जिन प्रेम किये तिन ही प्रभु पायों



 हमारे एक युवा संन्यासी मित्र ने कहा- ‘प्रेम या सम्मान का भाव सिर्फ उन्हीं के प्रति रखिएगा, जो आपके मन की भावनाओं को समझते हैं।’  वह योग्य हैं। विद्वान हैं। संवेदनशील हैं। लेकिन यह जरूरी तो नहीं कि मित्र की हर बात से सहमति ही हो। दो विचारशील मित्रों में किसी बिन्दू पर असहमति होना उनकी आत्मिक निकटता में बाधक नहीं बनता। बल्कि चिंतन की गहराई तक पहुंचने में सहायक हो सकता है। इसलिए उनके उपरोक्त से कथन से मैं सहमति नहीं रखता। मेरा मत है-
ह किसी व्यापारी का सूत्र वाक्य हो सकता है, संन्यासी का नहीं। (संन्यासी= सम्+ न्यासी) सबके प्रति सम दृष्टि रखना ही मानवता है। बिना लाभ-हानि, यश-अपयश की कामना किये अपने कार्य में लगे रहना संन्यास की प्रथम कसौटी है। जबकि इसके ठीक विपरीत एक व्यापारी हर व्यवहार में लाभ- हानि का आंकलन करता है। वह उन्हीं से संबंध रखने को प्राथमिकता देता है जिनसे परस्पर लाभ प्राप्त होने वाला हो। किसी ने अकारण तो नहीं कहा होगा-
प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जिस रुचे, सीस देय ले जाय।।

यह अजीब विरोधाभास है कि हम अपने ही परिवेश में आदर्श प्रेम का निर्माण करने की बजाय आदर्श प्रेमी को खोजने में लग जाते हैं। क्या इसका अर्थ यह नहीं कि हम जानते ही नहीं कि प्रेम क्या होता है। प्रेम पहाड़ को काटकर राह बनाने की जिद्द है। समन्द्र की लहरों से टकराने का दुस्साहस है। रेगिस्तान को नन्दनवन में बदलने की शक्ति है। पत्थर को भगवान बनाने की कला है। उस अव्यक्त, अदृश्य के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखना आखिर क्या है?
मुझे युवा संन्यासी से इसलिए प्रेम नहीं है कि मुझे कुछ चाहिए। प्रेम शरीर से अधिक मन की आवश्यकता है। भौतिक जरूरत से अधिक आध्यात्मिक अनुभूति है। एक नटखट बालक माता-पिता को खूब छकाता है लेकिन वे फिर भी उससे प्रेम करते है। बड़ा होकर वह उनके प्रति अपने कर्तर्व्यों का निर्वहन नहीं करता। अनेक बार उपेक्षा और अपमान तक करता है लेकिन वे फिर भी उसका अहित नहीं चाहते। क्योंकि- है इसी में प्यार की आबरू, वो जफा करे मैं वफा करू। 
चिड़ियां अपने बच्चे से प्रेम करती है इसीलिए तो वह उनकी रक्षा के लिए बाज तक से भिड़ जाती है। कभी चोंच से दाना डालने वाली चिड़िया एक समय सीमा के बाद अपने ही बच्चों को चोंच मार दूर करती है। इसका अर्थ यह नहीं कि उसका प्रेम चूक गया। अब वह उसे अपनी संतान नहीं मानती। मानती है। इसीलिए तो उसे स्वाबलंबी बनाने के लिए स्वयं से दूर कर रही है। एक शेरनी अपने शावक को प्रशिक्षित करने के लिए पंजे मारती है तो वह उसके प्रेम का विस्तार ही है।  
आज से 20 वर्ष पूर्व बार-बार मर्यादा का उल्लंघन करने वाले एक युवक को मैंने हमेशा के लिए आश्रम से निकाल दिया था। उसके लाख प्रयास पर भी उससे कभी नहीं मिला। बात तक नहीं की और न ही ऐसा कोई इरादा है। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मुझे इतनी शक्ति दें कि आजीवन मैं अपने इस संकल्प से न डगमगाऊ। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि मुझे उससे प्रेम नहीं है। एक शुभचिंतक होने के नाते मैं उसे सद् मार्ग पर लाना चाहता हूं इसलिए उससे फासला बनाया। रहीम ने कहा है-
रहिमन यहि संसार में, सब सो मिलिये धाय।
ना जानैं केहि रूप में, नारायण मिल जाय।। 

सबसे प्रेम से मिलों- मुस्कुरा कर मिलो क्योंकि मुस्कान बेमोल मिलती है लेकिन बेमेल नहीं होती। बल्कि बहुत कीमती है। असंख्य हृदयों से तार जोड़ती है। मात्र एक बार मुस्कराहट एक चित्र की शोभा बनती है तो बार-बार की मुस्कराहट हमारे चित्त का श्रृंगार बन सकती है। कहने को बहुत कुछ है।लेकिन ...........................!
अंत में गुरु गोविन्द सिंह जी की बात करूंगा जो कहते हैं-
साच कहू सुन लिजो सदा- जिन प्रेम किये तिन ही प्रभु पायों।
विनोद बब्बर 9868211911 


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