विवेक पर प्रश्नचिन्ह है अंधश्रद्धा --- डा. विनोद बब्बर AndhShradha

महाराष्ट्र में अंधविश्वास के विरूद्ध वर्षों से अभियान चला रहे डा. नरेंद्र दाभोलकर की पुणे में हत्या और  एक स्वयंभू ‘बापू’ के प्रति अंधश्रद्धा रखने वाली नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म की चर्चा हर जबान पर है। दाभोलकर का बलिदान व्यर्थ नहीं गया, महाराष्ट्र सरकार ने अध्यादेश जारी कर जादू-टोना, अंधविश्वास आदि को गैरकानूनी घोषित कर दिया है तो वह ‘बापू’ भी परस्पर विरोधी बातों और हरकतों के बाद कानून के शिंकजे में आ ही गया। ‘कानून अपना काम करेगा’ इस जुमले का इस्तेमाल अक्सर हमारे राजनेता करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि सब कुछ कानून ही नहीं करेगा, हमें भी तो कुछ करना चाहिए। क्या अंधविश्वास रोकने के लिए कानून हमारे पीछे लट्ठ लेकर घुमेगा? क्या विज्ञान के युग में भी हम पाषाण युग की सोच लेकर आगे बढ़ सकते हैं? यदि हाँ, तो क्या ऐसा करना हमारे व्यवहारिक ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता? 
श्रद्धा और विश्वास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह सत्य है कि विश्वास मानवीय विकास की महत्वपूर्ण कड़ी है। आदि मानव से सामाजिक प्राणी बनने की दास्तान विश्वास की मजबूत नींव पर खड़ी है। दुनिया का हर संबंध, वह पारिवारिक हो या व्यवसायिक, धार्मिक हो या सामाजिक विश्वास के अतिरिक्त आखिर है ही क्या? विश्वास पर हंसते-हंसते जिंदगी कट दी जाती है लेकिन अंधविश्वास जिंदगी को ही काट देता है। समाज की संरचना विश्वास पर टिकी है लेकिन अंध विश्वास असामाजिकता, अज्ञानता से खाद पानी पाता है। विश्वास प्रगति पथ पर आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ाता है लेकिन अंध विश्वास आत्महन्ता है। जिन्हें अपने पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं होता वे किसी चमत्कार की तलाश में राह भटक कर शातिर लोगों का आसान शिकार बन जाते हैं। कवच और ताबीज़, आत्माएं, काला जादू और झाड़-फूंक का प्रचलन सदियों से रहा है। हालांकि इस प्रकार के तौर-तरीके पिछड़ें समाजों में अधिक दिखाई देते हैं किंतु ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि आर्थिक रूप से समृद्ध समाज इनसे पूरी तरह मुक्त हैं। अनपढ़, पिछड़े लोगों की इस भूल को फिर भी समझा जा  सकता है लेकिन स्वयं को शिक्षित, साधन-सम्पन्न, चतुर घोषित करने वालों की बुद्धि पर पर्दा पड़ना विश्वास और श्रद्धा की परिभाषा बदलते हुए हमारे विवेक पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। आज के वैज्ञानिक युग में अंधविश्वासों से जुड़ी तमाम खबरें हमारी खोखली आधुनिकता की पोल खोलती नजर आती हैं। कथित आधुनिक और शिक्षित बड़े-बड़े लोग भी अंधविश्वासों की गिरफ्त से मुक्त होने में बेबस दिखाई देते हैं। 
धार्मिक आस्थाएं हमारी सांस्कृतिक धरोहर का प्रतिबिम्ब होती हैं लेकिन अंधविश्वास अतार्किक सोच का परिणाम है, जो किसी अनदेखे-अनजाने भय के साये में फलती-फूलती है। जो आम आदमी को शातिर लोगों के जाल में फंसाता है तो कभी-कभी जाने-अनजाने अपराधी भी बना देता है। कटु सत्य यह है कि अंधविश्वास एक ऐसी मानसिक व्याधि है जो दुनिया की किसी दवाई से दूर नहीं होती। अशिक्षित-अज्ञानी से शहरी ‘माडर्न लुक’ वाले ग्रहराशि के रत्न जड़ी  अंगुठियां पहनते है। एक  हाथ में दो-तीन नहीं, एक अंगुली में दो-तीन अंगुठियां पहनकर यह