पाकिस्मान और चीन के संदर्भ में भारत की विदेश नीति ---डॉ. विनोद बब्बर
स्वतंत्रता पश्चात भारत की विदेश नीति का आधार पंचशील को माना गया। यह शब्द ऐतिहासिक बौद्ध अभिलेखों से लिया गया है। अतः विश्वशांति की स्थापना के लिए पारस्परिक सहयोग के पाँच सिद्धांत तय किये गये जो इस प्रकार हैं-,
- एक दूसरे की अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना
- एक दूसरे के विरुद्ध आक्रामक कारवाई न करना
- एक दूसरे के आंतरिक विषयों में हस्तक्षेप न करना
- समानता और परस्पर लाभ की नीति का पालन करना तथा
- शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति में विश्वास रखना।
वास्तव में यह सिद्धांत हमारी संस्कृति का सूत्र हैं जो वासुधैव कुटम्बकम् का उद्घोष करती है। इतिहास साक्षी है कि हमने कभी भी किसी देश पर हमला नहीं किया। हमारे पूर्वज सह अस्तित्व की अवधारणा में विश्वास रखते थे। लेकिन विश्व युद्धों के बाद की दुनिया इतनी सरल न थी। द्विध्रुवी दुुनिया शीतयुद्ध की चपेट में रही है लेकिन हम ‘गुटनिरपेक्षता’ के पक्षधर रहे। अनेक कठिनाईयां सहकर भी हम अपने मार्ग से विमुख नहीं हुए। यही कारण है कि सारी दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय से ही भारत के दृष्टिकोण को सम्मान प्राप्त रहा है। विश्व में कहीं भी तनाव हो, हमारी शांतिसेना मदद के लिए सबसे आगे रही है।
सोवियत संघ ( वर्तमान रूस) के साथ हमारे मजबूत सामरिक संबंध एव सांस्कृतिक संबंध रहे है, लेकिन बदलते समीकरणों के दौर में न तो विश्व द्विध्रुवी रहा और न ही रूस इस स्थिति में रहा कि वह विश्व कूटनीति को प्रभावित कर सके। गुटनिरपेक्षता अपना महत्व खो चुकी है क्योंकि वैश्विकरण के इस दौर में संबंधों का आार्थिक मूल्यांकन होने लगा। कूटनीति युद्ध की बजाय व्यापार पर अधिकार करने का कार्य करने लगी परंतु विदेश नीति का महत्व कम नहीं हुआ। एक पश्चिमी कूटनीतिज्ञ के अनुसार ‘भारत को उसके पश्चिमी सहयोगी भी एक ताकतवर देश मानते हैं। लेकिन उसके आस पड़ोस में जो कुछ हो रहा उससे भारत की छवि एक कमजोर कूटनीतिक देश की बन रही है।’
भारत सदैव ही पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंधों का पक्षधर रहा है लेकिन अतिविनम्रता की हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी। जून, 1954 को चीन के प्रधान मंत्री श्री चाऊ एन लाई की भारत यात्रा की समाप्ति पर जारी संयुक्त विज्ञप्ति में दोनों प्रधानमंत्रियों ने अंतरराष्ट्रीय व्यवहार और सहअस्तित्व के आवश्यक सिद्धांतों के रूप में पंचशील के सिद्धांतों की व्यापक घोषणा एवं मान्यता की। लेकिन 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण सें इस संधि की मूल भावना को तार-तार कर दिया। हमारी हजारों एक़ भूमि आज भी चीन के कब्जे में है। वह सीमा विवाद को जानबूझकर उलझाये रखने की नीति में विश्वास रखता है ताकि समय-समय पर हमारी दुखती नस को दबा सके।
