संत और राष्ट्र-चेतना Sant & rashtra Chetna


संत और राष्ट्र-चेतना--डा. विनोद बब्बर आजकल साधु, संन्यासी, संत और कुछ तथाकथित असंत चर्चा में है। आगे बढ़ाने से पहले देखे महाभारत में कहा गया हैः- सर्वणा यः सहृन्नित्सं सर्वेषां च हिते रतः कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद जाजले। अर्थात् जो नित्य सबका मित्र है, सभी के कल्याण में मन, वचन और कर्म से मित्र है, वही धार्मिक है। संत है। सदियों से संतों की परिभाषा रही हैः- संतन के मन रहत है, सबके हित की बात। घट-घट ढूँंढ़ें अलख को, पूछे जात न पात।। दूसरी ओर आम जनता को ठगने की भावना से सक्रिय पॉल बाबा हो या निर्मल बाबा। कुछ लोग ईश्वरीय कृपा को व्यवसाय बनाने पर तुले है। यह उचित ही है कि ऐसे तत्वों के विरूद्ध जनता में जबरदस्त रोष है। दूसरी ओर इसी सप्ताह गंगा में प्रदूषण के खिलाफ देश के साधु संतों का सम्मेलन हुआ। संतों की मांग थी कि फौरन करोड़ों लोगों की श्रद्धा का केन्द्र पतिपावनी गंगा की ओर ध्यान दिया जाए। उनके अनुसार गंगा की रक्षा केवल आस्था प्रतीक नहीं है बल्कि इस धरा की जीवन दायिनी भी है गंगा। संतों ने चेतावनी दी कि अब भी सरकार नहीं चेती तो देशभर में विशाल आंदोलन आंरभ किया जाएगा क्योंकि बार-बार आवाज उठाने और प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा अनशनकारी संतों तक पहुंचने के बावजूद अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। तथाकथित बाबाओं से सर्वथा विपरीत पूज्य संतों के गंगा रक्षा अभियान पर राजनीति से जुड़े लोगों के अतिरिक्त शायद ही किसी को कोई संदेह हो क्योंकि आज के सन्दर्भ में यह जरुरी है कि हर बुराई और भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ आम जनता के साथ संत समाज भी खुल कर सामने आये। हो सकता है कि कुछ लोग कहे कि संतों को राजनीति में हस्तक्षेप करने की क्या जरुरत है। साधु-संतों को ऐसे मामलों में अपना समय बर्बाद करने की बजाय ध्यान, साधना में लगाना चाहिए। पर ऐसा कहने वाले भी इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि आज की राजनीति जनता से विमुख हो कर सिर्फ अपने लिए सोचती हैं। राजनैतिज्ञ जनता के प्रति अपने दायित्वों को भूल रहे हैं। तो क्या ऐसे में यह आवश्यक नहीं हो जाता है समाज धर्म के मूल में छुपे समाज कल्याण, जन-कल्याण के लिए संत प्रवृति के लोग आगे आए? क्या संत भ्रष्टाचारियों की आपेक्षा अछूत है? क्या समाज में व्याप्त अपसंस्कृति को देखते हुए भी संत आंखें मूंदे रहे?नहीं, हर्गिज नहीं, उन्हें आगे बढ़कर अनैतिक लोगों को उखाड़ फेंकने के लिए शंखनाद करना ही चाहिए। समाज से विमुख होना अथवा अपने समाज के हित से स्वयं को असबंद्ध करना संतई नहीं हो सकती। भारत भूमि का इतिहास रहा है कि यहाँ जो काम बड़े-से-बड़े चक्रवर्ती सम्राट और शक्तिशाली बादशाह नहीं कर सके, हमारे संतों ने जनता को एकत्र कर कर दिखाया है। आज जब कालेधन का प्रभाव बढ़ रहा है, भ्रष्टाचार चरम है, अपसंस्कृति अपना प्रभाव दिखा रही है, राजनीति निरंकुश हो चुकी है। ऐसे में जब दागी छवि वाले भ्रष्टाचारी और बाहुबली भी राजनीति में स्थान बना रहे है तो साधु प्रवृति के लोगों को रोकना राष्ट्रीय अपराध है। