केरल कांडः हिन्दू आस्था से खिलवाड़


केरल में युवक कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं द्वारा केन्द्र सरकार का विरोध सड़क पर गाय को काटने, वहीं पकाने और खाने के समाचार के बाद एक सहज प्रश्न मन में उत्पन्न हुआ कि जिस केरल को भारत का प्रथम शत- प्रतिशत साक्षर राज्य कहा जाता है, उसी राज्य के कांग्रेसी आखिर किस साक्षरता का परिचय दे रहे हैं? बेशक यह भी कहा जा सकता है कि सबको अपने ढ़ंग से खानपान की स्वतंत्रता है। सबको अपने विवेकानुसार अपनी आस्था तय करने का अधिकार है लेकिन क्या किसी को दूसरों की भावनाओं को आहत करने का अधिकार है? क्या खानपान की स्वतंत्रता अनियंत्रित है या इसका विस्तार ‘कुछ’ भी खाने के नाम तक है? यदि ऐसा है तो कल कुछ सिरफिरे लोग मानवमांस को भी इसी तर्क के साथ काटें, पकाये और खाये तो क्या ‘स्वतंत्रता’ के समर्थक उस समय भी ऐसा ही दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्हें अपना समर्थन देंगे? आखिर क्यों तमिलनाडू में जलीकुट्टूू  की उस प्राचीन परम्परा जिसमें पशुओं को लड़ाया जाता है को ‘हिंसक’  बताते हुए प्रतिबंधित करने वाला हमारा न्यायालय वध के लिए दुधारू पशुओं की बिक्री पर तत्काल प्रतिबंध लगाता है? जन्माष्टमी पर दही-हाँड़ी की ऊँचाई बीस फ़ीट से ज्यादा न होने की शर्त लागू करने वाले इस बात पर खामोश रहते हैं कि केवल भारतीय कानून के अनुसार ही नहीं दुनिया भर  में पशुवध का एक लाईसेंस होता है। निर्धारित स्थान होता है। उसके बिना ऐसा करना गैरकानूनी है लेकिन जब इरादा देश के बहुसंख्यक लोगों की भावनाओं को आहत करने का हो तो वह केवल एक साधारण नियम भंग नहीं हो सकता बल्कि देश की शांति और सदभावना को भंग करने का षड़यंत्र भी हो सकता है। आखिर यह सर्वज्ञात है कि इस गोपालक देश में गौवंश के पूजन को आदर्श बनाकर भगवान श्रीकृष्ण ने राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने के लिए गौवंश की महत्ता का प्रतिपादन किया। 
गाय के प्रति इस देश की बहुसंख्यक जनता की भावनाओं को आपकी विपक्षी न जानते हो ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि अंग्रेजों ने भी इस आस्था से छल के परिणाम को महसूस किया है जब 1857 में अंग्रेजी सेना में शामिल मंगल पाण्डेय और उनके साथियों ने गाय की चर्बी वाले कारतूस ’को दांतों से काटने से इंकार कर दिया था और अंग्रेजों को देशभर में सैनिक तथा सामान्यजन के विद्रोह का सामना करना पड़ा था। स्वतंत्रता के पश्चात भी गोहत्या पर प्रतिबंध की मांग की मांग जारी रही। इस मांग को लेकर संसद के निकट हुए साधु संतों के प्रदर्शन पर गोली चलाने के कारण पूरी दिल्ली में पहली बार कर्फ्यु लगाया गया था।
आश्चर्य कि स्वयं को महात्मा गांधी की पार्टी कहने वाली कांग्रेस का यह भी याद नहीं कि गांधीजी भी गोहत्या के विरोधी थे। उन्होंने 1921 में यंग इंडिया में लिखा ‘गाय करुणा का काव्य है। यह सौम्य पशु मूर्तिवान करुणा है। यह करोड़ों भारतीयों की मां है। गाय के माध्यम से मनुष्य समस्त जीवजगत से अपना तारतम्य स्थापित करता है। गाय को हमने पूजनीय क्यों माना इसका कारण स्पष्ट है। भारत में गाय मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र है। उसे कामधेनु कहा गया है। वह केवल दूध ही नहीं देती बल्कि उसकी वजह से ही कृषि संभव हो सकी है।’ एक अन्य स्थान पर उनका मत था, ‘गाय बचेगी तो मनुष्य बचेगा। गाय नष्ट होगी तो उसके साथ, हमारी सभ्यता और अहिंसा प्रधान संस्कृति भी नष्ट हो जाएगी और पीछे रह जाएँगे भूखे-नंगे हड्डी के ढाँचे वाले।’
 कांग्रेस की समस्या यह है कि वह आरम्भ से ही दोहरे आचरण और तुष्टीकरण की बंदी रही है।  सांसद सेठ गोविन्ददास ने 1954 में संसद में प्रस्ताव रख गोहत्या पर प्रतिबंध की मांग की तो उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जवाब था कि मैं इस्तीफ़ा दे दूंगा, पर ऐसा कानून नही बनने दूंगा,। 1966 में लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को पत्र लिखकर गोहत्या पर प्रतिबंध की मांग की तो इन्दिरा जी ने उसे अस्वीकार कर दिया। जुलाई 1995 में भी कांग्रेस सरकार ने उच्चतम न्यायालय में शपथपत्र दिया कि   मांस निर्यात से विदेशी मुद्रा प्राप्ति के कारण इसपर प्रतिबंध नही लगाया जा सकता। 
