधिक कार्यकाल बीत जाने के बाद आहूत पांच राज्यों के चुनाव विशेष महत्व रखते थे। नोटबंदी को जहां सरकार ने आवश्यक बताया था वहीं विपक्षी दलों ने इसकी जमकर आलोचना की थी। इन दलों ने मोदी सरकार की उपलब्धियों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए इसे जनविरोधी साबित करने का हरसंभव प्रयास किया  तो केन्द्र सरकार ने विपक्ष द्वारा हर अच्छे कार्य में अडंगे लगाने की शिकायत जनता के दरबार में रखी तो राज्य सरकारों के कामकाज को कमतर बताने का प्रयास भी किया। ऐसे में देश के सबसे अधिक लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तरप्रदेश सहित शेष राज्यों की जनता के मिजाज पर सारी दुनिया की निगाहें थी। 
भाजपा को रोकने के हर संभव प्रयासों के बावजूद उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम अप्रत्याशित कहे जा सकते हैं जहां भाजपा ने पिछले  रिकार्ड तोड़ते हुए सभी को चौका दिया। ज्ञातव्य हो 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 15 प्रतिशत वोट संग 47 सीटें मिली थी। जबकि इस बार 2014 के लोकसभा चुनाव के तरह 40 प्रतिशत वोट संग 312 सीटे मिली हैं। कांग्रेस 11.5 प्रतिशत वोट और 28 सीटें से गिरकर 6.2 प्रतिशत वोट और 7 सीटों पा सकी। बहुजन समाजवादी पार्टी 25.9 प्रतिशत वोट और 80 सीटें से 22.2 प्रतिशत वोट और 19 सीटों पर तथा  समाजवादी पार्टी ने 29.1 प्रतिशत वोट और 224 सीटें से 21.8 प्रतिशत वोट और 47 सीटों पर रह गईं। 
भाजपा ने बिना मुख्यमंत्री की घोषणा किये चुनाव लड़ा जो पूरी तरह मोदी बनाम अन्य सभी हो गया। चुनाव परिणाम इस बात की पुष्टि करते हैं कि मोदी जी लोगों के मन में यह बात सहज स्थापित करने में सफल रहे कि वे ही नहीं उनके निकटस्थ भी भ्रष्टाचार से दूर हैं। उनके मुकाबले कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल कम से कम भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कहीं नहीं टिकते। उनका  इस चुनाव में भी लगातार 18 घंटे युवाओं की तरह कार्य करना जनता का दिल जीतने में सफल रहा है। इसी कारण उत्तरप्रदेश की जनता ने  जाति, सम्प्रदाय आदि के समीकरणों को अस्वीकार किया। हालांकि यह भी कहा जा सकता है कि ‘मोदी बनाम सब’ का धु्रवीकरण भी अपने आप में एक अलग तरह का समीकरण बनकर उभरा जिसने  विरोधियों के मनोबल को बुरी तरह हिला दिया है इसीलिए तो कुछ प्रमुख विपक्षी नेता ‘2024 के चुनाव की तैयारी’ की बात कहकर 2019 में भी मोदी के लिए मैदान खुला होने का संकेत दे रहे हैं। 
उत्तराखंड में मुकाबला हमेशा की तरह कांग्रेस बनाम भाजपा रहा। इस राज्य में ये दोनो दल ही बारी- बारी से शासन करते हैं। इस क्रम में इस बार भाजपा की ही बारी थी लेकिन भाजपा की 33 प्रतिशत से  46.5 प्रतिशत की छलांग और कांग्रेसी मुख्यमंत्री का दोनो सीटों से पराजित होना जरूर असामान्य है। लेकिन चुनाव पूर्व ही जिस तरह से कांग्रेस में भगदड़ और भाजपा में प्रवेश की होड़ थी उससे इन्हीं परिणामों की आशा थी। लेकिन अब सत्ता में आने के बाद भाजपा को राज्य को पटरी पर लाने के लिए दागदार पूर्व कांग्रेसी चरित्रों से दूरी बनाकर रखनी पड़ेगी वरना उसका भी कांग्रेस जैसा हश्र होते देर नहीं लगेगी।
केवल पंजाब ही ऐसा राज्य है जहां लगातार गोते खाती कांग्रेस के लिए सुखद समाचार है। उसने दस वर्षों से सत्ता पर काबिज अकाली दल के नेतृत्व वाली सरकार को ही बेदखल नहीं किया बल्कि सत्ता पर दस्तक दे रही आम आदमी पार्टी को भी किनारे लगाते हुए 77 सीट प्राप्त की। कांग्रेस की इस जीत का श्रेय कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के नेतृत्व और चुनाव से पूर्व सिद्धु के कांग्रेस में शामिल होने को दिया जा सकता है। जहां तक ‘आप’ के इस हश्र का प्रश्न है वह 23.7 प्रतिशत वोट प्राप्त करने को अपनी उपलब्धि जरूर बता सकती है लेकिन एक समय सबसे आगे माने जा रहे इस दल का मात्र 20 सीटें पाना  केजरीवाल के लिए अपनी शैली में बदलाव के लिए दवाब है। वे यह समझने में असफल रहे कि एक ओर नशे से जंग तो दूसरी ओर एक नशेड़ी सांसद को आगे रखने तथा बाहरी लोगों के हाथों में कमान देने की सोच पंजाबियों के गले नहीं उतरेगी। सुच्चासिंह छोटेपुरा बेशक चुनाव नहीं जीत सके पर वे आप की प्रतिष्ठा को प्रभावित करने में सफल जरूर रहे हैं। केजरीवाल के नेतृत्व पर सबसे बड़ा प्रश्न चिन्ह कुल 117 सीटों में से 27 पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त होना है। इस चुनाव की एक विशेषता 2012 के मुकाबले कम वोट पाकर भी कांग्रेस की जीत हुई है। 