स्वास्थ्य सुविधाओं का सत्य
डा. विनोद बब्बर
कहा जा रहा है कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार हुआ है। विदेशो से भारत आकर इलाज करवाने की प्रवृति बढ़ी है क्योंकि यहाँ चिकित्सा सुविधाएं आपेक्षाकृत बेहतर और कम खर्चीली हैं। एक अन्य समाचार के अनुसार पिछले महीने कंपनी मामलों के मंत्रालय ने एक रिपोर्ट केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को भेजी थी जिसके अनुसार-दवाओं की महंगाई का कारण उनकी लागत ज्यादा होना नहीं, बल्कि असीमित मुनाफा कमाने का दवा कंपनियों का लालच है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) के विनियमों के अनुसार कोई भी दवा कंपनी अपने उत्पाद की कीमत लागत से 100 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रख सकती। जबकि ये कंपनियां 200 से 500 प्रतिशत तक मुनाफा कमा रही हैं। इनमें कुछ दवाएं ऐसी भी हैं, जिनकी कीमत सरकार से नियंत्रित होती है।
आजकल बाजार में नकली दवाई, इंजेक्शन आदि की भरमार है। स्वास्थ्य की अपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन महंगी हो रही जीवनरक्षक दवाएं भी नकली मिलने लगे तो समझा जा सकता है कि स्थिति क्या है। यहाँ तक कि विदेशों में प्रतिबंधित दवाईयाँ भी हमारे देश भे धड़ल्ले से बेची जा रही हैं। यह है भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं का मात्र एक छोटा सा पक्ष है। अगर हम देखे कि केन्द्रीय बजट का 3 फीसदी भी स्वास्थ्य पर खर्च नहीं होता हैं। आज भी देश के अधिकांश पिछड़े क्षेत्रों में सरकारी अस्पताल न के बराबर हैं। जहाँ अस्पताल है भी तो इलाज करने वाला नहीं। यदि हैं तो दवा या अन्य सुविधाएं नहीं है। ऐसे में झाड़-फूंक अथवा झोला छाप डाक्टरों का सक्रिय होना स्वाभाविक हैं। क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि राजनीति पत्थर की मूर्तियां तो खूब बनवा सकती हैं लेकिन अस्पताल नहीं? एक ही बेड पर गंभीर रूप से बीमार दो से तीन रोगियों को कहीं भी देखा जा सकता है।
गत सप्ताह चंडीगढ़ से सांसद केन्द्रीय मंत्री ने स्वीकार किया कि मरीजों की भीड़ के बीच डाक्टर अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान नहीं दे पा रहे हैं। देश में और अधिक चिकित्सा शिक्षा संस्थान एवं कॉलेज खोलने की जरूरत है, ताकि जरूरत के अनुसार डाक्टर तैयार किए जा सकें। आज देशभर में सिर्फ छह लाख डाक्टर हैं जबकि जरूरत अठारह लाख डाक्टरों की है। उन्होंने कहा कि हर वर्ष देश में 42 हजार एमबीबीएस डाक्टर डिग्री हासिल करते हैं जबकि स्नातकोत्तर कोर्स सिर्फ 21 हजार डाक्टर ही कर पाते हैं, जिसका सबसे बड़ा कारण देश में पीजीआई जैसे संस्थानों की कमी का होना है। इसी समारोह में योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने माना कि देश के बड़े चिकित्सा संस्थानों में मरीजों की तदाद बढ़ जाने के कारण इलाज की बेहतर सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं, जिसमें इलाज के लिए कठिनाइयां भी महसूस की जाने लगी हैं और संस्थान अपने मकसद से भटक गए हैं। उनके अनुसार यदि देश को बेहतर डाक्टर चाहिए तो पीजीआई जैसे संस्थानों में मरीजों का बोझ कम करना होगा। इसके लिए आज जरूरत हैं प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों के विस्तार की और वहां जरूरी उपकरणों एवं डाक्टरों की।
दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद में वार्ड ब्वॉय द्वारा सड़क हादसे में घायल युवक की सर्जरी करने तथा बलिया के फार्मासिस्ट व सफाईकर्मी द्वारा इंजेक्शन लगाने के समाचार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली का आईना ही दिखाया है। तर्क दिया जा रहा है कि वार्ड ब्वॉय व फार्मासिस्ट दशकों से काम करते-करते चिकित्सा कार्य में दक्ष हो गये हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या उनके भरोसे अस्पताल छोड़ दिये जायें? ऐसे में करोड़ों रुपये खर्च करके मेडिकल कॉलेज खोलने की क्या ज़रूरत है? फिर झोलाछाप डाक्टरों के विरूद्ध अभियान क्यों? वास्तव में इसके लिए शासन जिम्मेदार है। तमाम सरकारी अस्पताल डाक्टरों व नर्सों की कमी से जूझ रहे हैं। जो नियुक्त हैं वे ड्यूटी पर होने के बावजूद मरीजों को सहज उपलब्ध नहीं होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो डाक्टर जाना ही नहीं चाहते, नियुक्ति होने पर लगातार ड्यूटी से गायब रहकर निजी प्रैक्टिस में ज्यादा रुचि लेते हैं। चिकित्सा -तंत्र की संवेदनहीनता के चलते हज़ारों ज़िंदगियां असमय मौत के आगोश में समा जाती हैं।
