भाषायी संवेदनहीनता का गूंगे-बहरापन
डा. विनोद बब्बर
आजाद भारत की समस्त उन्नति, विकास और बड़े-बड़े दावे उस समय बोनेे प्रतीत हुए जब ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने कहा है कि भारत जाने वाले उसके राजनयिकों को हिंदी सीखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वहां सारा कामकाज अंग्रेजी में होता है। वहाँ की प्रधानमंत्री ने तो यहां तक कहा कि ‘भारत एक अंग्रेजी भाषी लोकतंत्र है। वास्तव में कुछ दिनों पूर्व ही ऑस्ट्रेलिया के विदेशी मामलों के विशेषज्ञ इयान हाल ने अपनी रिपोर्ट में सरकार को भारत में नियुक्त किए जाने वाले राजनयिकों को हिंदी इसलिए भी सिखाई जाने की सलाह देते हुए कहा था कि ऐसा करने से भारत का सम्मान होगा।
आश्चर्य है कि एक विदेशी सरकार द्वारा हमारे मुंह पर तमाचा मारे जाने के बाद भी हम नहीं चेते। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम गूँगे ही नहीं, बहरे भी हो गए हैं। नहीं होते तो सुन रहे होते और इस सुने हुए को गुन रहे होते - ‘‘निज भाषा निज संस्कृति, अहै उन्नति मूल।’
हमारे विचारको, शासको को यह भी स्मरण नहीं रहा कि भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने कहा है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।
यह बात सर्वाधिक शर्मसार करने वाली है कि अपनी भाषा को लेकर जो गर्व, जो उत्साह होना चाहिए उसका हम भारतीयों में अभाव स्पष्ट झलकता है। हम हिंदी के ऩाम पर बड़ी-बड़ी तो खूब करते हैं पर उतना उसका प्रयोग अपने व्यवहार में करते हुए न जाने क्यों हमारे हाथ-पांव फूल जाते है। हिंदी के नाम पर लाखों-करोड़ों के अनुदानों की सरकारी दावतें तो खूब उड़ाई जाती है पर सर्वत्र राज अँग्रेजी का ही है। यह हमारी संवेदनहीनता का प्रमाण नहीं तो और क्या है कि हम हिंदी की दुहाई तो बहुत देते है परन्तु अपने कुल-दीपकों को अँग्रेजी स्कूलों में ही दाखिला करवाने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगा देते है। अँग्रेजी बोलने, पढ़ने-लिखने और अँग्रेजियत दिखाने में अपना बड़प्पन दिखाई देता है। क्या हमारे जैसे दोगले समाज के लिए ही यह मुहावरा घड़ा गया था-‘हाथी के दांत, खाने के और दिखाने के और।’
किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी सभ्यता, संस्कृति, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और निज भाषा होती है। गांधीजी कहा करते थे, ‘राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है’ लेकिन अब तो यह सभी मानने लगे हैं कि गांधी केवल नोट और वोट तक ही सिमट कर रह गए हैं। उनके विचारों को उन्हीं के मानसपुत्रों ने पूरी तरह ठुकरा दिया है। यहाँ गांधीजी के जीवन की यह घटना स्मरण करना समचीन होगा जब 1905 में वे अपनी पत्नी और बच्चों संग दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में एक अंग्रेज हेनरी पोलक के साथ रहते थे। उन दिनों को याद करते हुए गांधीजी ने लिखा है, ‘पोलक और मेरे बीच अक्सर बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा देने या न देने को लेकर तीखा विवाद हो जाता था। यह मेरा यकीन था कि जो भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी में सोचना और बोलना सिखाते हैं, वे अपने बच्चों और अपने देश के साथ विश्वासघात करते हैं। वे उन्हें अपने देश की आध्यात्मिक और सामाजिक धरोहर से वंचित करते हैं और उन्हें देश सेवा के लिए अयोग्य बनाते हैं। इस यकीन के चलते मैं हमेशा अपने बच्चों से गुजराती में बातें करता था। पोलक को यह पसंद नहीं था। वह सोचते थे कि मैं बच्चों का भविष्य बरबाद कर रहा हूं। वह पूरी आत्मीयता और जोश के साथ यह कहते थे कि अगर बच्चों अंग्रेजी जैसी वैश्विक भाषा बचपन से ही सीख लें, तो वे जिंदगी की दौड़ में दूसरे बच्चों से आसानी से आगे निकल जाएंगे। लेकिन वह मुझे आश्वस्त नहीं कर सके।’
