मुंडे का सत्य अवसर है सफाई अभियान का-- डा विनोद बब्बर
कुछ वर्षो पूर्व तक यह प्रश्न अक्सर पूछा जाता था कि ‘राजनीति सेवा है या व्यवसाय?’ लेकिन इसी बीच घोटालों के तूफान ने स्थिति को इस कदर बदल दिया कि अब पूछा जाने लगा है ‘राजनीति व्यवसाय है या लूट? थोड़ा सच या पूरा झूठ?’ राजनीति में आई ऐतिहासिक गिरावट का ‘श्रेय’ किसी एक दल विशेष को नहीं दिया जा सकता क्योंकि इस हमाम में सभी नंगे हैं। ऐसे में अगर कोई ‘गलती’ से भी ‘सच’ बोल दे तो हंगामा मच जाता है। बस कुछ यही स्थिति बीड़ महाराष्ट्र से सांसद गोपीनाथ मुंडे की है जिन्होंने 27 जून को मुंबई में एक किताब के विमोचन के मौके पर न जाने क्यों कह दिया कि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने आठ करोड़ रुपये खर्च किये थे। स्वाभाविक है कि विरोधी उनके इस ‘सच’ को उनका ‘अपराध’ घोषित करने की हद तक जाने के लिए तैयार है। विरोधियों ने चुनाव आयोग से मुंडे की सदस्यता समाप्त करने की मांग की तो चुनाव आयोग ने भी इस ‘अपराध’ का तत्काल नोटिस लेते हुए उन्हें नोटिस जारी कर पूछा है कि अपने चुनाव प्रचार कां खर्चे छिपाने/ कम कर बताने के लिए चुनाव आचार नियम, 1961 के तहत क्यों न उनके खिलाफ कार्यवाही शुरू की जाए और उन्हें क्यों न अयोग्य करार दिया जाए।
प्राप्त जानकारी के अनुसार मुम्बई में मुंडे ने चुनाव के दौरान बढ़ते खर्च पर दुख व्यक्त करते हुये कहा था, ‘वर्ष 1980 में जब मैंने पहली बार चुनाव लड़ा था तो 29 हजार रुपये खर्च किये थे। वर्ष 2009 में मेरे 8 करोड़ रुपये खर्च हुए।’ ज्ञातव्य है कि चुनाव खर्च की सीमा 25 लाख रुपये थी लेकिन दूसरे सभी ‘ईमानदार’ नेताओं की तरह मुंडे ने जो चुनावी खर्च ब्यौरा दिया था उसके अनुसार उनका चुनाव खर्च मात्र 19,36,922 रुपये था।
सत्तारुढ़ दल कांग्रेस इसे मुंडे द्वारा चुनाव कानून का उल्लंघन की स्वीकृति बताते हुए कार्यवाही की पक्षधर है तो मुंडे की पार्टी भाजपा बचाव की मुद्रा में है। उसके एक प्रवक्ता का मासूम तर्क है कि मुंडे ने चुनावों के सरकारी वित्तपोषण और साथ ही बढ़ते चुनावी खर्च का बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है। जबकि एक अन्य ‘योग्य’ प्रवक्ता का दावा कि मुंडे का मतलब था कि लोगों ने उनके चुनाव प्रचार पर आठ करोड़ रुपये खर्च किया।
वैसे तो सार्वजनिक जीवन में रहने वाले हर व्यक्ति से ही यह अपेक्षा की जाती है कि वह सच बोलते हुए समाज के समक्ष अनुकरणीय आदर्श पेश करे, पर जिस तरह से यह स्वीकारोक्ति सामने आई है उसे न तो भूल सुधार कहा जा सकता है और न ही यह प्रायश्चित जैसा है। मुंडे के विरूद्ध कार्यवाही करने की मांग करने वाले अपने सीने पर हाथ रखकर यह नहीं कह सकते कि अकेले मुंडे ने ही चुनाव खर्च सीमा का उल्लंघन किया है।
कुछ नियम तो स्वयं में ही इतने अव्यवहारिक हैं कि उनके ठीक से पालन का प्रश्न ही पैदा हेता। अब देखे- एक लोकसभा सीट में आठ से दस विधानसभा क्षेत्र आते हैं. अगर विधानसभा के लिए चुनाव खर्च की सीमा 25 लाख है तो आठ से दस गुणे क्षेत्र के लिए चुनाव खर्च की सीमा मात्र डेढ़ गुणी रखना किस तरह से जायज है? अब खर्च की बात करें। दिल्ली की सात सीटों के लिए 9500 पोलिंग स्टेशन है जबकि देश के अन्य स्थनों पर इससे भी अधिक मतदाता व पोलिंग स्टेशन है इस तरह औसत 1500 पोलिंग स्टेशन होते हैं। हर पार्टी ‘एक बूथ पर दस यूथ’ का नारा देती है। एक पोलिंग एजेंट, दो रिलीवर यानि प्रति पोलिंग स्टेशन कम से कम 13 कार्यकर्ता। अब इनका चाय-नाश्ता, दोपहर का भोजन, दिनभर के अन्य