सोचो आखिर कब सोचोगे?-- डा. विनोद बब्बर
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में फैली सांप्रदायिक हिंसा हर अमनपसंद भारतीय को बेचैन कर रही है। यह आग हमारे समाज और हमारी सरकार के सभ्य होने पर प्रश्नचिन्ह है। आखिर उन्हंे असभ्य नहीं तो और क्या कहा जाए जो केवल अपने दृष्टिकोण को ही सही मानते हैं। भारतीय मनीषा के अनुसार केवल वह व्यक्ति ही स्वयं को धार्मिक कहलाने की पात्रता रखता है जो ‘सर्वत्र’ के मंगल की कामना करता हो। यदि कोई दूसरे किसी मत को सहन नहीं कर सकता उसे धार्मिक हर्गिज नहीं कहा जा सकता। आत्मकेन्द्रित व्यक्ति अथवा समाज किसी धर्म का नहीं, बल्कि किसी संगठित गिरोह का अंग हो सकता है। दुनिया का कोई भी धर्म प्रदर्शन नहीं आत्मदर्शन है। अच्छा होकि धर्म हमारे मन, व्यवहार के बाद घर और पूजा-उपासना स्थल तक सीमित रहे।
भारत सदियों से हर धर्म, हर मत और विश्वास के लिए स्वर्ग रहा है। दुनिया के सभी धर्माे के लोग भारत आए तो हमने बाहे फैलाकर उनका स्वागत किया। हमने कभी किसी पर अपने धार्मिक विश्वास थोपने की कोशिश नहीं की। इस देश के मूल धर्म और विश्वास ने बेशक धोखा सहा हो लेकिन किसी के साथ धोखा किया नहीं। भारत की पहली मस्जिद और पहला गिरजाघर एक हिन्दू ने ही बनवाये थे। आज भी सूफी संतों के उर्स और मजारों पर जाने वालों में अधिकांश हिन्दू ही होते है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा चमनिस्तान है जहां हर रंग के फूल अपनी खूश्बू बिखेरते है। परंतु दुःखद आश्चर्य तब होता है जब हमारे वे राजनीतिज्ञ जो स्वयं को धर्मनिरपेक्षता को सबसे बड़ा ठेकेदार मानने हैं, स्वयं उन्हें ही धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा तक नहीं मालूम। जहाँ तक धर्मनिरपेक्ष का सवाल है, इसका व्यवहारिक अर्थ है ‘राज्य का धार्मिक मामलों में निरपेक्ष रहना।’ आखिर एक हिन्दू मंदिर जाकर अपने ढंग से पूजा करे और एक मुसलमान मस्जिद में जाकर नमाज पढ़े, रोजा रखे, ईद मनाये, अपने बच्चों की खुशहाली के लिए कोई भी वैध काम धंधा करे इसपर किसे एतराज हो सकता है। एक ईसाइ चर्च जाये, बाईबल पढ़ें, इशु- मरियम कें गीत गाए। सिख, बौद्ध, जैन और अन्य धर्मावलम्बी अपने पारंपरिक ढंग से पूजा उपासना करंे। यहाँ तक कि नास्तिक भी अपने विश्वास के साथ जिये बशर्त कि वह दूसरों पर अपनी मान्यताएं लादे नहीं। सरकार भी किसी भी सम्प्रदाय के प्रति न तो कठोर हो और न ही अनावश्यक उदार। बस यही सीधी सरल सी बात धर्म निरपेक्षता होनी चाहिए लेकिन इतने भर से नेताओं के पाप छिपने वाले नहीं है इसलिए वे हर्मदर्दी का ढ़ोंग करने लगते हैं। वेे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भ्रम उत्पन्न करते है। ऐसे लोगों के दिल में कोई सम्प्रदाय विशेष अथवा समाज या राष्ट्र नहीं, केवल और केवल अपनी कुर्सी की सलामती होती है। विडम्बना तो यह है कि जो स्वयं अपने धर्म के वफादार नहीं, मानवता- समानता का अर्थ नहीं जानते और न ही जानना चाहते हैं वे सम्पूर्ण समाज को धर्मनिरपेक्षता समझाते है।
मैं जिस धर्म को सही मानता हूँ उसपर चलूँ और आप अपनी सोच आस्था को सही माने, इसमें विवाद की कोई गुंजाइश ही कहाँ है? झगडा तो तब है जब मैं यह घोषणा करूं कि ‘मेरी ही चलेगी क्योंकि केवल मैं सही हूँ, केवल मेरा विश्वास ही सही है। मेरी बात मानो, नहीं तो इस दुनिया में रहने का हक़ नहीं है।’ ऐसी सोच वाले धर्म नहीं धर्मांधता हैं और हमें हर ऐसे शख्स के खिलाफ आवाज उठानी होगी जो ऐसा करते हैं। धार्मिकता के साथ तो रहा जा सकता हैं लेकिन धर्मान्धता के साथ रहना मुश्किल नहीं असंभव है।
आखिर अपनी सारी ऊर्जा एक खास वोट बैंक बनाने और उसे मजबूत करने में लगाने वालों को क्या कहा जाए? यह संतोष की बात है कि समाज समझ रहा है कि ऐसे तत्व किसी ‘समाज’ विशेष के शुभचिंतक नहीं बल्कि स्वार्थी हैं जो ध्रुवीकरण का माहौल बनाकर उन्हें इस्तेमाल करना चाहते है। ऐसे में यह समाज की जिम्मेवारी है कि दल विशेष का मोहरा बनने से स्वयं को बचाये। आखिर अपनी असफलता को ‘सांप्रदायिक हिंसा’ और ‘जातीय संघर्ष’ जैसे शब्दजाल में उलझाने वाले अपनी प्रशासनिक जिम्मेवारी क्यों नहीं पूरी कर सके, इस प्रश्न पर उनका मौन उनका अपराध बताता है। यह बेहद पीड़ादायक है कि खुद को सांप्रदायिक शक्तियों का मुकाबला करने वाले मसीहा के रूप में पेश करने वाले समझने को तैयार नहीं है कि उसकी नीयत और नीति ही सांप्रदायिकता को खाद-पानी देने का काम कर रही हैं।
