शिक्षा के नाम पर खिलवाड़ करती राजनीति Don't Mix Politics & Education
गत दिवस नांगलोई दिल्ली के सरकारी स्कूल में अध्यापक मुकेश कुमार को परीक्षा में नकल न करने देने के ‘अपराध’ में कक्षा में आकर अपने ही छात्रों ने चाकूओं से गोद दिया गया। उपमुख्यमंत्री ने इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। लेकिन ऐसा वातावरण एक दिन में नहीं बनाहै। क्या मंत्री महोदय नहीं जानते कि शिक्षा के साथ जिस तरह के बेतुके प्रयोग किये जा रहे हैं यह उसी का उपउत्पाद है। सभी को पास करना, स्कूल में छात्र जैसा भी व्यवहार करे अध्यापक उसे डांटेगा भी नहीं जैसे तुगलकी फरमान है।
केन्द्रीय विद्यालय संगठन से जुड़े एक अध्यापक के अनुसार उन्हें निर्देश है कि छात्रों के ‘भावनात्मक संबंधों’ के प्रति वे मूक दर्शक बने रहें। एक मित्र अध्यापक ने अपने सहशिक्षा विद्यालय की कक्षा में ही आपत्तिजनक मुद्रा में बैठे एक जोड़े को डांटा तो उन्होंने पुलिस बुलाकर उल्टे उसी पर आरोप जड़ दिये। वह शिक्षक कई दिन थाने में चक्कर लगाता रहा और जब प्रधानाचार्य ने भी कोई सहयोग करने की बजाय पल्ला झाड़ लिया तो अंत में माफी मांगकर जान छुड़ाई। क्या आप उस शिक्षक से यह आपेक्षा करोगे कि वह कक्षा में जाकर अनुशासन कायम रख पायेगा? क्या बिना अनुशासन के पढ़ाया जा सकता है? इन बातों पर विचार करना तो दूर यदि कोई कुछ कहे तो उसका मुंह तत्काल बंद करा दिया जाता है।
पिछले दिनो साई आडिटोरियम, दिल्ली में शिक्षकों के एक कार्यक्रम में हमारे माननीय उपमुख्यमंत्री ने कहा था, ‘आज कहीं कोई आपराधिक घटना होती है तो उस राज्य का मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पुलिस प्रमुख को बुलाकर कहता है, ‘एक सप्ताह में सब ठीक होना चाहिए।’ लेकिन मेरा स्वप्न है कि कहीं भी आपराधिक घटना होने पर पुलिस चीफ को नहीं, स्कूलों, कालेजों के प्रमुखों और शिक्षामंत्री को बुलाकर कहंू- ‘एक सप्ताह में सब ठीक हो जाना चाहिए।’ तालियों की गड़गड़ाहट तो होनी ही थी। लेकिन ऐसे जुमले किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकते। तालियां बटोरने वाले के पास उसदिन भी इस बात का कोई जवाब नहीं था कि पुलिस के पास बहुत से अधिकार हैं। दण्ड की शक्ति हैं लेकिन जो शिक्षक गलती करने पर छात्र को दण्ड देना तो दूर डांट भी नहीं सकता। नैतिक शिक्षा से आपको परहेज है क्योंकि इसमें आपको साम्प्रदायिकता की बू आती है। जो शिक्षक खुद डरकर समय बिता रहा हो। किसी अयोग्य को फेल नहीं कर सकता उससे आप अपराध मुक्त समाज की आपेक्षा आखिर किस आधार पर और क्यों करते हैं? क्या सिसोदिया जी अपने ही एक विद्यालय में छात्र द्वारा शिक्षक की सरेआम हत्या के बाद भी आज भी उस जुमले के साथ खड़े हैं या कटु सत्य ने उनकी सोच को कुछ व्यवहारिक बनाया है?