मानना है कि इससे बिना मेहनत के ही वे मालामाल हो जाएंगे। ये अंगुठियां पहनने वाले का भाग्य बदले, न बदले, पर पहनाने वालांे का भाग्य अवश्य बदल देती हैं। आखिर किस दिन हमें समझ में आएगा कि श्रद्धा अच्छी बात है, अश्रद्धा भी चलेगी लेकिन अंधश्रद्धा अंधेरे रास्ते पर, अंधेरे कुएं में छलांग लगाना है, जो हमारे समाज को धीरे-धीरे खोखला कर रही है। ऐसा भी नहीं है कि केवल हिन्दू ही अंधविश्वास के जाल में फंसते हो,  मुल्ला मौलवी भी यही सब करते हैं। मजारों पर झाड़-फूंक की आड़ में उनका धंधा खूब जमता है। आज तो लगभग हर पत्र-पत्रिका में  बंगाली बाबा, इस या उस बाबा के विज्ञापन देखे जा सकते हैं जो व्यवसाय में सफलता, वशीकरण, प्यार में असफलता, निराशा से मुक्ति के दावे करते है। हर नगर-कस्बे में जाल बिछाये बैठे ये बाबा, पीर, तांत्रिक महिलाओं को अपने जाल में फंसाने के लिए  संतान प्राप्ति, पति वशीकरण, धन प्राप्ति के झांसे देते हैं। अधिकांश अपनी जमा पूंजी भी लुटा बैठती हैं तो अनेक महिलाएं यौन शोषण तक की शिकार हो जाती हैं। 
आश्चर्य है कि कुछ लोग अपनी लच्छेदार बातों से दूसरों को इतना वशीभूत कर लेते हैं कि उनके नासमझ अनुयायी उन्हें ‘भगवान’ घोषित करने लगते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि मानवीय जीवन की कसौटी भगवान नहीं, इन्सान बनना है। भारतीय जीवन दर्शन साक्षी है हमारे मनीषियों ने जिस जीवन पद्धति को मान्यता दी है उसमें किसी व्यक्ति विशेष के प्रति जरूरत से ज्यादा श्रद्धा अथवा उसे ‘भगवान’ मानने को स्थान नहीं  है। मनुष्य में देवत्व का विकास हो, यह आपेक्षा जरूर की जाती है लेकिन स्वयं को देव घोषित करने वाले अस्वीकार्य है। यदि हम मूर्ति पूजक है तो उसका अभिप्राय यही है कि किसी महामानव के चरित्र को स्वयं में धारण करने के लिए उसके चित्र की पूजा और यदि हम यज्ञ पद्धति को मानते है तो भी हमें अग्नि से प्रेरणा लेने और अद्वैत के उपासक है तो भी, खालसा पंथ के अनुयायी तो भी ‘गुरु मानियो ग्रन्थ’ के रूप में व्यक्ति पूजा अर्थात भगवान मानने की स्पष्ट मनाही है। कारण स्पष्ट है- मनुष्य में कभी किसी परिस्थिति विशेष में विकार पैदा हो सकता है अतः उसकी पूजा करने की बजाय ‘परब्रह्म’ की उपासना करनी चाहिए। वरना हम जब भी  विचलित होगे कोई बहरूपिया हमें छल लेगा। 
आज धर्म का जैसा स्वरूप है उसपर भी हमारे चिंतकों को विचार करना चाहिए। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, तथाकथित दूरदर्शनी संतों के आश्रम क्या उनकी बपौती हैं? क्या धर्म आम आदमी के जीवन को और बेहतर बनाने का नाम नहीं है? क्या हर पूजास्थल पर चढ़ावे के रूप में आने वाला धन जनता का नहीं है? यदि हाँ, तो उस धन से जनता की भलाई के लिए औषधालय, पुस्तकालय, विद्यालय नहीं खुलने चाहिए? वैसे अनेक हिन्दू धर्मस्थल इस दिशा में बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। दिल्ली के अनेक आर्यसमाजों में धर्मार्थ सेवा केन्द्र चल रहे हैं तो कुछ सनातन धर्म मंदिर भी इस दिशा में अच्छा कार्य कर रहे हैं। जरूरत है शेष मंदिर, मस्जिदों को भी मानवता की सेवा को श्रेष्ठ धर्म कार्य मानते हुए कार्य आरंभ करना चाहिए। देश के सभी बाबाओं द्वारा एकत्र सम्पत्ति  ट्रस्ट के हवाले कर मानव सेवा कार्यों में लगाई जाना चाहिए। बाबा, कथा वाचक को अपनी अति आवश्यक जरूरतों के लिए ही नाम मात्र का धन लेने का अधिकार है। यदि वे इस धन से अय्याशी करते हैं तो वे  घोर पाप के अधिकारी तो हो सकते हैं, श्रद्धा के नहीं। यह सर्वविदित है कि विश्वास का पर्याय है ट्रस्ट। ये बाबा जनता की श्रद्धा से प्राप्त निधि के स्वामी नहीं, ट्रस्टी हैं। यदि उनकी चादर दागदार होती है तो उसके दाग मुक्त होने तक उन्हें स्वयं को उस सम्मान और श्रद्धा से दूर कर लेना चाहिए। 