2012 में कांग्रेस को 40 प्रतिशत वोट और 46 सीटें मिली थीं जबकि इस बार  38.5 प्रतिशत वोट और 77 सीटें मिली हैं। ऐसा त्रिकोणीय चुनाव समीकरणों के कारण हुआ। इस जीत में राहुल गांधी की वह भूमिका नहीं है क्योंकि जितनी मेहनत उन्होंने उत्तरप्रदेश में की उसके मुकाबले पंजाब में उनका योगदान नगण्य है। अकाली दल पिछली बार के 35 प्रतिशत वोट और 56 सीटें के मुकाबले इस बार 25.2 प्रतिशत और मात्र 15 सीटें पा सका जबकि उसका सहयोगी दल बीजेपी को 2012 में 7 प्रतिशत वोट और 12 सीटें के मुकाबले 5.4 प्रतिशत वोट और 3 सीटें ही प्राप्त कर सका।
गोवा के चुनाव परिणाम भी वोट प्रतिशत और सीटों के मामले में गणितीय समीकरणों से अलग है। यहां भाजपा का वोट शेयर  कांग्रेस से ज्यादा हैं लेकिन सीटे कम है। 2012 में बीजेपी को 34.7 प्रतिशत वोट और 21 सीटें मिली लेकिन इस बार 32.5 प्रतिशत वोट और 13 मिली। कांग्रेस को 2012 में  30.8 प्रतिशत वोट और 9 सीटें तो इस बार 28.4 प्रतिशत वोट और 17 सीटें मिली हैं। बीजेपी की सहयोगी रह चुकी महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी ने संघ बागी सुभाष वेलिंगकर (जो अब लौट चुके हैं) के साथ मिलकर 12.5 प्रतिशत वोट और 5 सीटे प्राप्त की। गोवा को ‘केक वॉक’ समझने वाली आम आदमी पार्टी ने यहां सभी 40 सीटों पर अपने उम्मीदवार खडे किये लेकिन 39  की जमानत जब्त होना एक रिकार्ड है। वैसे कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर भी सत्ता से दूर ही रह गई क्योंकि महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी सहित अन्य दलों ने रक्षामंत्री मनोहर पारिर्कर के मुख्यमंत्री बनने की शर्त पर अपना समर्थन देने की बात कही जिसे भाजपा ने स्वीकार कर लिया है। 
मणिपुर में में अब तक भाजपा हाशिये पर रही है। पिछली बार मात्र 2 प्रतिशत वोट प्राप्त करने वाली भाजपा ने इस बार 36.3 प्रतिशत वोट और 21 सीटे प्राप्त की जबकि कांग्रेस ने पिछली बार 42.4 प्रतिशत वोट और 42 सीटों के मुकाबले इस बार 35.1 प्रतिशत वोट और 28 सीटें प्राप्त की। इस राज्य में कांग्रेस के एक विधायक सहित तथा कुछ अन्य छोटे दलों का समर्थन भाजपा के साथ है अतः यह राज्य भी कांग्रेस की पकड़ से दूर हो रहा है।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का सबसे दुःखद पहलु मणिपुर में वर्षों से आंदोलन करने वाली इरोम शर्मिला की हार नहीं, बल्कि मात्र 90 वोट प्राप्त करने माना जा रहा है। इस स्थिति के लिए वहां के मतदाताओं को संवेदनहीन और नासमझ तक बताया जा रहा है। लेकिन हमें यह विचार करना चाहिए आखिर सामाजिक कार्यकर्ता क्यों हारते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं जिन लोगों ने सामाजिक बदलाव और भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन के लहरों पर सवार होकर सत्ता प्राप्त की वे कसौटी पर खरे नहीं उतरे। क्या मतदाता उनके आचरण से संतुष्ट हैं? मतदाताओं ने इन लोगों से जिस आदर्श आचरण की आपेक्षा की थी क्या वे ऐसा कर सके। यदि नहीं तो क्या केजरीवाल जैसे लोगों को नैतिक जिम्मेवारी नहीं लेनी चाहिए? प्रश्न एक व्यक्ति की हार या जीत या इरोम शर्मिला की सेना विरोधी नीति के समर्थन का नहीं है।  उसने लम्बे समय तक संघर्ष जरूर किया है। ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पात’ के बाद उसने राजनीति से तोबा कर ली है। ऐसे में सामाजिक सोच वाले अच्छे और सच्चे लोगों को सभी दलों में कैसे लाया और बढ़ावा दिया जाये इस विचार को जबरदस्त झटका जरूर लगेगा।
बुरी तरह पराजित मायावती द्वारा मशीनों में छेड़छाड़ का आरोप नया नहीं है। यह हर बार होता है बस पात्र बदल जाते हैं। ऐसे लोगों के लिए ही किसी ने कहा है-
सबब तलाश करो अपने हार जाने का,
किसी की जीत पे रोने से कुछ नहीं होगा !
- विनोद बब्बर संपर्क-   09868211911, 7892170421 rashtrakinkar@gmail.com


विश्वास की जीत, विवाद की हार Five States Election showed 2019 scene विश्वास की जीत, विवाद की हार  Five States Election showed 2019 scene Reviewed by rashtra kinkar on 01:10 Rating: 5

No comments