खर्च, अंदर बैठे एजेंट के पास ‘चैलेंज’ करने के लिए धनराशि, बाहर टेबल कुर्सियों का खर्च, मतदाता सूची की अनेक प्रतियों का खर्च, पैन, पर्चियां, मतदाताओं को घर से निकालने में लगे कार्यकर्ताओं के खर्च की यदि ईमानदारी से गणना करे तो यही चुनाव खर्च की सीमा के आसपास होता है। अब आप चुनाव की पूर्व सन्ध्या पर बांटे जाने वाली बोतलों और नोटों की चर्चा करे या न करे पर यह आज का सत्य है। पिछले चुनाव में एक उम्मीदवार ने इन पक्ंितयों लेखक को बताया कि अब ‘यह’ खर्च झुग्गी बस्तियों तक सीमित नहीं रहा क्योंकि अब आपेक्षाकृत ‘अच्छे’ कहे जाने वाले क्षेत्रों में इसकी मांग होने लगी है। इस तथ्य की पुष्टि उनके विरोधी ने भी की तो संदेह की कोई गुंजाइश ही कहां रही।
मुंडे को नोटिस भेजने वाले चुनाव आयोग से यह पूछना अपराध है कि आखिर उसने इन तमाम तथ्यों का अब तक नोटिस क्यों नहीं लिया? क्यों झूठे ब्यौरे प्रस्तुत करने वालों के विरूद्ध कार्यवाही नहीं की? क्या उसे इतना भी व्यवहारिक विवेक नहीं कि चारो तरफ क्या हो रहा है? लाखों मतदाताओं से सम्पर्क के लिए 10 से 15 दिन उम्मीदवार की पदयात्रा, झंड़े, बेनर, पोस्टर हैंडबिल,कार्यालय के लिए दरी, कनात, कुर्सियों की जरुरत पड़ती है। वहाँ सक्रिय-निष्क्रिय कार्यकर्ताओं का खर्चा, वाहनो के लिए पैट्रोल डीजल आदि चाहिए नहीं? अब यह प्रश्न बेमानी है कि दिनभर काम करके थके कार्यकर्ताओं के लिए दवा चाहिए या नहीं। कुछ माह पूर्व एक तेजतर्रार केन्द्रीय मंत्री ने एक सेमीनार में कहा था कि उनके राज्य में विधानसभा चुनाव के दौरान एक उम्मीदवार ने 15 से 20 करोड़ रुपए का खर्च किये थे, जबकि आयोग की तरफ से तय सीमा 16 लाख रुपए है। पेड न्यूज के मामले भी सामने आ रहे हैं। स्पष्ट है कि जिन्हेंने भी चुनाव खर्च की सीमा से कम का ब्यौरा प्रस्तुत किया है ‘असत्य’ के प्रयोग है। कहा तो यहां तक जा रहा हैं कि संसद चुनाव की सीमा से ज्यादा पैसा तो कालेज के चुनावों में खर्च हो जाता है। इस बात को भी एकदम खारिज नहीं किया जा सकता कि जब से पंचायतों को सरकारी पैसा मिलने लगा है तब से सरपंच के चुनाव में ही करोड़ रुपए खर्च होने की खबरें रहती है। लगता है कि चुनाव आयोग भी इस ‘सत्य’ का जानने, समझने लगा है संभवतः इसी कारण उसके द्वारा खर्च सीमा बढ़ाये जाने के संकेत मिले रहे हैं।
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ (सीएमएस) के स्वतंत्र आकलन के अनुसार 2009 के लोकसभा चुनावों पर कुल 10,000 करोड़ रुपए का खर्च हुआ था। इसे कुल लोकसभा सीटों की संख्या (532) से विभाजित किया जाए तो हर संसदीय क्षेत्र का औसत चुनाव खर्च लगभग 19 करोड़ आता है। यदि हर क्षेत्र में तीन बड़े उम्मीदवार हों तो उनका औसत चुनाव खर्च लगभग पाँच करोड़ रुपए होगा, वह भी तब जब बाकी उम्मीदवारों के लिए चार करोड़ रुपए का भारी-भरकम चुनाव खर्च सुरक्षित कर दिया जाए। कई देशों ने इस संदर्भ में कुछ दिलचस्प प्रयोग किए हैं। उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सरकारी फंडिंग भी एक विकल्प है जिस पर चर्चा तो कई वर्षों से होती रही है, मंथन के लिए कई समितियाँ भी बनी हैं लेकिन कोई ठोस परिणाम अब तक सामने नहीं आया है। अनेक देशों में इस प्रयोग को सफलतापूर्वक आजमाया गया है, जहाँ उम्मीदवार के कुल चुनाव खर्च का 25-30 फीसदी हिस्सा सरकार वहन करती है।
