घटिया मानसिकता? मगर किसकी?


डा. विनोद बब्बर भारत आश्चर्यो का देश है तभी तो यहाँ दोषी अपने अपराधबोध से ग्रस्त होने की बजाय दूसरो पर दहाड़ता है। अपनी गलतियों के लिए मेमने को दोषी ठहराकर उसे चट कर जाने की कथा यहाँ आज भी प्रचलन में हैं वरना महंगाई से त्रस्त जनता के घावों पर मरहम लगाने की बजाय उल्टा उन्हें ही कसूरबार ठहराने वाले माननीय मंत्री जी अब तक पद पर कैसे रहते। जी हाँ हम बात कर रहे हैं देश के गृहमंत्री पी. चिदंबरम की। उन्हें शायद मालूम नहीं कि पड़ोसी देश चीन में खाद्य वस्तुओं की कीमत घटने का इस गिरावट आ रही है। महंगाई बताने वाला उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पिछले 29 महीने के निचले स्तर पर है। वित्तमंत्री रह चुके चिदंबरम साहब फरमाते हैं कि कुछ मुश्किलें सरकार की वजह से हो सकती हैं, आर्थिक मोर्चे पर ज्यादातर मुश्किलें अंतरराष्ट्रीय वजहों से हैं। सरकार हर चीज को मिडिल क्लास के नजरिए से नहीं देख सकती। लोग आइसक्रीम और पानी पर तो 15 रुपए खर्च कर देते हैं, लेकिन चावल-गेहूं की कीमत में एक रुपए की बढ़त बर्दाश्त नहीं कर पाते। सरकार के पिछले संकट मोचक और नम्बर दो प्रणव मुकर्जी द्वारा े रिक्त पद के दावेदार पी. चिदंबरम ने जनता की सस्ती मानसिकता पर निशाना साधा है लेकिन वे खुद ही निशाने पर आ गए है। कहा जा रहा है कि जो व्यक्ति देश की वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ होने के साथ-साथ आम आदमी का दर्द ही न समझता हो उसे मंत्रीमंडल में रखना जाना भी चाहिए अथवा नहीं। आश्चर्य है कि जो सरकार दावा करती है कि 26 रुपसे कमाने वाला गरीबी रेखा से ऊपर होता है उसी का एक मंत्री आइसक्रीम पर 15 रुपये व्यय करने की बात करता है क्या 26 रुपये कमाने वाले मात्र आइसक्रीम अथवा पानी की एक बोतल पर इतना व्यय कर सकता है? जो लोग मजबूरी में खरीदकर पानी पीते भी है तो क्या वे महंगाई का विरोध करने के अधिकार से वंचित हो जाते हैं? यदि हाँ तो अपने चुनाव में करोड़ों रुपये खर्च करने वाले लोग किसी मुंह से जनता पर कर लगाते हैं? डीजल, पैट्रोल, सी.एन.जी. महंगी क्रते हुए वे स्वयं को अपनी ही इस कसौटी पर क्यों नहीं कसते? अपने बयान पर विवाद होने के बाद मंत्रीजी ने सफाई देते हुए कहा कि उन्होंने मीडिल क्लास का मजाक नहीं उड़ाया है, उनके बयान का गलत अर्थ निकाला गया। उन्होंने मीडिल क्लास नहीं बल्कि ‘हम’ शब्द का प्रयोग किया था। उनसे पूछा जा सकता है कि ‘हम’ से उनका अभिप्राय क्या था? यदि स्वयं के लिए उन्होंने यह शब्द इस्तेमाल किया था तो वे बताये कि क्या वे भी महंगाई से परेशान हैं जो एक रुपये की मूल्य वृद्धि सहन नहीं सकते? यह देश का दुर्भाग्य है कि आम आदमी की परेशानियां लगातार बढ़ती जा रही हैं। दूध, सब्जियां, दालें, पैट्रोल, डीजल, बिजली सहित घर जरूरत की हर आवश्यक वस्तु के दाम बेकाबू हैं। जनता आसमान छूती महंगाई के बोझ तले दब रही हैं। रोज़मर्रा के इस्तेमाल में आने वाले सामानों की बढ़ती क़ीमत ने उनका बजट बिगाड़ दिया है। जो लोग महंगाई को मांग और पूर्ति के नियम से जोड़ते हैं क्या वे बता सकेगे कि इस साल प्याज की बम्पर फसल के बाद भी दाम ज्यादा क्यों हैं? अनाज खुले में सड़ रहा है, गोदाम में जगह नहीं है तो क्या इसे भी पूर्ति में कमी कहा जा सकता है? यदि नहीं तो अनाज के दाम क्यों नहीं घट रहे? देश का अन्नदाता किसान ग़रीब ही गया जबकि सारा मुना़फा बिचौलियें खा जाते हैं। किसान अपना मूल ख़र्च अर्थात् बीज, सिंचाई और रसायनों की क़ीमत तक नहीं निकाल पाते हैं। कर्ज से दबा किसान आत्महत्या कर रहा है। उसकी जेब खाली है लेकिन उसके कठिन परिश्रम से प्राप्त भिंडी, करेला भी 40 से 50 रुपये प्रति किलोग्राम मिल रहे हैं। दाल को ग़रीबों का प्रोटीन कहा जाता है लेकिन क्या दाम है उनके? क्या 26 रुपये रोज कमाने वाला जोकि आपकी दृष्टि में गरीबी रेखा से ऊपर है कैसे इन्हें खा सकता है। सरकारी कर्मचारियों को तोे महंगाई भत्ता प्राप्त हो सकता है लेकिन देश के अधिसंख्यक लोग तो असंगठित क्षेत्र में कार्य करते हैं। उनकी खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित नहीं है। गरीब परिवारों में बच्चे भी कुछ करने को बाध्य हैं। आम परिवारों में उनकी हालत तो और भी खराब हो रही है, जहां केवल एक सदस्य कमाने वाला है। मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा परेशान है क्योंकि बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, मकान का किराया ही दम निकाल देते हैं। लगता है सरकार के पास उसकी समस्याओं के लिए फुर्सत ही नहीं है। मंत्री, सांसद, विधायक और अफसर मज़े कर रहे हैं। उनके लिए सरकारी खर्च से महंगी कार खरीदने के प्रावधान भी किये जाते हैं तो दूसरी ओर ग़रीब जनता को रोटी के लाले है। क्या यही है प्रजातंत्र है? कहने को सरकारी दुकानों, मदर डेयरी आदि पर सब्ज़ियां मिलती हैं लेकिन इनकी गुणवत्ता ं अच्छी नहीं होेेेती। सरकार बढ़ती क़ीमतों को रोकने के लिए कड़े क़दम उठाने के बजाय न केवल चुपचाप बैठी है, बल्कि उसने दूध, पानी, बिजली, तेलो आदि की क़ीमत भी बढ़ा दी है। क्या कारण है कि हमारी मुद्रा का लगातार अवमूल्यन हो रहा है? क्या इसी तरह से महंगाई काबू में करने की कल्पना की जा रही है? वास्तव में यह सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के आरंभ से ही लगातार आश्वासन दे रही है- ‘महंगाई की दर अगले 2 महीने में कम हो जायेगी।’ आज तक किसी ने भी यह नहीं कहा कि ‘अगले 2 महीने में महंगाई कम हो जायेगी।’ कहीं उनका अभिप्राय यह तो नहीं कि जिस गति से भाव बढ़ रहे हैं वह गति कम होगी। भाव जो हैं वही रहेंगे अथवा बढ़ेगे लेकिन वृद्धि की दर पहले के मुकाबले कम होगी। महंगाई की दर घटने से नहीं उसके नकारात्मक होने से महंगाई घटेगी लेकिन आज तक इस प्रकार का ब्यान भी किसी ने नहीं दिया। ऐसे में महंगाई के काबू में आने का सवाल ही कहाँ से उत्पन्न होता है? जब चीन में महंगाई घट रही है तो क्या उनके लिए अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां भिन्न हैं? क्या कानून मंत्री खुर्शीद अहमद सही नहीं कह रहे है कि उनकी पार्टी दिशाहीन हो गई है? टाईम्स पत्रिका ही नहीं, सारा देश कह रहा है- अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह अपने दूसरे कार्यकाल में असफल रहे हैं। महंगाई और घोटाले रोके नहीं रूक रहे। कॉमनवैल्थ खेलों में क्या हुआ? कलमाड़ी एण्ड पार्टी देश की जनता द्वारा कड़ी मेहनत से कमाये गये खजाने (वैल्थ) को कॉमन समझ कर बटोरते रहे। 3-जी मामले में सरकार की नाक के नीचे जमकर अनियमितताएं हुई। बाद में उसके मंत्री तक जेल गए। यदि अब भी पी. चिदंबरम जनता को दोषी ठहराने का दुस्साहस करते हैं तो इस देश का भगवान ही मालिक है। चलते-चलते केंद्रीय श्रम व रोजगार मंत्रालय के तहत आने वाले श्रम ब्यूरो की 2011-12 की रपट भी देख लें। ब्यूरो के महानिदेशक के अनुसार भारत की बेरोजगारी दर अमेरिका, स्पेन और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों के मुकाबले काफी बेहतर स्थिति में है। हरियाणा में बेरोजगारी दर 3.2 तो चंडीगढ़ में 2.8 प्रतिशत रही। राजधानी दिल्ली में यह दर 4.8 फीसदी रही। दमन दीव और गुजरात में बेरोजगारी दर क्रमश 0.6 फीसदी और एक फीसदी तो पंजाब में बेरोजगारी दर 1.8 प्रतिशत रही। रपट के अनुसार अखिल भारतीय स्तर पर बेरोजगारी दर 3.8 फीसदी रही जबकि ग्रामीण और शहरी इलाकों में बेरोजगारी दर क्रमश 3.4 फीसदी और पांच फीसदी रही अर्थात् शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी कम हैं। आज रोजगार के लिए पलायन हो रहा है। न्यूनतम मजदूरी तक नहीं मिलती। स्वयं सरकार की योजनाएं भी वर्ष में केवल सौ दिन रोजगार प्रदान करने का दावा करती हो, यह रपट यथार्थ के कितना करीब है, समझा जा सकता है। जहाँ नागरिकता रजिस्टर तक नहीं, मतदाता सूची में सैंकड़ों छिद्र हो, व्यवसायी ब्यौरा देने से डरते हैं, ये आंकड़े कैसे जुटाये अथवा बनाये गये यह शोध का विषय हो सकता है। इन तमाम अंधेरों, आधियों के बावजूद हमारे नेता निश्चिंत है। शजर साहिब ने कहा भी है- ‘आंधी के इम्कान बहुत हैं, घर में रोशदान बहुत हैं, फिर से उनको चुन लेंगे बस्ती में नादान बहुत हैं!’
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