डा. विनोद बब्बर
जब-जब जून आता है देश का जनमानस इतिहास को स्मरण कर सहम उठता है। उसे भुलाये नहीं भूलता, 23 जून, 1953 का वह दिन जब श्रीनगर जेल में राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए डॉ. मुकर्जी का बलिदान हुआ था। दूसरी घटना है 12 जून 1975 को एक ओर गुजरात विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस को भारी पराजय का मुह देखना पड़ा था तो उसी दिन इलाहबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया था। जनाक्रोश उनके विरूद्ध था इसलिए अपनी गद्दी बचाने के लिए सारे नियमों, मर्यादाओं को ताक पर रखकर देश में 25 जून, 1975 आपातकाल लागू कर दिया था। लाखों लोगों को अकारण जेल मे डाल दिया गया था। प्रेस पर संेसर लागू कर दिया गया यानि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बंधक बना दिया गया था।
सबसे पहले स्मरण करे आजाद भारत के प्रथम शहीद डॉ.श्यामाप्रसाद मुकर्जी को जिन्होंने प.नेहरू की नीतियां से असहमत होकर मंत्री पद त्यागा और कांग्रेस के विकल्प के रूप में अक्टूबर 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी।।
डॉ.श्यामाप्रसाद मुकर्जी ने संसद में कहा था कि राष्ट्रीय एकता की शिला पर ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है। देश के राष्ट्रीय जीवन में इन तत्वों को स्थान देकर ही एकता स्थापित करनी चाहिए। डॉ मुकर्जी ने जोरदार नारा बुलंद किया कि - एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगें। संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ मुकर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की थी। जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उदे्दश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबंद कर लिया गया। 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में शहीद हो गए। उनके समर्थकों ने जम्मू कश्मीर के परमिट को हटाने तक उनका अंतिम संस्कार न करने का निश्चय किया तो केन्द्र सरकार को जबरदस्त जनाक्रोश के सम्मुख झुकना ही पड़ा। आज बिना परमिट के जम्मू कश्मीर, वैष्णोदेवी अथवा अमरनाथ जा सकते हैं तो उसका श्रेय डॉ.मुकर्जी के बलिदान को है।
डॉ.मुकर्जी के बाद जनसंघ को डा. मुखर्जी के बलिदान के पश्चात 1954 में पं.मौलिचन्द्र शर्मा, 1955 से 62 तक प. प्रेमनाथ डोगरा, आचार्य देव प्रसाद घोष, श्री पीताम्बर दास, श्री अ.रामाराव ने अध्यक्ष पद का दायित्व संभाला। 1965 में श्री बच्छराज व्यास तथा 1966 में बलराज मधोक जनसंघ के अध्यक्ष बने। 1967 के कालीकट अधिवेशन में पं. दीनदयाल उपाध्याय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। फरवरी, 1968 में मुगलसराय के पास रेल में हत्या कर दी गयी।
1968 में अटलबिहारी वाजपेयी तो
1973 में लालकृष्ण आडवाणी जनसंघ के अध्यक्ष बने।
आपातकाल के बाद जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया लेकिन यह प्रयोग असफल रहा तो 6 अप्रैल, 1980 को भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई तो अटलबिहारी वाजपेयी इसके संस्थापक अध्यक्ष बने। उसके बाद सर्वश्री लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कुशाभाऊ ठाकरे, वेंकैया नायडू, जन कृष्णमूर्ति, बंगारू लक्ष्मण, वेंकैया नायडू, राजनाथ और वर्तमान में नितिन गड़करी भाजपा के अध्यक्ष बनें।
विश्व के राजनैतिक इतिहास में सर्वाधिक लम्बे समय तक कायम रही अटल-आडवाणी की जोड़ी के बाद आज भाजपा में नेतृत्व के लिए खींचतान चल रही है। भाजपा में अनेक ऐसे नेता-कार्यकर्ता तथा कई राज्यों के मुख्यमंत्री हैं जों प्रधानमंत्री पद की योग्यता व क्षमता मौजूद है। बेशक लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेतली कुशल वक्ता हैं लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को नेतृत्व सौंपने का दबाव है। यह सत्य है कि मोदी गुजरात में लगातार तीन बार चुने जा चुके हैं। नरेन्द्र मोदी की योजना कुशलता, प्रशासकीय क्षमता एवं विकासोन्मुखी राजनीति के के कारण गुजरात विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ा है और विश्व की अनेक संस्थाएं उनमें भारत के भावी नेतृत्व की संभावनाएं तलाशती हैं लेकिन उनका निज स्वभाव उसमें आड़े आ रहा है।