कटु सत्य यह है कि आज अधिकांश अध्यापक अपने ही छात्रों से डरते हैं। हो सकता है ‘डरते है’ शब्द से कुछ लोग सार्वजनिक रूप से असहज हों परंतु सरकार का सर्व बताता है कि ऐसे ही तमाम कारणो से राजकीय विद्यालयों में शिक्षा का स्तर रसातल तक पहुंच चुका है- बस यह कसर बाकि थी सो इसकी शुरुआत भी हो गई है। सरकारे रस्म अदायगी करते हुए शिक्षक को ‘राष्ट्र-निर्माता’ बताती रहे और वातावरण को राष्ट्र विरोधी बनाने में सहयोग करती रहें।
हमें यह तय करना पड़ेगा कि सर्वशिक्षा अभियान ज्ञान के लिए है या केवल प्रमाणपत्र के लिए? ज्ञान से प्रमाणपत्र महत्वपूर्ण होने का परिणाम ही है- परीक्षा में नकल, नकली डिग्रियां, कुछ न जानने वाले टापर। हम समझ ही नहीं पा रहे हैं कि सच्ची शिक्षा वह है जो ‘मस्तिष्क में ज्ञान, हृदय में गुण, शरीर में शक्ति और सभी जीवों के प्रति दया, करूणा, सौहार्द का संचार करे। शिक्षक और विद्यार्थी किसी भी राष्ट्र की नींव के वे पत्थर हैं जिनका तन, मन से ही नहीं चरित्र से भी मजबूत होना आवश्यक है। गुरुकुल में शिक्षण के साथ वहां की व्यवस्था से संबंधित अन्य कार्य जैसे- जंगल से लकड़ियॉं लाना, साफ-सफ़ाई, भोजन बनाना आदि भी करते थे। राजा- प्रजा की सन्तानें एक समान, एक साथ रह कर शिक्षा प्राप्त करती थीं। विश्वामित्र, वशिष्ठ, चाणक्य, द्रोणाचार्य जैसे श्रेष्ठ गुरुओं की एक सुदीर्घ परम्परा के दर्शन भारतीय संस्कृति में होते हैं। तब अभिभावक अपनी प्रिय संतान को गुरु को सौंपते हुए कहते थे- यथेह पुरुषोऽसत् अर्थात्- हे आचार्य! आप इस बालक को श्रेष्ठ विद्या प्रदान कर ऐसी शिक्षा दें कि यह पुरुष बन जाये। तब गुरु-शिष्य दोनो ही प्रतिदिन प्रार्थना करते थे- सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु सह वीर्यम् करवावहे तेजस्विना वधीत मस्तु, मा विद्विषावहे। अर्थात् हे प्रभु! हम दोनों को एक -दूसरे की रक्षा करने की सामर्थ्य दे। हम परस्पर मिलकर अपनी जाति, भाषा व संस्कृति की रक्षा करें। किसी भी शत्रु से भयभीत न हों। हमारी शिक्षा हमें एकता के सूत्र में बांधे, बुराईयों से मुक्त करे। हम एक-दूसरे पर विश्वास रखें।’ लेकिन आज स्थिति क्या है? दोनो के हृदय में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास एवं अनास्था का वातावरण है। शिक्षक तो मात्र अपना विषय पढ़ाने आधे से एक घंटे के लिए उस कक्षा में आता है जहां 50 से अधिक छात्र हैं। वह उन्हें विषय की जानकारी अर्थात् सूचनाओं का संप्रेषण भर ही कर सकता है। उसे सबकुछ जानते हुए भी छात्रों की विभिन्न गतिविधियों के प्रति अनजान बने रहकर अपने विषय तक सीमित रहने के निर्देश हैं। आखिर हमारे वाचाल शासक शिक्षा का बजट बढ़ाने का प्रचार तो खूब करते है परंतु छात्र शिक्षक अनुपात तय नहीं करते। अध्यापकों की कमी पूरा नहीं करते। वे क्यों नहीं समझते कि अध्यापकों को इस तरह पंगु बनाकर राष्ट्र के भावी नागरिकों को ही दिशाहीन बना रहे है। विद्यालय में शिक्षक सुरक्षित नहीं है तो वातावरण के दावें कोरी लफ्फाजी है।