आज हमारे देश में सरकारी की गलत नीतियों का प्रभाव यह हुआ कि गरीब से गरीब आदमी में भी अंग्रेजी का आकर्षण बढ़ा है। रिक्शावाला भी मानने लगा है कि उनके बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए अंग्रेजी सीखना जरूरी है। जबकि किसी भी राष्ट्र की उन्नति तभी हो सकती है, जब उसकी अपनी भाषा को एक गौरवपूर्ण और सम्मानजनक स्थान प्राप्त हो। दुर्भाग्य से आज हमारे देश में ज्ञान-विज्ञान और वैश्वीकरण के उत्प्रेरक के रूप में अंग्रेजी को अनिवार्य मान लिया गया है। जबकि दुनिया के अधिकांश देश अंग्रेजी नहीं बल्कि अपनी भाषा के बल पर ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकासकर सके हैं। यदि हम भी अपने वैज्ञानिको द्वारा अपनी योग्यता से तैयार अतिआधुनिक मिसाइल को ‘प्रक्षेपास्त्र’ कहेगे तो क्या इसकी मारक क्षमता घट जाएगी? सत्य तो यह है अपनी भाषा में ही ज्ञान-विज्ञान के प्रचार- प्रसार में जो सहजता- सरलता रहती है वह विदेशी भाषा में हर्गिज संभव नहीं है। विषय को समझने से अधिक ऊर्जा तो विदेशी भाषा को समझने के लिए चाहिए। ऐसे में हमारे बच्चें क्या खाक प्रतिभा प्रदर्शित कर सकेगे?सच तो यह है कि दुनिया के गुलाम देशों को छोड़कर अंग्रेजी कही नहीं है। यहाँ हमारा यह अभिप्राय नहीं कि अंग्रेजी या अन्य भाषाएं कहई न सीखी जाए। अवश्य सीखेले किन अपनी भाषा की कीमत पर हर्गिज नहीं। अपनी माँ को अपमानित कर पड़ोसन को मुकुट पहनाना किसी विवेकशील व्यक्ति का कार्य नहीं हो सकता। परायी भाषा का भले ही महत्व हो, परन्तु वह इस प्रबुद्ध देश के जन-जन की भाषा नहीं बन सकती. वस्तुतः हिंदी भाषा, जो भारत की एक विशाल जनसंख्या द्वारा बोली और समझी जाती है; ही जन-जन की भाषा का स्थान ले सकती है।
स्वामी विवेकानंद का कथन है कि ‘जहां कहीं हिन्दी बोली जाती है वहां साधारण, निपट निरक्षर लोग बहुत से उच्च वर्गों की अपेक्षा वेदान्त धर्म की अधिक जानकारी रखते हैं।’ ये हिन्दी के अपने धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्कार हैं। एक नहीं, अनेक वैज्ञानिक परिक्षणों का मत है कि अंग्रेजी नहीं हिन्दी दिमाग को चुस्त करती है। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। आज संवैधानिक रूप से हिंदी भारत की प्रथम राजभाषा है और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हिन्दीतर भाषी प्रान्तों में भी अधिकतम लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है। इस तरह से आज हिंदी राष्ट्रभाषा से भी बढ़कर संपर्क भाषा का स्वरूप ग्रहण कर चुकी है। लेकिन सरकारी स्तर पर इसका लगातार अपमान दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का अपमान है क्योंकि वह लोकतंत्र ही क्या, जो लोकभाषा की उपेक्षा करें।