वर्षों पूर्व एक ‘असंत’ से मुलाकात की चर्चा करना सामयिक होगा। हिमतनगर गुजरात के एक संत अपने सभी संसाधन समाज हित पर कुर्बान करते हैं। भाषा, साहित्य से बेटी बचाओं तक के लिए जनजागरण करने वाले उसी संत द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम की पूर्व सन्ध्या पर एक पट्टाधारी ‘संत’ का तामझाम और रूतबा देखकर मैंने उनसे उनकी गतिविधियों के बारे में पूछा। उन्होंने अपने पास सैंकड़ों एकड़ जमीन, हजारों लाखों भक्तों, दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं सहित प्रतिदिन की गतिविधियों की जानकारी दी। मैंने फिर पूछा- स्थानीय लोगों से आपके संबंध कैसे हैं? इसपर उनका जवाब था- ‘स्थानीय लोग अच्छे नहीं है।’ इस बार मेरा प्रश्न, ‘आपके आश्रम में आने वाली गाड़ियों के धुएं और धूल के अतिरिक्त आपके आश्रम से स्थानीय लोगों को और क्या प्राप्त होता है।’ सुनते ही वह भड़क उठे, ‘हम उन्हें कुछ क्यों दें? हम तो चाहते हैं उन्हें भूत लगे, बीमारी लगे!’ मैंने भी उसी तेवर में फिर प्रश्न किया, ‘हमारी मातृशक्ति जो अपने बच्चों का पेट काटकर, स्वयं कष्ट सहकर भी आपके चरणों में  कुछ न कुछ रखती है क्या आप उसका अपमान नहीं कर रहे हैं? यदि आपकी सोच सचमुच ऐसी है तो लानत है आपके ज्ञान और भक्ति पर! वे महामूर्ख है जो आपके प्रति श्रद्धा रखते हैं!’ इतना सुनकर वह तो खामोश रहे लेकिन उनका एक अंध समर्थक गाली-गलौच पर उतर आया। सच ही तो है जब तर्क समाप्त हो जाता है तो स्वयं को साधु कहने वालों की शालीनता पीछे छूट जाती है। जैसाकि ताजा मामले में ‘बाबा’ के चन्द बुद्धिशत्रु समर्थक गाली-गलौच पर उतारू हैं। ऐसे लोग आसानी से नहीं सुधरते। 
विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि राजनीति में परिवारवाद जहर है तो क्या बाबाओं का परिवारवाद अमृत है? जिस ‘बाबा’ को अपने लाखों शिष्यों में केवल निज पुत्र ही योग्यतम उत्तराधिकारी दिखाई देता हो तो क्या वह स्वयं ही अपने तमाम शिष्यों को नासमझ घोषित नहीं कर रहा है? स्वार्थी संत और साधारण इंसान की सोच यदि एक समान मोह-ममता के इर्द-गिर्द ही मंडराती रहेगी तो अध्यात्म का अर्थ क्या है? ऐसे में कौन बाबा? कैसा बाबा? तब श्रद्धा क्यों-कैसी? और अंत में जापान की चर्चा जहाँ बौद्ध मत को माना जाता है। वहाँ बच्चों को सिखाया जाता है कि बुद्ध माता-पिता, बहन-भाई, मित्र-सखा से पहले हैं। लेकिन वही बुद्ध अगर जापान पर हमला कर दें तो हम उनका सिर काट देंगे। अर्थात् राष्ट्रधर्म हर धर्म से बड़ा है। धन्य है ऐसी सोच! क्या उस छोटे से देश से हम कुछ सीख लेगे या सीख देने का कार्य केवल ‘बाबाओं’ के जिम्मे ही रहेगा? (लेखक साहित्यकार एवं पूर्व प्रधानाचार्य हैं )
विवेक पर प्रश्नचिन्ह है अंधश्रद्धा --- डा. विनोद बब्बर AndhShradha विवेक पर प्रश्नचिन्ह है अंधश्रद्धा --- डा. विनोद बब्बर AndhShradha Reviewed by rashtra kinkar on 20:58 Rating: 5

1 comment

  1. एक विचारोत्तेजक लेख ! मैं समझता हूँ जिन लोगों ने फिल्म PK को पसंद किया है, उन्हें यह जरूर ही पसंद आयेगा। अवश्य ही पढ़ें और चिंतन करें।

    ReplyDelete