कहने वाले लाख कहते रहे कि अध्यापक का कार्य सेवा कार्य है। लेकिन उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि डाक्टर, सेना, पुलिस कौन सा काम सेवा नहीं है। अध्यापकों के वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक, व्यावसायिक उत्तरदायित्व भी होते है। पढ़ना उनका कार्य है ही लेकिन बच्चें, युवा पीढी तथा समाज में उपयुक्त चीजों की सहायता से आदर्श एवं संस्कारों की निर्मित करना भी उसी का दायित्व है। बेशक भारतीय संस्कृति में गुरु को उच्च स्थान प्राप्त था लेकिन आज जब राजकीय स्कूलों से कालेजों तक अराजकता का पर्याय बनती राजनीति हावी है और निजी स्कूल सीधे-सीधे शोरूम हैं जहां छात्र े ‘क्लाइन्ट’ और शिक्षक ‘सर्विस प्रोवाइडर’ अथवा नौकर है। चहूं ओर ट्यूशन, कोचिंग का साम्राज्य फल-फूल रहा है। शिक्षक बनना किसी की भी प्राथमिकता नहीं है। विश्वास न हो तो आज किसी भी युवक से पूछो तो वह आईएएस, डाक्टर, इंजीनियर,पायलट, सीए, सीएस, यहां तक कि सैनिक अफसर और नेता भी बताएगा लेकिन टीचर प्रोफेसर शायद ही कोई कहें। हाँ, यह बात अलग है कि जब कहीं नहीं तो यही सही। ऐसे बोझिल परिवेश में आखिर कौन आना चाहेगा? आयेगा भी तो तमाम बंदिशों और असुरक्षा के चलते उससे छात्र के सर्वांगीण विकास की आपेक्षा करना आत्म प्रवंचना के अतिरिक्त आखिर क्या है?
समय के साथ शिक्षा के तौर -तरीके भी बदले हैं। प्रत्यक्ष संवाद कम्प्यूटर, इंटरनेट, ऑन लाइन हो रहा है। इस बदलते परिदृश्य ने संवेदनात्मक स्पर्श के महत्व को ही समाप्त कर दिया है। दूसरी ओर प्रबंधन और तकनीक जैसे विषय परम्परागत शिक्षा पर हावी हो रहे हैं। अतः परम्परागत संस्कार और मानवीय मूल्यों के लिए स्थान सीमित हो रहा है। देश से अधिक विदेश का आकर्षण युवा विद्यार्थी को शिक्षा के वास्तविक अर्थ से दूर ले जा रहा है। ऐसे में सब यंत्रवत है। शिक्षक से विद्यार्थी तक। कहीं- कहीं शिक्षक भी उदासीन बना अपना समय काट रहा है तो कहीं राजनीति का पुर्जा बनने को विवश है। सुधार और बदलाव की जरूरत हर तरफ है लेकिन यह काम वोटों पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले राजनेता हर्गिज नहीं कर सकते। जरूरत है समाजशास्त्रियों और शिक्षाविदों को यह जिम्मेवारी सौंपी जाये।
इन तमाम विसंगतियों के बीच आज भी अनेकों आदर्श शिक्षक हैं लेकिन सरकार, समाज और स्वयं हमने कब उसके महत्व को स्वीकारा है। कब उसकी परेशानियों को समझा है? हम भी तो उससे सरकारी मशीनरी के एक पुर्जे जैसा व्यवहार करते हैं लेकिन उपेक्षा करते हैं देवत्व वाले व्यवहार की। अगर उसके सम्मान को हम नहीं बचा पा रहे हैं तो समझों- शिक्षा गई भाड़ में। क्या अब भी जानना है कि विश्व में प्रथम सौ विश्वविद्यालयों में हमारा एक भी क्यों नहीं?
शिक्षा के नाम पर खिलवाड़ करती राजनीति Don't Mix Politics & Education
Reviewed by rashtra kinkar
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22:35
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