निजहित के लिए एकमत-मुखर पर देशहित पर मौन!

आखिर वही हुआ जिसकी आशंका थी। देश की अर्थव्यवस्था के लगातार गिरावट की ओर है लेकिन हमारे नेताओं को देश से ज्यादा अपनी चिंता है इसीलिए हर मतभेद भुलाकर पिछले दिनों आए सर्वाेच्च न्यायालय के उस ऐतिहासिक निर्णय को जिसे राजनीति के शुद्धिकरण की शुरुआत  अर्थात् राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की दिशा में क्रांतिकारी कदम माना जा रहा था, को निष्प्रभावी बनाने के लिए वाला जनप्रतिनिधित्व (संशोधन एवं वैधीकरण) विधेयक 2013 को ध्वनिमत से पारित कराने में सफल रहे है।  
कुछ दिनों पूर्व सर्वाेच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था, ‘जेल में बंद व्यक्ति यदि वोट नहीं दे सकता तो उसे पर्चा भरने व जेल में रहते हुए चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं है।’ दागी नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने वाला यह फैसला हमारे सभी राजनीतिक दलों को अस्वीकार था क्योंकि लगभग सभी दलों में ऐसे तत्वों की अच्छी-खासी उपस्थिति है। अपने और अपनों को बचाने के लिए हमारे ‘लोकसेवी- जनप्रतिनिधियों ने जनप्रतिनिधि अधिनियम में अब उपधारा जोड़कर यह व्यवस्था कर दी गई है कि यदि सजा होने के तीन माह के अंदर अपील कर दिया जाता है तो उसकी सदस्यता नहीं जाएगी। इस व्यवस्था से उक्त निर्णय का प्रभाव समाप्त हो जाएगा क्योंकि नीचे की अदालत से सबसे बड़ी अदालत तक अपील-दर -अपील 10 से 15 वर्ष लग ही जायेगे और तब तक ‘माननीय’ एक बार नहीं, दो से तीन बार योग्य ‘सेवाएं’ प्रदान कर सकते हैं।  अपने बचाव के लिए कुछ भी करने को उतारु नेताओं की दृष्टि में शायद यह विडंबना नहीं है कि जेल में बंद विचाराधीन आम आरोपी तो मतदान करने के अधिकार से भी वंचित रहता है, लेकिन किसी सांसद अथवा विधायक को सजा भी हो जाए तो भी उसकी सदस्यता बरकरार रहेगी। सजायाफ्ता ‘माननीय’ जेल में रहते हुए भी चुनाव लडऩे के अधिकारी बने रहेगे। 
देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले को रद्द करने के संसद में हुई चर्चा के दौरान विद्वान कानून मंत्री कपिल सिब्बल के अनुसार ‘पूरे देश में राजनेताओं के लिए नकारात्मक माहौल है।  इसका समाधान करने की जरूरत है। मतदान का अधिकार और मतदाता सूची में दर्ज होना वैधानिक अधिकार है। अतः जनप्रतिनिधित्व कानून में जोड़ा गया है कि मतदान के लिए अयोग्य व्यक्ति भी नामांकन दाखिल करा सकता है।’ उन्होंने अदालतों को देश की राजनीति प्रभावित करने वाले मुद्दों पर फैसला देते वक्त एहतियात बरतने को कहा। सिब्बल साहिब ने यह स्पष्ट करने से परहेज किया कि जिस ‘नकारात्मक माहौल’ की बात उन्होंने की है, उसके लिए वे स्वयं को कितना दोषी मानते हैं? 
राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली का कहना है कि अदालती आदेश ने सारे अधिकार पुलिस को दे दिए हैं। वही तय करेगी कि कौन व्यक्ति चुनाव लड़ेगा या नहीं।  पर जेतली साहिब जोकि जाने-माने वकील भी है, इस विषय पर क्यों मौन रहे कि एक सामान्य आदमी की नौकरी से पूर्व उसके चरित्र की जांच कौन करता है? नौकरी से पूर्व छोटा-मोटा मामला दर्ज होने पर नौकरी नहीं मिल सकती तो सांसदी और विधायकी पर आपको इतना ऐतराज क्यों? क्या पुलिस की ओके रिपोर्ट के बिना सरकारी तो छोड़ों आप अपने घर में नौकर भी रख सकते हैं? आप आदमी को भी तो पुलिस के चक्र से मुक्ति दिलाने के लिए आपकी आवाज उठनी चाहिए थी।
बसपा नेता सतीश मिश्रा इसे अदालत बनाम संसद बनाने की कोशिश बताते हैं तो कांग्रेस  प्रवक्ता राशिद अल्वी आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को चुनने के लिए जनता को ही दोषी मानते है। लेकिन यह उनकी चतुराई ही है कि वे असली मुद्दे अर्थात् दागी लोगों को टिकट देने वाले दलों को दोषी बताने से परहेज करते हैं। क्या हमारे नेताओं की यादाश्त इतनी कमजोर है कि जब विवादास्पद केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पी जे थॉमस ने अदालत में कहा है कि दागी सांसद कानून बना सकते हैं तो मैं अपने पद पर क्यों नहीं रह सकता? 
