क्या बदला मौत के बाद भी संभव है? True Story- Can Someone Take revenge after his death


क्या बदला मौत के बाद भी संभव है?
बदला लेना मानवीय स्वभाव का एक महत्वपूर्ण अंग है। इतिहास के सैंकड़ों- हजारों स्याह पन्ने उन युद्ध में बहाये गये खून से रंगे हैं जो केवल अपमान का बदला लेने के इरादे से लड़े गये। सताये जाने पर पशु-पक्षी भी प्रतिकार करते हैं। अनेक बार हम जीवन भर बदले की भावना से मुक्त नहीं पाते लेकिन प्रश्न यह कि ‘क्या बदला इस जीवन के बाद भी लिया जा सकता है?’ सुनने में प्रथम दृष्टया यह प्रश्न अटपटा लग सकता है। लेकिन  प्रश्न उठता है कि क्या बदला लेने के लिए पुनर्जन्म लेना पड़ेगा? या क्या किसी ने अगले जन्म में ऐसा किया? बहुत संभव है कुछ लोगों के पास ऐसे उदाहरण भी हों लेकिन यहां एक और प्रश्न यह कि क्या इस जीवन का बदला इस जीवन के बाद लेकिन अगला जन्म लिए बिना भी लिया जा सकता है? यदि आप भूत, प्रेत, जिन्न की कल्पना कर रहे हैं तो आपको निराशा ही होगी क्योंकि यह कहानी इन सबसेे अलग है।
घटना 1983 की है। मेरे पड़ोस में एक आश्रम है। महात्मा जी सर्दियों में दोपहर की धूप में तो गर्मियों में हर शाम ऊपर छत पर बैठ अध्ययन अथवा वार्तालाप किया करते थे। संयोग से मेरा नाम भी उन लोगों में शामिल था जिनसे महात्मा जी गंभीर चिंतन किया करते थे। अनेक बार मुझसे फोन (तग मोबाइल नहीं, लैंड लाइन ही होते थे) पर चर्चा भी होती तो यदा कदा उनके विशेष आग्रह पर मैं उनके आश्रम भी पहुंच जाता।
उस परिसर में बने बहुमंजिला भवन के बिल्कुल साथ बहुत ऊँचे सफेदे (यूकलिप्टस) के कुछ पेड़ थे। उन पेड़ों की सबसे ऊँची डाली पर कुछ कौओं ने घोसले बनाकर नवसृष्टि की तैयारी की। 
कौआ बहुत संवेदनशील प्राणी होता है, यह सुना पढ़ा तो था लेकिन पहली बार तब अनुभव किया जब एक दिन हम दोनो छत पर बैठे किसी विषय पर गंभीर चर्चा कर रहे थे कि पास के किसी घर से एक बच्चे ने पटाखा चलाया। पटाखे की तेज आवाज से हमारा ध्यान तो भंग हुआ ही, कौए भी  अशांत होकर तेज स्वर में ‘कॉव, कॉव’ करने लगे। कुछ ही क्षणों में सैंकड़ों की तादाद में कौए हमारे आसपास मंडराने लगें। मेरे लिए यह विचित्र अनुभव था। छठी इन्द्री ने किसी अनहोनी के संकेत दिये। तो मैंने महात्मा जी से तत्काल नीचे चलने का आग्रह किया। ज्यों ही हम नीचे जाने के लिए खड़े हुए कौओं ने हम पर आक्रमण कर दिया। अपनी पैनी चोंच और पंजों से कोई सिर पर तो पीठ पर तो कंधे पर मारकर तेजी से उड़ जाता। ऐसे में एक के बदले दो-दो सीढ़ियां लांघ कूद कर हम जैसे-तैसे नीचे पहुंचे। हम दोनो के सिर पर हल्का खून था। कौओं का कोहराम सुन आश्रम में उपस्थित जो भक्तगण बाहर निकले उनपर भी कागसेना ने हमला किया तो सब अंदर दुबक गये। 
अंधेरा होने पर जब मैं बाहर निकला तो किसी एक कौए की नजर मुझ पर पड़ी। उसके तेज आवाज में ‘कॉव, कॉव’ करते ही एक बार फिर कागसेना हमले के लिए तैयार थी। अंधेरा होने के कारण वे विशेष सफल नहीं हो सके। परंतु मन में भय उत्पन्न करने में सफल जरूर रहे। हाँ, वे मुझे मेरे द्वार तक छोड़ने जरूर आये। 
