आश्चर्य होता है कि एक तरफ भारतीय संस्कृति में नारी को विशेष सम्मान प्राप्त है। हमारे जीवन के लिए सर्वाधिक उपयोगी धन की अधिष्ठाती देवी लक्ष्मी है तो ज्ञान के लिए माँ सरस्वती की शरण में जाना पड़ता है। देश में नवरात्रों में शक्ति स्वरुपा माँ दुर्गा की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। हमें बार- बार यह भी सिखाया जाता है कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहीं देवताओं का वास होता है। गुरु नानकदेव जी का कथन है- नारी जोे राजाओं की भी जननी है उसका सम्मान होना चाहिए। हम मानते हैं कि नारी शक्ति की उपासक है। घर की आत्मा व प्राण है, वेदों में विशिष्ट मंत्रों से उसे पूजा गया है। उसके मर्म से ही जीवनरस की वर्षा होती है। घने अंधकारों में भी वह अपनी मुस्कान बिखेरकर उजाला करती है। तो दूसरी ओर नारी के प्रति उचित व्यवहार का अभाव भी इसी समाज में ही देखने को मिलता है। एक तरफ नारी भ्रूण हत्या की बढ़ती प्रवृति ने लिंग अनुपात को बुरी तरह प्रभावित किया है तो दूसरी ओर महिलाओं के प्रति अपराधों में लगातार वृद्धि हो रही है। ऐसे में जब सभी को अपनी दोहरी सोच बदलनी चाहिए तथा राजनीति को उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए हम देख रहे है कि हमारे कुछ नासमझ नेता लगातार उससे उल्ट आचरण कर रहे हैं। नारी को भोग्या के रुप में पेश करने वाले घोर दंड के अधिकारी हैं।
ताजा मामला है केन्द्र की कांग्रेस सरकार में कोयला मंत्री प्रकाश जायसवाल द्वारा 30 सितंबर को अपने जन्मदिन की पार्टी पर आयोजित कवि सम्मेलन में यह कहना, ‘नई-नई जीत और नई-नई शादी का अपना अलग ही महत्व होता है। जैसे-जैसे समय बीतेगा जीत पुरानी होती जाएगी, जैसे-जैसे समय बीतता है पत्नी भी पुरानी होती जाती है, फिर वो मजा नहीं रहता है।’ उनके इस बयान पर वहाँ उपस्थित उनके चमचों ने जमकर ठहाके लगाये लेकिन सारे देश में महिला संगठनों द्वारा उनकी जमकर निंदा की जा रही है। विपक्ष द्वारा उनके इस्तीफे की मांग और स्वयं उनके दल ने भी उनके इस बयान से पल्ला झाड़ने के बाद मंत्री महोदय ने अपना बयान वापस लेने और माफी मांगने की बात कह कर मामले को ठण्डा करने की कोशिश जरूर की है। उनके विरोध में प्रदर्शन कर रही एक महिला ने कहा कि पुराने तो जायसवाल भी हो गए हैं, तो क्यों न उन्हें भी बदल दिया जाए।
वैसे यह कोई पहली बार नहीं है कि किसी राजनैतिज्ञ ने मातृ-शक्ति को खिलौना समझा हो। अमरमणि, कांडा, तिवारी, फिजा कांड उदाहरण मात्र है जो महिलाओं के प्रति व्यवहार नेताओं की गंदी मानसिकता के कुछ उदाहरण मात्र है जबकि सत्य इससे कई गुना ज्यादा भयावह है।
आज किसी भी समाचार-पत्र को उठाकर देखलो अपहरण और बलात्कार के समाचारों की भरमार रहती है। इस कुकृत्य में शामिल लोगों पर कम ही कार्रवाई की जाती है क्योंकि अनेक बार तो इज्जत का डर दिखाकर उसे वापस लौटा दिया जाता है। अगर वह फिर भी न माने तो कुछ ले-देकर या सांठगांठ कर मामला दबा दिया जाता है। उस अभागिनी नारी के भयाक्रांत मन को सांत्वना तो दूर उसकी अस्मिता पर आक्रमण करने वाले को तात्कालिक दंड तक नहीं दिया जाता। अनेक बार तो दोषी कानूनी सुराखों का लाभ उठाकर बच निकलते हैं।
क्या यह सत्य नहीं कि स्त्रियां पुरुषों से अधिक श्रमशील हैं। कामकाजी स्त्री सूर्याेदय से सूर्यास्त तक पुरुषों के साथ जिस सुघड़ता के साथ कार्य करती है, थकने के बाद क्या उनकी चिंतनधारा मात्र घर गृहस्थी ही है? घर गृहस्थी में मात्र साड़ी, कपड़ा तो नहीं है। भारत की परंपरा में गृहस्थी को पंचाग्नि व्रत कहा गया है। पंचाग्नि का अर्थ है ग्रीष्म की तप्त दोपहरी में चारों ओर अग्नि जलाकर सूर्य की ओर मुख करके खड़ा होना। बेशक आज युग बदल रहा है। संपूर्ण रूप से गृहस्थी को सजाने वाली स्त्री को पाश्चात्य के समर्थक मां के रूप में नहीं मात्र भोग्या के रूप में देखते हैं।