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचारी स्थिति को इतना विकृत कर रहे है कि लोग भूख से मर रहे हो तो क्या संतों को केवल यह कहना चाहिए कि जनता पूर्व जन्म में किये गए किसी पाप के कारण इस जन्म में कष्ट भोग रही है। गरीब लोग चुपचाप समाज विरोधियों के गलत नीतियों के शिकार होते रहे, बिना उफ किये अपनी गाढ़ी कमाई से वंचित होते रहें?ं. बेशक धर्म ने हमें घुटी पिलाई है कि मेहनत और सुकर्म इस या अगले जन्म में मिलता है लेकिन ‘तुम मेहनत करते हुए मरो,तुम्हारे बच्चे कष्ट झेलेंते रहे, शिक्षा से बंचित रहें, दूध के लिए तरसें, लेकिन तुम भगवान पर भरोसा करते हुए खामोश रहो’ जैसे प्रवचनों करने वाला संत नहीं हो सकता। संत वह भी है जो अपने भक्तों में कर्म और कर्मफल के प्रति जिम्मेवारी और जिज्ञासा का भाव उत्पन्न करें। आम धारणा यह है कि अध्यात्म और देशभक्ति नदी के दो अलग-अलग किनारों की तरह हैं, परन्तु यह धारणा सही नहीं है। वस्तुतः अध्यात्म और संतों का दर्शन पराभव, विपत्ति या उद्विग्नता की स्थिति में पूरे समाज को सहारा देता है- बशर्ते वे संत सच्चे हों और उनका दर्शन सार्थक हो। लेकिन इतिहास साक्षी है, भारतीय जन-जीवन में संतों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। संत अपने आप को केवल धार्मिक प्रवचनों तक ही सीमित नहीं रख सकते बल्कि राष्ट्र-चेतना में भी उनकी भूमिका रही है। आजादी की लड़ाई हो या सामाजिक जन-जागरण, हमारे महापुरूष सदा अग्रणीय रहे हैं। गुरू गोविंद सिंह जी को संत-सिपाही के रूप में जाना जाता है क्योंकि वे अध्यात्म ही नहीं, राष्ट्रीय चेतना के भी प्रतीक थे। वे सदा दो तलवार धारण करते थे। एक मीरी और दूसरी पीरी। कूका आंदोलन और सद्गुरू रामसिंह जी को कौन नहीं जानता? देश की आन, बान और शान के लिए दुश्मनों की तोपों से बंधने को तैयार कूका फौज ने राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक परिवर्तनों के लिए इतिहास में ही नहीं, देशवासियों के दिलों में भी अपना विशेष स्थान बनाया है। महर्षि अरविंद अंग्रेेजी शासन के प्रबल विरोधी थे। अलीपुर जेल से रिहा होने के बाद जब वे बाहर आए, उनका बाहरी वेश तो पहले की ही तरह था परंतु, आंतरिक रूप पूरी तरह से बदल चुका था। उन्हें इस प्रकार परिवर्तित देखकर कई लोगों ने बहुत आश्चर्य किया। कई लोगों ने आक्षेप भी लगाए कि अध्यात्म ने किस तरह एक योद्धा को योगी बना दिया है। स्वतंत्रता-संग्राम के अंगारों-भरे पथ से संन्यास की शांत डगर पर मोड़ दिया है। तब प्रत्युत्तर में अरविंद ने कहा-हाँ, मैं योद्धा से योगी बन गया हूॅ। पर मैने अपने अस्त्र-शस्त्र नहीं फेंके। बल्कि साधना के तेज से उन्हें और अधिक धारदार बना लिया है। ऐसे दिव्यास्त्र जो अब सीधा मर्म स्थान को बेधेंगे। उन्होंने सचमुच वही किया। उनके दर्शन और विचारों ने न सिर्फ गुलाम भारतीयों को संघर्ष का नैतिक साहस दिया, बल्कि अंग्रेजों के सोचने के ढंग में भी बदलाव किया। श्री अरविंद की प्रार्थना के शब्द थे, ’तू मेरे हृदय की बात जानता है। तू यह जानता है कि मैं मुक्ति नहीं माँगता, और न ही मैं ऐसी कोई वस्तु माँगता हूँ, जो अन्य माँगते हैं। मैं तो केवल ऐसी शक्ति माँगता हूँ जिससे इस राष्ट्र का उत्थान कर सकूँ।’ स्वामी विवेकानंद भी आध्यात्मिक जागृति के नायक थे। उनका पूरा मिशन, उनकी शिक्षा, उनकी गतिविधियाँ, सब कुछ देश की उन्नति को समर्पित थी। उनकी पहली अमेरिका-यात्रा के दौरान एक विदेशी महिला उनके विचारों से बहुत प्रभावित हो गई। अपनी भावना प्रकट करते हुए बोली, ’स्वामी जी! मैं किस प्रकार आपके कार्य में सहयोग दे सकती हूँ?’ यह सुनते ही स्वामी विवेकानंद ने मात्र एक पंक्ति में उत्तर दिया, ’भारत से प्रेम करो!’ जब स्वामीजी इंग्लैंड से वापस भारत लौटने लगे, तो एक अंग्रेज ने उनसे पूछा, ’चार वर्षों तक पाश्चात्य देशों के वैभव तथा समृद्धि का अनुभव करने के बाद अब भारत लौटने पर आपको अपना देश कैसा लगेगा?’ के उत्तर में स्वामी विवेकानंद ने कहा, ’यात्रा से पहले मैं भारत से मात्र प्रेम करता था। परन्तु, अब उसकी पूजा करूंगा।’ इसी प्रकार, स्वामी रामतीर्थ भी जापान, अमेरिका आदि कई देशों में गए थे। जब वहाँ से लौटे तो प्रायः अपने शिष्यों को जापान के किसी स्कूल में देखी एक घटना सुनाया करते थे, जिसने उन्हे बहुत प्रभावित किया था। वे सुनाते थे कि किस तरह एक स्कूल-अध्यापक बच्चों को समझा रहा था कि जब तुम्हारा शरीर जापान के अन्न, हवा-पानी और मिट्टी से विकसित हुआ है, तो फिर जापान को यह अधिकार है कि आवश्यकता पड़ने पर वह तुमसे तुम्हारी देह माँग ले। एक बार कलकत्ता में वायसराय लॉर्ड नॉर्थ ब्रुक ने स्वामी दयानंद से कहा, ’हम आपके अध्यात्मिक भाषणों से प्रसन्न हैं। बस एक गुजारिश है। आप अपने व्याख्यानों का अंत इस प्रार्थना से किया करें-अंग्रेज़ी शासन भारत में सुदृढ़ व अखण्ड हो। इससे आपका काम भी चलता रहेगा और हमारा भी। स्वामी दयानन्द ने निर्भिकता-पूर्वक दो टूक उत्तर दिया, ’लेकिन, वायसराय जी, मैं तो प्रतिदिन हर साँस में यही प्रार्थना करता हूँ कि कब अंग्रेज़ी शासन समाप्त हो और हम भारतीय अपने ढंग से जी सकें।’ स्वामी श्रद्धानंद अंग्रेजों की पुलिस के सामने सीना खोल कर खड़े हो गये थें। आजादी की लड़ाई में वंदेमातरम् और आनंदमठ का बहुत अधिक योगदान है। आनंदमठ नामक उपन्यास में संन्यासियों के विद्रोह का चित्रण है। स्वामी दयानंद की चर्चा के बिना भारत की आजादी का इतिहास हो या सामाजिक परिवर्तन का, अधूरा है। गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा ने विचार क्रांति अभियान के माध्यम से जनजागरण किया। गुरुपूर्णिमा चिंतन का अवसर भी है। संत वे नहीं हैं, जो केवल मठों में बैठे हैं, या जिनके हजारों-लाखों चेेले उनका प्रचार कर रहे हैं या जो अपने नाम के आगे कई पदवियाँ लगाए रहते हैं। असली संत वे हैं जो समाज को उस समय राह दिखाते हैं, जब उसे खुद कोई राह नहीं सूझती। मध्यकाल में जब समाज जाति -प्रथा का शिकार था, उन्होंने भक्ति का रास्ता दिखाया और गुलामी के समय राष्ट्रभक्ति की चेतना जगाई। आज का संत वह है जो कुरीतियों से लड़ने में अग्रणी भूमिका निभाए, सामाजिक चेतना का ध्वज -वाहक बनेगा, राष्ट्र के स्वाभिमान के लिए देशवासियों में विशेष ज़ज़्बा पैदा करने के लिए अपने आपको आदर्श के रूप में प्रस्तुत करेगा। उसे लाभ-हानि, यश- अपयश की परवाह नहीं होगी क्योंकि खुद को खाक में मिलाकर भी अपने वतन की खुशहाली चाहने वाला ही सच्चा संत होता है।
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