उस दिन के बाद मैं जब भी बाहर निकलता हर बार ‘कॉव, कॉव’ की आवाजें और कागसेना का आक्रमण। लगा जैसे कुछ कौए  गुप्तचर की तरह लगातार मुझ पर नजर रखते हैं और मेरे बाहर निकलते ही वे अपनी विशेष आवाज में अपने समस्त दल को किसी खतरे की सूचना देकर सजग कर देते। सेना भी जैसे उनके संकेत की प्रतीक्षा ही कर रही हो, तत्काल हाजिर। उनके आक्रमण ने दो कदम चलना भी लगभग असंभव बना दिया। कुछ ही कदम दूरी पर माँ से मिलने जाता तो एक हाथ में कपड़ा लिए सिर पर घुमाते हुए जाता। इस बीच भी मौका पाकर वे चोंच मार ही देते।
 यह क्रम एक दो दिन नहीं, महीनों चला तो अनेक सुधीजनों की राय ली गई। एक पक्षी विशेषज्ञ बुजुर्ग का मत था, ‘आप विश्वास करें या न करें परंतु पटाखे की आवाज सुन कौओं ने माना कि आप उनके बच्चों का अहित करना चाहते हैं। संसार के संचालन में सबसे बड़ी शक्ति मोह ममता है। पक्षियों का अपने बच्चे से प्रेम किसी मनुष्य से कमतर नहीं होता। एक मुर्गी अपने चूजों की रक्षा के लिए बिल्ली अथवा कुत्ते तक से भिड़ जाती है। चूंकि कौआ सबसे अधिक संवेदनशील प्राणी है इसलिए उनकी नजर में अब आप ‘मोस्ट वान्टेड’ की श्रेणी में आ चुके हैं।’ उन दिनों आतंकवाद की बहुत चर्चा नहीं थी वरना वे ‘मोस्ट वान्टेड’ के बदले हमें सीधे-सीधे लादेन, अजहर मसूद या अफजल जैसा आतंकवादी ही घोषित करते।
हे राम!’ ये क्या मुसीबत? उस दिन क्या अपुन ने तो कभी भी पटाखा नहीं चलाया।  क्या इसे ही प्रारब्ध कहते हैं? बचपन से आज तक पटाखो की तेज आवाज न जाने क्यों अप्रिय लगती है। लेकिन यहां तो करे कोई और भरे कोई। छत पर जाना तो दूर वे महात्माजी तो कमरे से भी बाहर नहीं निकलते। हाँ, यह जरूर कि कागसेना ने वहां आने वाले श्रद्धालु भक्तों को कभी निशाना नहीं बनाया। लेकिन हमें बिन अपराध के सजा क्यों? 
अब करें तो करें आखिर क्या?   पुलिस में शिकायत दर्ज करा नहीं सकते। सौ पचास प्रबुद्धजनों को बुलाकर पंचायत भी नहीं की जा सकती। मामला यूएनओं या अन्तर्राष्ट्रीय अदालत में उठाने की हमारी हैसियत नहीं। कौओं के मुखिया से हमारा कोई दूर दूर का भी नाता नहीं कि उससे माफी मांग मामले को रफा-दफा करा लें। यह भी नहीं जानते कि किस देवता की पूजा से कौए प्रसन्न होते हैं? हाँ, जो भी कोई अनुभवी, गुणी, ज्ञानी मिलता तो उसके आगे अपनी व्यथा कथा जरूर रखते।
एक दिन एक सज्जन ने कहा कि ‘अगर एक जिंदा कौए को पकड लो तो तुम्हारी समस्या हल हो सकती है।’
ओह! रात को सपनों में जिन कौओं के नाम से पसीना छुटता है, उन्हें जिंदा पकड़ लूं? यह तो शेर के मुंह में हाथ देने से भी ज्यादा कठिन लगा। इसी बीच ध्यान आया कि तोता, मैना, कबूतर, चिड़िया,  आदि पक्षी तो पिंजरे में देखे हैं पर आज तक कभी किसी कौए को पिंजरे में नहीं देखा। क्या इसका कारण यही नहीं कि लोग कौए से दुश्मनी नहीं लेना चाहते या फिर चतुर, सुजान, सजग, फुर्तीले कौए को पकड़ना असंभव है।
अनेक लोगों से मुंह मंागा इनाम देने की कीमत पर जिंदा कौआ पकड़ कर लाने का अनुरोध किया लेकिन, लेकिन, लेकिन ही रहा। हम डरते रहे और कौए डराते रहंें। 