महिला आरक्षण के लिए लंबी-लंबी बहस करने वालों में शामिल नेता की ऐसी घृणित मानसिकता क्षमा के योग्य नहीं हैं। बेशक वर्चस्व की अवधारणा नई नहीं है बल्कि आदिम है। जब मनुष्य जड़ वस्तुओं से लेकर चेतन वस्तुओं तक अपना अधिकार जताने का प्रयास करता था। आज भी यह अवधारणा बलवती दिखाई देती है। वर्चस्व की दूसरी अवधारणा संस्कृति को प्रकृति पर विजय के रूप में देखने के विश्वास से उद्भूत है। सामान्यतः पुरूषं को संस्कृति और नारी को प्रकृति के समानार्थक देखने की प्रवृत्ति रही है तथा सामाजिक विकास को प्रकृति पर नियंत्रण के विकास के रूप में रेखांकित किया जाता है।
सामान्यतः आदर्शों तथा मूल्यों को सकारात्मक रूप से देखने की परंम्परा रही है लेकिन जब इनका हमारे जीवन पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता तो सोचने को विवश होना पड़ता है कि हमारे आदर्श कितने खोखले क्यों है? यह भी स्मरणीय है कि अक्सर कहा जाता है कि जिस समाजं में परिवर्तनों को आत्मसात करने की क्षमता नहीं होती तथा जो परिवर्तनों के अनुसार अपना अनुकूलन नहीं कर पाती,, वे नष्टप्रायः हो जाती हैं। लेकिन इसका अर्थ कदापि यह भी नहीं कि नारी की तस्वीर करे विकृत करने को परिवर्तन अथवा उन्नति मान लिया जाए। स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता में अंतर रहना ही चाहिए।
नारी के अनेक रूप में बेटी, बहन, कुलवधु, पत्नी और माँ प्रमुख हैं। वह एक गुणवान बेटी बनकर अपने पिता के कुल का नाम रोशन करने के लिए प्रयत्नशील रहती है। आज के समय में जब बेटे अपने मां-बाप को घर से बाहर निकाल देते हैं तब बेटी उस मां-बाप को अपने पास रख बेटी होने का फर्ज अदा करने की कोशिश करती है। उसका दूसरा रुप एक आदर्श कुलवधू का। वह एक घर को छोड़कर दूसरे घर जब आती है तब त्याग और बलिदान की मूर्ति बनकर सबका प्रेम जीतने का प्रयत्न करती रहती है। उसका तीसरा रूप है एक बहन का है जो खुद भूखी रहकर भी अपने भैया की लंबी आयु और सफल जीवन की कामना करती है। उसका चौथा रूप है पत्नी का। एक जीवन साथी एक हमसफर और अर्द्धांगिनी का। जिस व्यक्ति को वह जानती तक नहीं। उस पर विश्वास कर उसे अपने जीवन की बागडोर सौंप देती है। उसका पांचवां रूप है मां का। जिसे हम ममता की मूरत कहते हैं। एक दूसरी जान को इस पृथ्वी पर लाना कोई छोटी बात नहीं है। वह काम केवल एक नारी ही कर सकती है। बालक की मूक भाषा को समझकर वह हर एक इच्छा पूर्ण करने का प्रयत्न करती है। वहीं मां जब अपने बच्चे को चलना या पांव पर खड़ा होना नहीं आता तो उसे दौड़ना सिखाती है। आज के आत्म केन्द्रित दौर में वहीं बेटा अपने उसी पैर से माँ को लात मारता है तो उसका कारण जायसवाल जैसे लोग उसके जिम्मेवार है जो नारी को सदा एक ही रुप में देखने को अभिशप्त हैं। उन्हें तो हमेशा नारी का नया सलौना रुप ही चाहिए।
स्वामी विवेकानंद ने जब भारतीय नारियों की दुर्दशा और विशेषकर उन दुखद परिस्थितियों को देखा, जिनके कारण उनकी एक बहन आत्महत्या करने को बाध्य हुई थी, तो उनका मन कटुता से भर उठा। बारंबार उनका मन चित्कार करता- ‘अपनी नारी जाति के साथ दुव्यर्वहार ही भारत की दुर्गति का मुख्य कारण है।’ वे अपने व्याख्यानों से प्राप्त आय का एक अंश वराहनगर के एक हिन्दू विधवाश्रम को भेजा करते थे।
बेशक आज कुछ अति महत्वाकांक्षी महिलाएं वातावरण को दुषित कर रही हैं लेकिन उसका दोष भी उन लोगों को स्वीकार करना चाहिए जिन्होंने नारी को केवल एक ही रुप में देखा है। जब नारी उनके लिए भोग है तो ऐसे में कुछ तेज-तर्रार महिलाएं भी उनसे लाभ उठाने के लिए किसी भी स्तर तक चली जाए तो आश्चर्य क्यों होना चाहिए। आज का टीवी, सिनेमा, पाश्चात्य संस्कृति और निरंकुश राजनीति के जायसवाल, तिवारी अधिकांश विकृतियों की जड़ हैं। ऐसे लोगों की मानसिकता को धोबीपाट पर पटक-पटक कर साफ करना आज की आवश्यकता है।
और अंत में जब पत्नियों के पुराने होने को लेकर बयान चर्चा में है। कई कवि तक अपनी पत्नियों की खिल्ली उडा-उडा कर चर्चित हो गए। वह भारतीय नारी जो गृहस्थी की चक्की में पिस-पिस कर न केवल अपने बाल सफ़ेद कर लेती हैं बल्कि स्वयं पर पुरानी होने का ‘ठप्पा’ लगवा कर भी खामोश है। उनके लिए सुविख्यात कवि डॉ लक्ष्मी शंकर वाजपेयी की पंक्तियां प्रस्तुत हैं-
समय के साथ बढती उम्र से कैसी निराशा है
बढ़ा है और बढ़ेगा प्यार हर दिन बस ये आशा है
लिखी बरसों जो तुमने एक इक दिन की तपस्या से
ये बालों की सफेदी उस इबारत की ही भाषा है!