दूर दराज के पिछड़े गांव की छोड़िये, नगरों, महानगरों में भी स्वास्थ्य सुविधाओं की दशा क्या है किसी से छिपा हुआ नहीं है। राजधानी दिल्ली में भी स्वतंत्रता के पश्चात जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ी है उस अनुपात में अस्पताल नहीं बने। हमारे अपने विकासपुरी विधानसभा क्षेत्र में पाँच वर्ष पूर्व एक अस्पताल का शिलान्यास हुआ था जो आज भी वहीं अटका है। ऐसे में सारा दबाव उपलब्ध साधनों पर पड़ना स्वाभाविक है। बड़े अस्पतालों में जांच करना तो दूर पर्ची बनवाना भी बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। प्रतिदिन एक डाक्टर को इतने मरीज देखने पड़ते हैं कि जांच औपचारिकता बन कर रह जाती है। डाक्टर मरीज की तरफ देखे बिना दवाएं लिखने को विवश होते
हैं। ऐसे में तीन-चौथाई आबादी निजी अस्पतालों में इलाज कराने को विवश है। इन विवश लोगों में से अधिकांश की आर्थिक स्थिति इन अस्पतालों के बेतहाशा खर्च को सहन नहीं कर सकती। स्वास्थ्य बीमा लेने की सभी की समर्थ नहीं। अनेक बार तो यह भी देखा गया है कि निजी अस्पताल मेडीक्लेम वाले रोगियों की अज्ञानता का लाभ उठाकर भारी भरकम बिल पास करवा लेते हैं। भुगतभोगी को जब जानकारी मिलती हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वैसे स्वास्थ्य बीमा करने वाली कम्पनियां भी कम नहीं। वे कोई न कोई अड़गा लगाकर आम आदमी के उपचार में बाधा उत्पन्न करती हैं। ऐसे में आम आदमी कहाँ जाए?
निजी अस्पताल सरकार से भूमि तथा अन्य सुविधाएं लेते हुए वचन देते हैं कि वे गरीबों का इलाज निःशुल्क अथवा रियायती करेंगे लेकिन अनुभव बताते हैं कि ऐसे दावे पूर्ण रुप से हवाई साबित हुए हैं। ऐसे में अकसर यह भी कहा जाता है कि गरीबों को यह छूट हार्ट, किडनी, लीवर जैसे मंहगे इलाजों के लिए संभव नही है
एक शोध पर नज़र डालें। इसके अनुसार आज हम चिकित्सकीय रेडिएशन जैसे सीटी स्कैन जैसी सुविधा का अनावश्यक रूप से उपयोग करते हैं और इससे स्वास्थ्य पर विपरित असर पड रहा है। हम जितने टेस्ट करवाते हैं उनमें से आधे अनावश्यक होते हैं। इनसे न केवल हमें आर्थिक हानि होती है बल्कि हम कई प्रकार से साइड इफैक्ट के शिकार भी हो जाते हैं। लेकिन कमीशन के कारण ऐसा किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता कि समाज का एक वर्ग ओवरट्रीटमेंट का शिकार हो रहा हैं। इसका अर्थ यह है कि हम छोटी सी बीमारी के लिए भी बडा सा उपचार करवाते हैं. जबकि वह बीमारी घरेलू उपायों से भी ठीक हो सकती है या फिर उसके लिए किसी उपचार या जांच की आवश्यकता ही नहीं होती है।
आज भी देश में 6 लाख से ज्यादा डॉक्टरों के पद खाली हैं। डॉक्टर एवं मरीज का अनुपात काफी असंतुलित है। अब यह जानकारी कोई रहस्य नहीं रही कि दवा कम्पनियां डाक्टरों को विदेश यात्रा तथा कुछ अन्य प्रलोभन देकर अपनी दवाओं की खपत बढ़ाने का इंतजाम रहती हैं। आज डॉक्टरी पेशा सेवाभाव के स्थान पर पूर्णरुपेण बाजार में बदल चुका हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार सरकारी संस्थानों से एमबीबीएस करने के पश्चात लगभग आधे डॉक्टर विदेश में शिक्षा ग्रहण करने के बहाने वहीं बस जाते हैं। क्या भ्रूण हत्या डॉक्टरों की संलिप्तता के बिना संभव है?
सरकार ने डॉक्टरी के प्रथम दो वर्ष गाँवों में सेवा देने को अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव रखा ही था कि विभिन्न संगठनों ने इसका पुरजोर विरोध किया। इसीसे गाँवों को लेकर इनकी सोच का अंदाजा लगाया जा सकता है, जबकि गाँवों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की सबसे ज्यादा जरुरत है । अधिकांश डॉक्टर अब सेवा भाव के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुऐ इस क्षेत्र में कदम नहीं रख रहे बल्कि इनका मूल मकसद है शहरों, महानगरों में रहना एवं अधिक से अधिक धन अर्जित करना। परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि सभी डाक्टरों में सेवाभावना समाप्त हो चुकी है। आज भी अनेकों ऐसे डाक्टर हैं जो धर्मार्थ संस्थाओं के माध्यम से नाममात्र के शुल्क पर श्रेष्ठ उपचार दे रहे हैं। ऐसे डाक्टर ही मानवता के उपासक हैं शेष को क्या कहा जाए, फैसला आपका।
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