उमर की अपरिपक्वता कश्मीर का दुर्भाग्य -- डा. विनोद बब्बर

नौजवान उमर अब्दुल्ला से इस देश ने बहुत सी आशाएं लगाई थी लेकिन वह कोई सार्थक परिणाम देने में असफल रहे है। पिछले कई वर्षों से मुख्यमंत्री पद पर आसीन रहने के बाद भी उनमें परिपक्वता का अभाव उनके वाणी और व्यवहार में लगातार झलक रहा था जो  किश्तवाड़ से शुरू होकर पूरे जम्मू क्षेत्र को अपनी चपेट में लेने वाली सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में असक्षम साबित होने पर मानसिक असंतुलन के रूप में सामने आ रहा है जब वह स्वयं को देश अन्य राज्यों, देशवासियों से अलग बता रहे हैं। विशेष दर्जे, देश की जनता से वसूले गए टैक्स का बहुत बड़ा भाग कश्मीर पर खर्च होने, मनमानी की छूट के बावजूद उनका यह आरोप लगाना कि  ‘कश्मीरियों से अलग तरीके से व्यवहार किया जाता है।  एकीकरण कानून बदलने, धारा 370 बदलने से नहीं बल्कि आप लोगों की हमारे प्रति सोच बदलने से होगा। कुछ लोग कहते हैं कि कश्मीर भारत का अंदरुनी मसला है। अगर यह आंतरिक समस्या होती तो तीन-चार बार जंग नहीं होती, शिमला समझौता नहीं होता। क्या पूरे देश में पहली बार दंगे हुए हैं, क्या किश्तवाड़ पूरे देश में अकेली ऐसी जगह है, जहां हिंदू-मुस्लिम फसाद हुए हैं। अन्य राज्यों  में हुए दंगों  क्या वहां देश के बड़े-बडे़ सियासी नेता गए, क्या वहां हुए दंगों पर संसद में हंगामा हुआ, किसी ने ट्वीट किया, अखबारों में लिखा, किसी ने जिक्र तक नहीं किया। जिस दिन अन्य राज्यों के बारे में भी उसी तरह लिखा जाएगा, उनके मामलों पर संसद में हंगामा होगा, मैं समझूंगा कि आप हमें बाकी देश से अलग नहीं मानते।’
जम्मू कश्मीर के हालात गवाही देते हैं कि उमर अब्दुल्ला से उनके राज्य और शेष देश ने जो आशाएं लगाई थी वह उन आपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे है। अपनी अक्षमता को शेष देश पर आरोप लगाकर ढकना उनके परिवार का पुराना दांव है। वरना उमर जैसे शिक्षित व्यक्ति की जानकारी और यादाश्त इतनी खराब नहीं हो सकती कि गुजरात में हुए 2002 के दंगों पर नित्य-प्रति होने वाले हंगामे की जानकारी उन्हें न हो। हाँ, यदि उनका अभिप्राय देश के बहुसंख्यक सम्प्रदाय के विरुद्ध हुए दंगों पर हंगामें से है तो उसे आंशिक रूप से सही माना जा सकता है। 
वह अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत में जितनी स्वतंत्रता और सुविधाएं अल्पसंख्यकों को प्राप्त हैं उतनी तो दुनिया के किसी देश में नहीं है। हमारा वह पड़ोसी देश जो कश्मीर को हड़पने के लिए हर  चाल चलता हुए न केवल हमारा बल्कि स्वयं का बहुत बड़ा अहित कर रहा है वहाँ अल्पसंख्यकों की दशा क्या  है, यह उमर अच्छी तरह जानते है। अतः अप्रत्यक्ष रूप से उमर जो कहना चाह रहे हैं उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।  इस देश का हर विवेकशील व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, सम्प्रदाय अथवा क्षेत्र से संबंध रखता हो उमर अब्दुल्ला से सहमत नहीं हो सकता लेकिन हमारे राजनैतिक दलो का मौन समझ से परे है। मुख्य राष्ट्रीय दलों का यह व्यवहार देश की एकता के लिए कठिन दौर की शुरुआत है क्योंकि कश्मीर भारत का मुकुट नहीं, मस्तक है। अगर  मुकुट गंवा कर भी इंसान जिन्दा रह सकता है परंतु मस्तक अलग होने के बाद जिन्दगी की कल्पना तक नहीं की जा सकती। सारी दुनिया में यह संदेश दिया जाना जरूरी है कि जब तक एक भी भारतीय जिन्दा है दुनिया की कोई ताकत कश्मीर को भारत से अलग नहीं कर सकती। 
यह स्मरणीय है कि आजाद कश्मीर का नारा देने वाले शेख अब्दुल्ला जोकि उमर अब्दुला के दादा थे, से तत्कालीन गृहमंत्री  आयंगर ने स्पष्टीकरण मांगा तो उनका उत्तर था, ‘मैं शेर-ए- कश्मीर हूं।’ इसपर नेहरू के साथी मंत्री आयंगर ने यह कहते हुए कि ‘शेर जंगल में रहते हैं या जंगले में।’ देशद्रोह के आरोप में उनकी गिरफ्तारी का आदेश दिया था। जेल में रहने के बाद उनकी सोच में आया बदलाव ही उन्हें मुख्यमंत्री पद तक ले गया था 