धर्मनिरपेक्षता को सलामत रखने का दायित्व इस देश के आम नागरिक का है, क्योंकि उसे अपने धर्म को उन रूढ़ियों से मुक्त करना है जो उससे चिपक गए हैं। उन तत्त्वों को खोजना होगा जो उन्हें दूसरे धर्मों के लोगों के साथ सह-अस्तित्व की प्रेरणा देते हों। जहां तक सम्पूर्ण समाज के विवेक पर प्रश्नचिन्ह का प्रश्न है, हमें इसका उत्तर अवश्य खोजना होगा कि जिस देश में धर्म और नैतिकता की दुहाई दी जाती हो, जिस समाज में धार्मिक शिक्षा राष्ट्रीय स्वीकृत पाठयक्रम पर भारी हो, उसके युवा नैतिक मूल्यों का महत्व न सकझे तो उसे आखिर क्या कहा जाए? छेड़खानी कहीं भी हो, निंदनीय है। ऐसा करने वालो को कड़ी सजा मिलनी चाहिए लेकिन किसी को कानून को अपने हाथ में लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती। लेकिन जब प्रशासन पक्षपात अथवा निष्क्रियता दिखाये तो लोग स्वयं निर्णय करने की दिशा में बढ़ते है। यह अराजकता ही तो है वरना पंचायत और उसके बाद लौटते लोगों पर हमले का औचित्य क्या है? तनाव की सूचना के बाद भी सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम न करने वाली सरकार को बेकार न कहा जाए तो आखिर और क्या कहे?
यह वैश्विक सत्य है कि समाज का प्रत्येक आदमी सही बात को सही और गलत को गलत समझता है। सभी शांति और न्याय को अच्छा और दंगे-फसाद और खून खराबे को बुरा कहते हैं। इसके बावजूद लोग शांति भंग करते हैं और दंगा करते हैं और खून बहाते हैं। सवाल यह नहीं है कि इसने ज्यादा बहाया या उसने ज्यादा बहाया और न ही यह सवाल है कि पहला वार किसने किया और और किसने पलटवार किया। असल में सवाल यह है कि जिसने भी किया, क्यों किया ? देश में स्थायी शंति और लगातार विकास के लिए जरूरी है कि हम सब एकस्वर और बुलंद आवाज कहें कि यह देश किसी एक मुलायम, आजम, माया, मोदी, राहुल या नीतीश का नहीं है बल्कि यहां रहने वाले करोड़ों लोगों का है। हमंे गर्व होना चाहिए कि आजादी के बाद जब पाकिस्तान मंे अल्पसंख्यक हिन्दू लगातार सिकुड़ते रहे पर हमारे हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी सम्प्रदाय लगातार फलते-फूलते रहे है। आज जरूरत है हम सबसे पहले अपने राष्ट्र धर्म का पालन करें। निज धर्म, निज कर्तव्य, राज धर्म, प्रशासानिक कुशलता, शेष सभी धर्माे का सम्मान राष्ट्रधर्म का हिस्सा है। यदि हम केवल अपने धर्म को ही श्रेष्ठ बताते रहे और शेष दुनिया को उसके झण्डे तले लाने की सोच से ऊपर नहीं उठ सके तो यह तय है कि एक दिन हमारा खुद का आस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। क्या धार्मिक स्वतंत्रता असीमित होती है? क्या ऐसे कदमों से सद्भावना कायम रह सकती है? क्या सद्भावना बनाए रखना किसी एक पक्ष की जिम्मेवारी है? वर्तमान परिपेक्ष्य में हमें चिंतन करना चाहिए। ठीक ही तो कहा है हमारे मित्र डा. नवाज देवबंदी ने-
गर हम, बरहम दोनों सोचे ,मिलजुल कर हम दोनों सोचे।
जख्म का मरहम दोनों सोचे, सोचे पर हम दोनों सोचे।
घर जलकर राख हो जाएगा, जब सब कुछ खाक हो जाएगा,
तब सोचोगे? सोचो आखिर कब सोचोगे।
कैसी बदबू फूट रही है, पत्ती-पत्ती टूट रही है।
फूलों से नाराज हैं कांटे, गुल से खुशबू लूट रही है।
खुशबू रुखसत हो जाएगी, बाग में वहशत हो जाएगी।
तब सोचोगे? सोचो आखिर कब सोचोगे।
नन्हीं बाहें चींख रही हैं, सूनी राहें चींख रही हैं।
कातिल अपने हम साए हैं, मां की बाहें चींख रही हैं।
रिश्ते अंधे हो जाएंगे, गूंगे बहरे हो जाएंगे।
तब सोचागे? सोचो आखिर कब सोचोगे।
टीपू के अरमान जले हैं, बापू के एहसान जले हैं।
गीता और कुरान जले हैं, हद ये हैं इंसान जले हैं।
हर तीरथ स्थान जलेगा, सारा हिंदुस्तान जलेगा।
तब सोचोगे? सोचो आखिर कब सोचोगे।
सोचो आखिर कब सोचोगे?-- डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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