---डा. विनोद बब्बर Dr. Vinod Babbar
आपके लेख को पढ़ा और इसने समाज की स्त्रियों के प्रति विकृत होती सोच और दोगली सोच के बारे में मेरे विचारों को और पुख्ता ही किया. वस्तुतः यह आज के समाज का एक घिनौना सच है जिसका सामना करने की हिम्मत हम जैसे यथार्थवादी भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाते है, क्योंकि हम सब कहीं न कहीं इसके लिए खुद को दोषी पाते हैं. सच्चाई तो यह है बब्बर जी कि, हम खुद ही इसे बढ़ावा भी देते है, आज एक छोटा बच्चा औरत/ नारी/ देवी के बारे में सिर्फ किताबों में ही पढ़ पता है, या शायद वह भी नहीं. इन सारे लिखित आदर्शों की पाठशाला को तो हमने वर्षों पहले समाप्त कर दिया है, जो कि संयुक्त परिवार है. आज का युवक शायद अपनी माँ के बारे में भी नहीं जानता, उसका आदर करना नहीं जानता, अपनी बहन के बारे में नहीं सीखता, अपनी भाभी के स्थान के बारे में नहीं सीखता, तो वह नारी जैसे पवित्र शब्द के महत्त्व को भला कैसे समझ पायेगा. कौन सिखाएगा उसे बब्बर जी कि भाभी माँ समान होती है ? कौन उसे महसूस कराएगा कि माँ देवी होती है, उसकी पूजा करनी चाहिए ? एक बच्चा जब अपनी बहन को अपने परिवार में उचित स्थान नहीं देता है, सम्मान नहीं देता है तो कौन उसे थप्पड़ लगाकर कहेगा कि यह तुम्हारी बहन है, तुम्हारे बराबर, इसका आदर करना सीखो. ... क्या एकल परिवार में कामकाजी माँ और उसके पिता के पास इतना समय होता है कि वह अपने बच्चे को संस्कार दे सके ? .. उत्तर सिर्फ एक रहा है भाई साहब और वह अभी भी विकल्प हो सकता है, वह है संयुक्त परिवार !! .. रही राजनीतिज्ञों की बात, तो आप तो सिर्फ जायसवाल और तिवारी की बात करते है, मै उनके राजनीतिक माता जी सोनिया गाँधी की बात करता हूँ, जिन्होंने बलात्कार के शिकार एक परिवार से मिलकर हरियाणा में कहा है कि "बलात्कार तो पुरे देश में हो रहे हैं" (छुपे शब्दों में 'यदि हरियाणा में हुए तो क्या हो गया ?) .... लब्बोलुआब यह कि पुरे समाज की सोच ही विकृत है और उनको सीखाने और संस्कारित करने का कोई ठोश विकल्प हमारे पास नहीं है, या है तो हम उसको पीछे छोड़ आये है और अब उसको हम अपनाना नहीं चाहते है.... पर हम देखते हुए अफ़सोस करते नहीं रह सकते, प्रयास अवश्य करेंगे. आपके आशीर्वाद की और आपके सुझाव की आवश्यकता रहेगी.... कमसे कम आप हमें यह जरूर सुझाव देंगे कि कहीं हम युवक दिवा-स्वप्न तो नहीं देख रहे हैं, परिवार की अवधारणा को मजबूत करने की चाहत लेकर अथवा कोई और अवधारणा भी इससे सुलभ और सटीक है समाज में वास्तविक बदलाव लाने के लिए....
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अच्छे लेख के लिए साधुवाद !!