पिछले कुछ दशकों से गठबंधन सरकार देश को चला रही हैं। वर्तमान में भी किसी एक दल के पूर्ण बहुमत पाकर केन्द्र में सत्तारूढ़ होने की संभावना नहीं है। ऐसे में जोड़ तोड़ व मोल तोल की महत्वपूर्ण भूमिका रहे या न रहे लेकिन अत्यन्त धैर्यवान नेतृत्व के बिना काम चलने वाला नहीं है। निसंदेह डॉ.श्यामाप्रसाद मुकर्जी से आरंभ हुई इस दल के नेतृत्व की यात्रा मोदी तक आन पहुंची है लेकिन उनकी कार्यशैली पर अनेक सवाल उठ रहे है। मुम्बई में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक के समय संजय जोशी प्रकरण में नरेन्द्र मोदी की भूमिका पर मीडिया में बहुत चर्चा है। यह भी कहा जा रहा है कि संजय जोशी को पार्टी से बाहर करवाने में मोदी की भूमिका है। यदि यह सत्य है तो यह विचारणीय है कि नरेन्द्र मोदी और संजय जोशी दोनों ही संघ के प्रचारक रहे हैं। लेकिन फिर भी दोनों में टकराव क्सों है। डॉ.मुकर्जी ने आत्म बलिदान देकर जिस दल को मजबूत बनाया था उसी दल के भावी नेता अपने ही साथियों का बलिदान लेने पर क्यों तुले हैं? आखिर कार्यकारिणी में संजय जोशी की उपस्थिति को उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा का विषय क्यों बनाया?
यह निर्विवाद है कि इस समय देश का जनमानस कांग्रेस के नेतृत्व वादी सरकार से बुरी तरह नाराज है लेकिन कोई बड़े से बड़ा आशावादी भी नहीं कह सकता कि भारतीय जनता पार्टी को आगामी चुनाव में अकेले स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो सकता है। यह तय है कि गठबंधन सरकार ही बनेगी। एनडीए गठबंधन के अनेक दल मोदी के नाम से बिदकते हैं क्योंकि उनकी प्राथमिकता अपने राजनैतिक हित को साधने की है। वे मोदी के लिए अपने हितों की बलि देंगे, ऐसा सोचना अति आशावादिता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इसकी एक झलक बिहार विधानसभा चुनावों में देखी जा चुकी है जहाँ नितिश कुमार ने मोदी के साथ अपने चित्र से खिन्न होकर अपने निवास पर दिया गया निमंत्रण तक वापस ले लिया था।
एक और प्रश्न है कि जो व्यक्ति अपने दल, उससे भी बढ़कर अपनी मातृ संस्था से साथी रहे प्रचारक को साथ लेकर नहीं चल सकता वह गठबंधन के छत्तीस दलों को आखिर साथ लेकर कैसे चलेगा? स्वयं गुजरात में संघ और विश्व हिन्दू परिषद ही नहीं भाजपा के अनेक कद्दावर नेता मोदी से रूष्ठ हैं। उनकी अनेक शिकायतें हैं जिन पर ध्यान दिये बिना सारे देश में तो क्या गुजरात चुनावों में भी उतरे तो रथ कीचड़ में फंस सकता है।
भारतीय जनता पार्टी की आज की सबसे बड़ी समस्या है क्षत्रपों का शक्तिशाली हो जाना। कर्नाटक में येदुरप्पा बात-बेबात धमकी देते है। राजस्थान में वसुंधरा हाईकमान को कुछ नहीं समझती। मोदी की कहानी तो सवविदित है ही। हिमाचल में धूमल शांता कुमार का झगड़ा महंगा पड़ सकता है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें अपनो से ही पर्याप्त सम्मान-समर्थन नहीं मिल रहा। उत्तर प्रदेश भाजपा नेताओं की पार्टी है जहाँ न तो जनसमर्थन है और न ही समर्पित कार्यकर्ता क्योंकि संगठन ने अच्छे समय में उनकी संभाल ही नहीं की। भारतीय जनता पार्टी की यह दशा न तो स्वयं उसके हित में है और न ही देश और लोकतंत्र के हित में। मुकर्जी से मोदी तक पहुंची इस यात्रा को गंभीरता से आत्मनिरिक्षण भी करना चाहिए। उसे अटल- अडवाणी जैसी जोड़ी की जरूरत है जो एक-दूसरे का सम्मान करे और अवसर पड़ने पर त्याग भी।
bahoot satik tippani hai bhai sahab !!...
ReplyDeletemodi ko seekh leni hi hogi Gathbandhan rajneeti ke es daur me ....