हिन्दी अपने में सीमित कोई संकीर्ण भाषा नहीं है। इसका आंचल अत्यंत विस्तृत है जिसकी स्नेह छाया में अनेक क्षेत्रीय भाषाएं, उपभाषाएं, बोलियां पनपी और विकसित हुई हैं। इसका किसी के साथ कोई विरोध नहीं। कुछ संकीर्ण-चेता लोग अपने क्षुद्र और सामयिक हितों की पूर्ति के लिए इसका विरोध करते हैं। शीघ्र ही दक्षिणी अफ्रीका में विश्व हिन्दी सम्मेलन होने जा रहा है। दुनिया भर के हिन्दी प्रेमियों के इस महाकुम्भ में हमारे सरकारी दस्ते भी बढ़-चढ़ कर भाग लेंगे। वहाँ वे भी बड़ी-बड़ी बातें करेंगे, दावों के रिकार्ड बनाएगे लेकिन बहुत संभव है कि वहाँ से लौटते हुए उन्हें स्वयं भी याद न रहे कि उन्होंने क्या-क्या गीत गाए। यह याद रखना जरूरी है कि हिन्दी रहेगी तो अन्य भाषाएं बचेंगी वरना अंग्रेजी का अजगर सबको लील जायेगा।
क्या आस्ट्रेलिया की प्रधानमंत्री द्वारा हमारी दुखती नस को दबाने से हम जागेगे या अब भी सोये ही रहेगे? हमारे कुछ मित्र आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री के वक्तव्य की आलोचना कर संतुष्ट हो सकते हैं लेकिन अपनी माँ का अपमान करने वाले दूसरों से यह क्यों करते हैं कि वे उनकी माँ की चरणवंदना करें? आखिर हम कब तक मैकाले को कोसते रहेगे? माना कि मैकाले ने हमारी भाषा और संस्कृति पर अपनी भाषा- संस्कृति लादने का कार्य किया। सच्चाई तो यह है कि वह हमारे लिए कितना भी बुरा हो लेकिन अपने देश के हितों के प्रति ईमानदार था इसलिए उसने यहाँ गुलाम मानसिकता तैयार करने का कार्य किया। मगर हमारे शासकों ने क्या किया? उन्होंने उस कलंक को मिटाने के लिए क्या किया? मैकाले तो पराया था। लेकिन अपने क्या कर रहे है?
इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय नया सत्र आरंभ हो रहे हैं। भारत सरकार के राजभाषा नियमों के अनुसार दिल्ली क वर्ग के राज्य में आती है, जहां की राजभाषा हिंदी है और जहां शत-प्रतिशत कार्य हिंदी में होना चाहिए परंतु हो उलटा रहा है। हिंदी की उपेक्षा से आहत दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष ने कुलपति प्रो. दिनेश सिंह के नाम विरोध पत्र भेजा। उन्होंने कुछ दिन पूर्व भी विश्वविद्यालय प्रशासन को राजभाषा हिन्दी की स्थिति पर पत्र लिखा था। अपने जवाब में विश्वविद्यालय के उपकुलसचिव ने लिखित रूप से आश्वासन दिया था कि भविष्य में विश्वविद्यालय के कार्याे में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए निरंतर कार्य होंगे। यह जानकारी भी दी गई थी कि सभी होर्डिग्स/बोर्ड /नेम-प्लेट/ रबड़ की मोहरों को द्विभाषी करवा दिया गया है। इसके अलावा राजभाषा नीति का अनुपालन करवाने के लिए सभी कॉलेजों से अनुरोध किया गया है। परंतु नया सत्र आरंभ होते ही वायदा खिलाफी तथा राष्ट्रभाषा की उपेक्षा सामने आई। दिल्ली विश्वविद्यालय ने दाखिला विवरणिका (प्रॉस्पेक्ट्स) और प्रवेश पत्र पूर्णतया अंग्रेजी में छापे हैं। जब यह स्थिति देश की राजधानी की है तो अन्य क्षेत्रो की कल्पना की जा सकती है।
आज हम अपनी भाषाओं के प्रति इतने संवेदनहीन हो रहे हैं कि एसएमएस और ईमेल तक रोमन लिपि में भेजने लगे हैं जबकि नागरी लिपि का सॉफ्टवेयर लगभग हर मोबाइल में उपलब्ध है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि हम अपनी भाषा, उसकी लिपि के प्रति हीनभावना से ग्रस्त है लेकिन हिन्दी प्रेम के कारण बेल्जियम की नागरिकता त्याग कर भारतीय बने फादर कामिल बुल्के कहा करते थे-‘संस्कृत माँ, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है।’ क्या बहरे सुन रहे हैं अपनी भाषा की पीड़ा? आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री द्वारा लगाये गए करारे तमाचे से भी उनके उनके कान नहीं खुले तो उनके लिए चुल्लु भर पानी नहीं, हिन्द महासागर का जल भी कम है। ऐसे में भगवान भी इस देश की संस्कृति की रक्षा नहीं कर सकता!
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