अब यह तथ्य कोई रहस्य नहीं रहा कि चीन हमें चारों ओर से घेरने का प्रयास कर रहा है। पाकिस्तान तो पहले से ही चीन के कहने पर चल रहा है। चीन ने उसे परमाणु बम टेक्नोलॉजी दी। हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि न केवल सीमा पर बल्कि इस पूरे उपमहाद्वीप में चीन हमारे लिए एक प्रबल चुनौती बन रहा है। इस क्षेत्र में सभी छोटे बड़े देशों को भारत के विरोध में खड़े करने में यदि चीन सफल होता है तो देर या सबेर हमें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। पाकिस्तान के बाद श्रीलंका, म्यांमार और मालदीव में चीन अपना प्रभाव बढ़ाने की कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। बेशक हम उसे रोक भी नहीं सकते लेकिन यह सुनिश्चित करना हमारी विदेश नीति का प्रथम दायित्व होना चाहिए कि बढ़ता चीनी प्रभाव भारत-विरोध न बने।
हमारी पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान सदा ही समस्या बना रहा। वास्तव में वह पने आस्तित्व को ही भारत विरोध की नींव पर टिका हुआ देखता है इसीलिए तीन युद्धों के बाद सीमा-पार से आंतकवाद को बढ़ावा देकर भारत को अस्थिर करने की पाकिस्तानी नीति जारी है। पाकिस्तान में लोकतंत्र की असफलता को इसका एक कारण माना जा सकता है लेकिन शासक बदलने के बाद भी स्थिति जस की तस बने रहना न केवल इस उपमहाद्वाीप के लिए बल्कि सम्पूर्ण विश्व की शांति के लिए खतरा है । पाकिस्तान के परमाणु बमों से कोई सिरफिरा शासक कभी भी आत्महंता बन विश्व शांति के लिए खतरा बन सकता है इसलिए भारत पर जरूरत से ज्यादा धैर्य का दबाव है।
यदि व्यवहारिक रूप से आंकलन करें तो पाकिस्तान के संबंध में हमारी नीति आरंभ से ही भटकाव की राह पर रही है। हमारी नसमझाी के कारण ही तो कश्मीर विवाद का मुद्दा बना। लाहौर जीतकर भी हम कश्मीर का मुद्दा नहीं सुलझा सके और न हीं हम पाक अधिकृत कश्मीर पर आक्रमण रणनीति दिखाते हैं। हमारी निष्प्रभावी विदेश नीति का परिणाम है कि न तो हम पाकिस्तान को अफगान मामले में प्रभावित कर पा रहे हैं और न ही भारत-विरोधी आतंकवाद के मार्ग पर चलने से रोक सके हैं। बेशक मुंबई हमलों की विश्वभर में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने निंदा की। हमने पाकिस्तान संलिप्ता के ठोस सबूत सारी दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किये परंतु पाकिस्तान पर उसका रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ा। हाल ही में सीमा पर युद्धविराम का उल्लंघन, हमारे सैनिकों के सिर काटकर ले जाने की घटनाएं इसके ताजा प्रमाण हैं। वर्षों पहले हम जहाँ खड़े थे, एक इंच भी आगे बढ़ने में सफल नहीं हुए है। आश्चर्य यह है कि इसके बावजूद संबंधों में सुधार की रट जारी हैं।
सार रूप में कहे तो भारत को इस मोर्चे पर सतत जागरूकता की आवश्यकता है। विदेश नीति, विशेष रूप से पड़ोसी देशों के प्रति हमारे दृष्टिकोण पर राष्ट्रीय सहमति होनी चाहिए क्योंकि चीन एक प्रबल तचुनौनी बनकर उभरा है। जरा सी चूक हमें गहरी टीस दे सकती है। चीन से व्यापार के मामले में भी सावधानी की आवश्यकता है। सस्ते चीनी उत्पादों से पटते भारतीय बाजार जहां हमारी अर्थव्यवस्था को चौपट कर रहे हैं वहीं इनपर निर्भरता हमारे राष्ट्रीय हितों के लिए घातक होगी। सीमाओं की सुरक्षा केवल सेना का दायित्व नहीं है, कूटनीतिज्ञों को भी मशक्कत करनी पड़ती है इसके लिए आवश्यक है कि हमारी नीति अनावश्यक विनम्र और सुस्त नहीं होनी चाहिए।
पाकिस्मान और चीन के संदर्भ में भारत की विदेश नीति ---डॉ. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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23:09
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