चुनाव के मौके पर पूर्वोत्तर के एक राज्य के गृहमंत्री की कार से एक करोड़ रु. नकद और हथियार मिले। दूसरे राज्यों में भी चुनाव के दौरान इस तरह मोटी रकमें जब्त होने की खबरे आती रही है। आज किसी को नहीं पता कि उन मामलों में किसी को क्या सजा मिली? एक राज्य के मुख्यमंत्री ने चुनावों के दौरान पानी की तरह पैसा बहाया लेकिन चुनाव आयोग के सामने खर्च के फर्जी दस्तावेज पेश किए। एक खोजी पत्रकार ने उनके झूठ की पोल खोलते हुए साबित किया कि उन्होंने निर्धारित राशि से कई गुना ज्यादा पैसा खर्च किया तथा और अवैध पेड न्यूज छपवाये। प्रस्तुत खर्च में मात्र 5,379 रुपए विज्ञापनों पर तथा 4,500 रुपए अपनी दो रैलियों खर्च दिखाया है। दोनों रैलियों में से प्रत्येक में डेढ़ हजार रुपया लाउड स्पीकर, जगह का किराया पांच सौ रुपया। पंडाल की कीमत दो सौ रुपया और मंच पर लगे सोफा के लिए भी दो सौ रुपए का खर्च दिखाया गया। इन रैलियों में 25 हजार से ज्यादा लोगें को रिझाने के लिए एक ‘सुपर स्टार’ भी मौजूद थे। चुनाव के दौरान वहां के प्रमुख अखबारों में एक ही शीर्षक से छपी इस खबर की सभी पंक्तियां शब्दशः एक जैसी थी। जिसे प्रेस परिषद की सब कमेटी की पेड न्यूज पर तैयार रिपोर्ट में सीधे-सीधे पेड न्यूज का मामला करार दिया। बचाव का कोई रास्ता न देख उन्होंने किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता को खारिज करने संबंधी चुनाव आयोग के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सरकार का तर्क है कि ‘चुनाव आयोग तभी किसी उम्मीदवार को अयोग्य घोषित कर सकता है जब वह अपने चुनाव खर्च के कागजात दिखाने में नाकाम हो,। उन दस्तावेजों के सही या गलत होने पर आयोग कुछ नहीं कर सकता।’ ऐसे तमाम उदाहरण है जो साबित करते हैं कि आज की राजनीति में आम आदमी के लिए कोई स्थान नहीं है। अरबों-खरबों और अवैध धनवालों के सामने गरीब चुनाव जीतने तो दूर लड़ने की सोच भी नहीं सकता। सभी इस खेल में आकंठ डूबे हैं। उनके पास अरबों-खरबों कहां से आता है, इसका हिसाब देने के लिए वे तैयार नहीं। किसी भी मुद्दे पर एकमत न होने वाले सभी दल स्वयं को ‘आरटीआई के दायरे में लाए जाने’ के विरोध में एकजुट है। इतना सब होने के बाद भी कहे तो आखिर कैसे कहे कि राजनीति व्यापार नहीं है। व्यापार में निवेश की कोई सीमा नहीं होती इसीलिए आज अंधाधुंध काला- सफेद पैसा लगाने वाले चुनाव जीतकर अपनी लागत पर ब्याज और मुनाफा वसूले तो आश्चर्य कैसा? जिसे किस्मत से सत्ता हासिल हो गई तो वह अपनी कई पीढिय़ों के लिए इन्तजाम करता है।
चुनाव आयोग बेशक सक्रिय है परन्तु उसकी सारी मुस्तैदी चुनाव के दौरान ही दिखाई देती है। उसकी सख्ती के कारण हर जगह पोस्टर बैनर नहीं लगते। जलूस में गाड़ियों की संख्या सीमित हुई हैं। आचार संहिता तोडऩे के सैकड़ों प्रकरण दर्ज होते हैं परन्तु होता कुछ भी नहीं है। इस तरह के अनेक सवाल हो सकते हैं जिनका जवाब कोई भी सामान्य बुद्धि वाला आदमी भी दे सकता है लेकिन हमारी व्यवस्था मौन है। विचारणीय मुद्दा ये है कि चुनाव आयोग की कड़ाई के बाद भी यदि धन का उपयोग इस पैमाने पर हो रहा है तो भ्रष्टाचार को रोकने के प्रयास कैसे कारगर हो सकेंगे? चुनाव आयोग द्वारा मुंडे मामले में दिखाई गई सक्रियता प्रशंसनीय है। दोषी पाये जाने पर सच बोलकर मुसीबत मोल लेने वाले मुंडे को बक्शा नहीं जाना चाहिए लेकिन झूठ बोलकर सदस्यता बचाने वालों से मुक्ति का अभियान भी चलना चाहिए। यदि ऐसा हो सका तो मुंडे का बलिदान इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा।
मुंडे का सत्य अवसर है सफाई अभियान का-- डा विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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