एक अलसुबह हिम्मत करके छत पर गमलों को पानी देने चला ही गया। पानी की मोटर चल रही थी। मेरे हाथ में तेज गति से पानी बहाता प्लास्टिक का पाइप था। अचानक नजर पड़ोस की छत पर गई। देखा, एक कौए का बच्चा सिमटा बैठा था। मैंने पानी की धार तेज कर उसपर पानी मारा। वह और सिमट गया। इसी बीच मैं उस छत पर जा पहुंचा और उस कौए को पकड़ कर चीते की फुर्ती से नीचे आ गया। नीचे आकर बताये उपाय के अनुसार मैंने कौए के दोनो पैर प्लास्टिक की रस्सी से बांधे। रस्सी के दूसरे सिर पर एक पत्थर बांध कर उसे पिछली छोटी गली की तारों पर लटका दिया और छिप कर नजारा देखने लगा।
बच्चे की आवाज सुन एक कौए ने फिर उसी विशिष्ट आवाज में ‘कॉव, कॉव’ किया तो कुछ ही क्षणों में फिर वहीं काग सेना पहुंच गई। वे बच्चे के आसपास खूब मंडराये लेकिन उसे आजाद न करा सके और बिजली की उसी तार पर बैठ घंटों ‘कॉव, कॉव’ करते रहे। कुछ घंटों बाद जब कागपुत्र हमेशा के लिए शांत हो गया तो कागसेना भी वहां से कूच कर गई और उस दिन के बाद न केवल मेरा बल्कि महात्माजी का जीवन सामान्य हो गया। अपनी स्वतंत्रता को सिद्ध करने के लिए एक दोपहर महात्माजी स्वयं चलकर आये और घंटों हमारी छत पर काग पुराण चला। अंत में वहां उपस्थित मित्र मंडली के आग्रह पर प्रसाद वितरण भी हुआ।
आप शायद सोच रहे हैं कि यह कहानी यही समाप्त हो गई। नहीं कहानी खत्म नहीं हुई बल्कि कहानी का महत्वपूर्ण एपिसोड  तो यहीं से शुरु होता है। आप जानते ही हैं कौए का बच्चा हमारे घर के पिछवाड़े के सामने बिजली की तार पर लटके लटके मर गया था। कुछ दिन उसका शरीर गलता सड़ता रहा। इस तरह कौए का निर्जीव शरीर पत्थर से बंधा तार पर महीनों हवा, आंधी, बरसात के बावजूद टंगा रहा। नीचे सैंकड़ो हजारों लोग उसके नीचे से गुजरते। कुछ दिनों बाद सब उस कहानी को भूल ही गये। पाप- पुण्य की सैंकड़ों हजारों कहानी सुनने- सुनाने के बाद मुझे भी कहां याद रहा कि कभी मैंने एक जीव की हत्या की।
मुझे अपना पाप याद नहीं तो ‘क्या इसका मतलब यह कि मैं पाप से मुक्त हो गया?’ यह सोचने की जरूरत ही कौन महसूस करता है। आखिर क्यों इतना सब याद रखा जाये? संसार में प्रचलन भी दूसरों के पाप याद रखने और याद कराने का है। भगवान ने मानव जन्म दिया है। थोड़ा विवेक और बोलने की कला दी है तो अपने गुण (यदि कोई हैै। और नहीं है तो भी) बढ़ा चढ़ाकर गाने और बताने चाहिए। मैं भूलकर भी पिछली गली की तरफ से नहीं निकलता था। कई महीने बीत चुके थे। एक दिन पिछला दरवाजा खटका। मैं अकेला ही था इसलिए मुझे ही दरवाजा खोलना पड़ा। देखा कि चार-पांच अपरिचित लोग किसी पड़ेासी के बारे में कुछ जानना चाहते थे। मैं थोड़ा आगे बढ़ा और बीच गली में आकर हाथ के इशारे से उस घर की ओर संकेत करने लगा कि वहा रहता है। लगभग हम बिल्कुल सटकर ही खड़े थे कि ऊपर लटका कौआ पत्थर सहित तार से छूटकर धड़ाम से मेरे सिर पर आन लगा। सिर पर गहरी चोट आई। वे अपरिचित लोग मुझेे तत्काल पास के डाक्टर के पास ले गये जहां मेरे सिर पर टांके लगे। जख्म ठीक होने में महीनों लगे। जख्म का निशान आज भी सिर के बाहरी हिस्से पर है लेकिन ‘क्या बदला मौत के बाद भी लिया जा सकता है?’ सिर के भीतरी हिस्से में उथल पुथल मचाता है। अगर इसका उत्तर हाँ हैं तो मुझे अपने पाप की सजा मिल चुकी हैं। और अगर नहीं तो क्या डरता हूं कि आखिर और क्या होना शेष है?
- विनोद बब्बर 9868211911 rashtrakinkar@gmail.com

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