प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह ने अपनी पाकिस्तान यात्रा की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उनसे पूछा गया कि आप कश्मीर को हमें क्यों नहीं सौंपते? यह पूछने पर कि कश्मीर उन्हें क्यों सौंपा जाए तो प्रश्नकर्ता का तर्क था कि कश्मीर मुस्लिम बाहुल है, इसपर वे आपके साथ नहीं रहना चाहते तो आप उसे हमें क्यों नहीं देते? खुशवंत सिंह ने जब उसे पूछा कि अपने  तर्क के आधार पर क्या वे भारत  के शेष स्वधर्मियों को भी लेने के लिए तैयार हैं तो वह कोई उत्तर न दे सका। साथ रहने अथवा न रहने के जनमत संग्रह की मांग पर खुशवंत सिंह ने फिर प्रश्न किया, ‘बहुसंख्यक लोग आपको साथ रखने अथवा न रखने पर जनमत संग्रह चाहे तो  क्या उनकी मांग स्वीकार की जा सकती है?’ तो कश्मीर को हड़पने की इच्छा रखने वाले उस शख्स ने खिसकने में ही भलाई समझी। 
इतना ही नहीं, मुलायम सिंह ने पिछले दिनों कहा था कि एक बार फारुख अब्दुल्ला ने उनसे कहा था कि यदि वह पाकिस्तान के साथ जाते तो वहां के प्रधानमंत्री होते। इस पर मुलायम सिंह ने सावधान करते हुए कहा था, ‘प्रधानमंत्री होते तो अब तक फांसी पर भी चढ़ गए होते।’ अलगाववादी  तत्व कश्मीर में धर्मनिरपेक्षता, आज़ादी न होने का ढोल पीटते हुए कहते हैं कि हिंसा का कारण वहाँ सेना की उपस्थिति है। उन्हें कौन समझाए कि कि सेना की उपस्थिति अलगाववादी हिंसा के कारण है। सुधार लाओ तो सेना की जरूरत कहां रह जाएगी। उसे हटाने का एकमात्र तरीका अलगाववादी हरकते छोड़ना है। स्पष्ट है कि वे स्वयं शांति नहीं चाहते। शेष भारत की तरह कश्मीर में भी देश के हर नागरिक वहां बसने, जमीन- जायदाद खरीदने, व्यवसाय करने  का अधिकार क्यों नहीं है? उमर को कब समझ में आएगा कि यदि धारा 370 लागू न होती तो वहां देश के कारपोरेट घराने नए उद्यम स्थापित कर सकते थे, जिससे बेकारी कम होती और राज्य का आर्थिक विकास भी होता। आज काश्मीर को सुविधाओं और विकास की आवश्यकता है क्योंकि  विकास नई राहें खोलता है तो दिल दिमाग की खिड़कियां भी फड़फड़ाने लगती है। यही कश्मीर के दुश्मन होने नहीं देना चाहते। रेलवे लाईन बिछाने की शुरुआत हुई तो कुछ लोगों ने बंदूकें उठा ली। ऐसे लोगों को कोई बुद्धिहीन ही कश्मीर का शुभचिंतक कह सकता है। वे समझने को तैयार ही नहीं कि आतंक की भाषा स्वयं उनके लिए ही घातक है। आखिर यह उमर अब्दुल्ला की संवेदनहीनता नहीं तो और क्या है कि सदियों से कश्मीरी रहे कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा उन्हें विचलित नहीं करती है। जो अलगाववादियों से अपनी इज्जत और प्राण बचाने के लिए राज्य से पलायन को विवश हुए। उनके घरों और जायदाद पर अलगाववादी कुण्डली मारे बैठे हैं और कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बने धक्के खा रहे हैं।
उमर अब्दुल्ला यदि सचमुच ईमानदार है तो उन्हें भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में पहल करनी चाहिए। उन्हें समझना और समझाना होगा कि कश्मीर के हर अमन पसंद बाशिदे का हित भारत के साथ रहने में  है, न कि असुरक्षित, असंतुलित, अस्थिर पाकिस्तान के साथ जहां स्वयं उनका प्रधानमंत्री भी असहाय हो। क्या यह सच नहीं कि आज नवाज शरीफ की हैसियत प्रधानमंत्री से ज्यादा सेना के अधीन एक करिंदे से ज्यादा नहीं है जबकि उमर अब्दुल्ला एक राज्य के मुख्यमंत्री होकर भी देश और सेना के विरुद्ध बोलने के बावजूद सुरक्षित है। उनके पिता केंद्रीय मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण स्थान रखते है।
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