गांधी जी स्वयं स्वीकार करते थे कि उनके विचार समय के अनुसार बदलते रहे हैं। 1921 में गौमाता को जन्म देने वाली माता से श्रेष्ठ बताने वाले महात्मा ने यंग इंडिया (7जुलाई.1927) मंे लिखा, ‘गौरक्षा हिन्दुओं का धर्म है, लेकिन अहिंदू के विरुद्ध बल प्रयोग करके गाय की रक्षा करना उसका धर्म कदापि नहीं हो सकता। मैं इस बात पर जोर देता हूं कि कानून बनाकर गोवध बंद करने से गोरक्षा नहीं हो जाती। किसी दुष्ट बुद्धि वाले अज्ञानी या छोटे से समाज के खिलाफ कानून बनाया जाता है और उसका असर भी होता है। लेकिन जिस कानून के विरुद्ध समझदार और संगठित लोकमत हो, या धर्म के बहाने छोटे से छोटे मंडल का भी विरोध हो, वह कानून सफल नहीं हो सकता। (मेरे सपनों का भारत, पेज नंबर 137, प्रकाशक- नवजीवन ट्रस्ट) इससे पूर्व 1925 में गांधी जी कहते है कि ‘मेरा धर्म मुझे सिखाता है कि मुझे अपने आचरण से उन लोगों के मन में, जिनका मत मुझसे भिन्न है, यह विश्वास पैदा करना चाहिए कि गौवध पाप है और इसे बंद करना चाहिए। केवल गाय की रक्षा ही नहीं बल्कि उन सभी जीवों की रक्षा है जो असहाय और दुर्बल हैं।’
केरल सहित देश भर में कोटिशः हिंदू जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाले और उनके बुद्धिजीवी कामरेड़ साथी लगातार यह मिथ्या प्रचार भी करते है कि वेदों में गोमांस भक्षण का उल्लेख है। अपने राजनैतिक अपराधों को ढकने और लाभ के लिए वेद व गोमाता का नाम अपवित्र करने की कोशिश करने वालों और उनके समर्थकों को अथर्ववेद के इन मन्त्रों को समझना चाहिए, ‘प्रजावतीः सुयवसे रुशन्तीः शुध्द अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः। मा वस्तेन ईशत माघशंसः परि वो रुद्रस्य हेतिर्वृणक्तु।। अर्थात् हे मनुष्यो! तुम्हारे घरों में प्रजावतीः उत्तम सन्तान वाली, सुयवसे (जौ) के क्षेत्रों मे चरने वाली और शुद्ध जलों को पीने वाली गौ हो और इसकी सुरक्षा ऐसी हो कि कोई चोर उन्हें चुरा न सके और पापी डाकू आदि गाय को अपने वश में न कर सके । रुद्र परमात्मा की हेति (वज्रशक्ति) तुम्हारे चारों तरफ सदा विद्यमान रहे। 
यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्। तं त्वा सीसेन विध्यामः।। (अथर्व.-1.16.4) अर्थात् राजन यदि कोई मनुष्य हमारी गाय, अश्व आदि पशुओं को मारता है, उसे हत्यारे को (सीसेन) कारागार या कठोर दण्ड देकर हमारी रक्षा करो। 
सिक्खों गुरुओं ने गऊ की महता की चर्चा करते हुए इसके संरक्षण पर बल दिया है तो आय्रसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने गोवध पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए दो करोड़ भारतवासियों के हस्ताक्षर कराकर महारानी विक्टोरिया को प्रतिवेदन करते हुए कहा था- बड़े उपकारक गाय आदि पशुओं की हत्या करना महापाप है, इसको बन्द करने से भारत देश फिर समृद्धशाली हो सकता है। गाय हमारे सुखों का स्रोत है, निर्धन का जीवन और धनवान् का सौभाग्य है। भारत देश की खुशहाली के लिए यह रीढ़ की हड्डी है।’ उनका मत था कि एक गाय के मारने और मरवाने से चार लाख बीस हजार मनुष्यों के सुख की हानि होती है।’ 
यह दुखद है कि वर्तमान सरकार के सत्ता में आना कुछ लोगों को अप्रिय लग रहा है। उन्हें इस बात का अहसास है कि इस देश का बहुसंख्यक समाज इस सरकार के पक्ष में है इसीलिए वे एक ओर बहुसंख्यक समाज की एकता को खंडित करने में लगे हैं तो दूसरी ओर केरल जैसी करतूतें करके देश के वातावरण को बिगाड़ने के प्रयास हो रहे हैं। यह उनका दुस्साहस ही है कि वे अपने कुकृत्य को सही साबित करने के लिए तरह तरह के कुतर्क भी प्रस्तुत कर रहे हैं। हिन्दूआस्थाओं को अवैज्ञानिक बताने वाले ईसा के पुनर्जीवित होने अथवा हज के दौरान शैतान पर पत्थर फेंकने पर मौन रह जाते हैं। डेनमार्क में एक कार्टून छपने से उनकी आस्था का ज्वार पूरे विश्व को चपेट में ले सकता है तो हिन्दूओं की आस्था से खिलवाड़ क्यों?  क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि आस्था कानून से कमतर नहीं होती। अतः यह समझना होगा कि किसी देश के बहुसंख्यक लोगों की आस्था को कानूनी दांव पेचों और सौहार्द्ध के प्रति उनकी एकतरफा जिम्मेवारी के नाम पर बंधक नहीं बनाया जा सकता।
डा. विनोद बब्बर (9868211911, 7892170421) rashtrakinkar@gmail.com


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