न्यायालय के फैसले को बदलने वाले अदालत में भी तर्क दे चुके हैं कि 169 सांसदों की सदस्यता खत्म करने से संवैधानिक संकट हो जाएगा। इसे न सिर्फ सरकार अल्पमत में आ जाएगी और तत्काल चुनाव कराना होगा. सरकार  अदालत में यह भी स्वीकार कर चुकी है कि विधानसभाओं की हालत इससे भी बदतर है। हर स्तर पर फिरसे चुनाव कराने से सरकारी खजाना खाली होने की नौबत आ जाएगी। वे शायद अप्रत्यक्ष रूप से  कहना चाहते हैं-दागियों का बोझ तो विधायिका झेल सकती हैं लेकिन विधायिका की सफाई का आर्थिक बोझ देश नहीं झेल सकता है।
अन्तिम फैसला आने तक पद पर बने रहने के पक्षधरों को यह याद दिलाना समचीन होगा इंदिरा जी के निर्वाचन को अवैध बताते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट पर उच्चतम न्यायालय  ने अंतिम फैसला आने तक उनकी  सदस्यता बहाल रखने और संसद की कार्यवाही में हिस्सा लेने की अनुमति दे दी थी लेकिन इसी बीच देश को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और क्यों करना पड़ा इसपर भी विचार अवश्य करें। 
यह पहला मौका नहीं है जब राजनीति का अपराधीकरण रोकने का प्रयास हो रहा हो। मई 2002 में उच्चतम न्यायालय के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के तहत मतदाता को उम्मीदवार के बारे में जानने का अधिकार है। अतः उसके बाद से नामांकन के समय शपथपत्र में शिक्षा, संपत्ति और जीवनसाथी की संपत्ति तथा अपने आपराधिक रिकार्ड का ब्योरा देना अनिवार्य कर दिया था। इसके अतिरिक्त न्यायालय ने देश की सभी राजनीतिक पार्टियांे को सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे में लाने के पक्ष में निर्णय दिया था लेकिन सभी दल इसके विरूद्ध एकमत होकर इस निर्णय को निष्प्रभावी बनाने में जुट गए। इन दलों का तर्क है कि वे चुनाव आयोग को अपनी आय के विषय में वार्षिक जानकारी देते हैं अतः जिसे भी कुछ जानना हो वह चुनाव आयोग से पूछे, हमसे नहीं।
 दरअसल हमारी राजनीति को चरित्र इतना खोखला हो चुका है जिसकी बानगी झारखण्ड ही है जहा ‘गुरुजी’ हमारे साथ है तो पाक-साफ और अगर आपके साथ है तो दागी। भविष्य में भी किसी दल को बहुमत न मिलने की स्थिति में ‘दागी’ सर्वप्रिय बन जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।  हमारे ‘महान’ नेता न जाने क्यों जानना नहीं चाहते है कि कुछ माह पूर्व ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री ने अपनी संसद के स्पीकर और अपने दल के दो दागी सांसदों जिन पर स्वास्थ्य सेवा यूनियन के कोष का दुरुपयोग करने का आरोप था, को पार्टी से निलंबित करते हुए कहा था ‘आपराधिक मामलों का निपटारा होने तक वे पार्टी से दूर रहें क्योंकि ऑस्ट्रेलियाई जनता संसद की ओर देख रही है।’

आश्चर्य है कि स्वयं को शुचिता का फरमाबरदार घोषित करने वालों को अपने पितृपुरुष प दीनदयाल उपाध्याय का स्मरण भी नहीं हुआ जो कहा करते थे-‘राजनीतिज्ञों को नेशन फर्स्ट, पार्टी नेक्स्ट, सेल्फ लास्ट’ को ध्यान में रखकर राष्ट्र सेवा की राजनीति करनी चाहिये। स्वयं को बचाने के लिए एकजुट होने वालो द्वारा  लगभग हर सत्र में मारपीट, तोडफोड, माइक, टेबल, चेयर से एक दूसरे को मारने की घटनायें का औचित्य साबित करना होगा। देश की जनता यह भी देख रही है कि ये सभी नेता अपने  वेतन और भत्तों की वृद्धि के लिए जिस एकता व फुर्ती का परिचय देते हैं आखिर उनकी वहीं भवना और गति महिला आरक्षण, लोकपाल तथा ऐसे ही अन्य महत्वपूर्ण विधेयक में कभी देखने को क्यों नहीं मिलती? क्या ऐसा करना अदालत का हो न हो, भारतीय जनता और लोकतंत्र का अपमान नहीं है? नेताओं को समझना  होगा कि अगर वो लगातार जनता के विश्वास के तारों को यू ही खीचते रहे तो विश्वास की यह डोर टूट भी सकती है जो लोकतंत्र के हित में नहीं होगा। निजहित के लिए एकमत और मुखर होने वाले राजनेताओं से आग्रह है कि वे अपने विशेषाधिकारों की रक्षा अवश्य करें लेकिन आम आदमी के जीने के अधिकार पर भी इसी तरह की एकता दिखाये। देश की लगातार बिगड़ती स्थिति पर एकता दिखाने का विवेक भी अपने अंदर पैदा करो। देश की लगातार असुरक्षित होती सीमाओं की चिंता में ऐसी एकता और फुर्ती  की उम्मीद भी उनके मतदाताओं को है तो कोई गलत नहीं है।
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