भावनाओं से नहीं, विवेक से निर्णय की जरूरत-- डा विनोद बब्बर

गत दिसम्बर में दिल्ली में निर्भया मामले में न्यायालय ने वही फैसला दिया जिसकी सारा देश आस लगाये था। इस मामले में सबसे ज्यादा क्रूरता दिखाने वाला मात्र कुछ दिन आयु कम होने के कारण नाबालिकता का लाभ उठाते हुए लगभग बच निकला लेकिन शेष चारों जिंदा दोशियों के प्रति न्यायालय ने कोई रियायत न बरतते हुए फांसी की सजा सुनाई है। इस अमानुशिक कृत्य ने सारे देश को आंदोलित कर दिया था इसलिए अदालत के फैसले पर भी राश्ट्रव्यापी चर्चा होना स्वाभाविक ही है। 
दोषियों को फांसी का सर्वत्र स्वागत हो रहा है। नारी को देवी कहे जाने वाला समाज नारी का अपमान आखिर कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। यह दुःखद है कि इस मामले में दोषियों के वकील ए. पी. सिंह का एक टीवी चैनल में दिया  बयान बहस को दूसरा मोड़ दे रहा है।, वकील साहिब ने फरमाया है, ‘गैंग रेप पीड़िता रात में 11 बजे अपने बॉयफ्रेंड के साथ क्या करने गई थी? अगर मेरी बेटी या बहन ऐसा करती तो मैं सरेआम पेट्रोल डालकर उसे जला देता।’ वकील ंने फांसी को  दबाव में दिया गया फैसला बताया। वह परम्परागत समाज के पक्षधर हैं जहां नारी का पुरुष के बिना कोई आस्तित्व नहीं है। अनेक संगठनों ने प्रोफेशनल कदाचार की श्रेणी के उनके इस बयान को ध्यान में रखते हुए बार काउंसिल ऑफ इंडिया सेे  ए. पी. सिंह का लाइसेंस रद्द करने की मांग करते हुए फैसले पर उंगली उठाते हुए सीधे-सीधे अदालत की अवमानना घोषित किया है।
यह सत्य है कि किसी भी अन्य वकील की तरह उन्हें अपने मुवक्किलों को बचाने के प्रयास का पूरा अधिकार है लेकिन अपने व्यवसायिक असफलता अर्थात् अपने मुवक्किलों को न बचा पाने की खीज में उन्होंने एक सही बात को बहुत गलत ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। बेशक उनका यह कथन, ‘शादी से पहले सेक्स संबंधों के पक्षधरों को समाज में दुराचार के बढ़ने की जिम्मेवारी स्वीकारनी चाहिए। इस सोच के साथ हमें इस तरह के रेप और दुराचारों के लिए मानसिक रूप से तैयार होना होगा। शादी से पहले सेक्स जायज तो फिर शादी का उद्देश्य क्या रहेगा?’ सही है लेकिन लड़की को जिंदा जलाने वाली मानसिकता का प्रतिकार होना ही चाहिए। 
 दूसरी ओर स्वच्छंदता को स्वतंत्रता का पर्याय बताने वाले भी उस वकील का विरोध करते हुए नारी स्वतंत्रता की जिस प्रकार की परिभाशाएं प्रस्तुत कर रहे हैं उसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसे लोग विवाह की अवधारणा को ही अस्वीकार करते है। उनकी दृष्टि में विवाह परतंत्रता का प्रतीक है।  ऐसे ही लोग ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के पक्षधर है जिसे अपनी सुविधानुसार  जब चाहे बनाया अथवा समाप्त किया जा सकता है।  इस तरह निर्भया मामले का निपटारा  दो अतिवादी अवधारणाओं की मुठभेड़  का मार्ग प्रशस्त कर रहा है जिसमें इस देश की संस्कृति के लिए कोई स्थान नहीं है अतः दोनो अतियों को नकारा जाना चाहिए।
भारतीय संस्कृति सदा से ही नारी सम्मान की पक्षधर है। यही दुनिया की एकमात्र संस्कृति है जहाँ समयानुसार परिवर्तन की गुंजाइश है वरना अनेक सम्प्रदाय आज भी अठारहवीं सदी की सोच से उभर नहीं सके है। आज हमारी मातृशक्ति जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के कंधे -से-कंधा मिलाकर कार्य कर रही है। राजनीति हो या प्रशासन, विज्ञान हो या सेना, कला-साहित्य हो या तकनीकी विशेषज्ञता। यहां तक कि वकालत और न्याय के क्षेत्र में भी बहुत बड़ी संख्या में महिलाएं अपनी प्रतिभा और योग्यता के माध्यम से राष्ट्र की उन्नति में अपना योगदान कर रही हैं। समय, काल, परिस्थिति ने हमारे जीवन में अनेक सहज परिवर्तन किये है, विवाह भी उन्हीं में से एक है। आज पुरानी मान्यताओं में परिवर्तन को काफी हद तक स्वीकार कर लिया गया है लेकिन यौनशुचिता को लेकर हमारे समाज के दृष्टिकोण में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। स्पष्ट है कि नैतिक मूल्यों से समझौता करने की प्रवृति को समाज स्वीकार करने को तैयार नहीं है जबकि महानगरों में नैतिकता का ग्राफ लगातार रसातल की ओर जा रहा है। पार्को और विश्वविद्यालय की चर्चा न भी करें तो दिल्ली की लाइफलाईन बन चुकी मेट्रो में जिस तरह का वातावरण है उसे देखकर सिर शर्म से झुक जाता है। आखिर खुलेआम आलिंगन, चुम्बन को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? इससे पूर्व यू-टयूब पर मैट्रो में बनी अष्लील विडियों का मामला भी सामने आ चुका है। केन्द्रीय विद्यालय एक सूत्र के अनुसार उन्हें आदेश है कि वे युवा बच्चों के व्यक्तिगत संबंधों और भावनाओं की अनदेखी करें। बच्चों को किसी प्रकार की सलाह अथवा उपदेश न दिया जाए। आखिर यह सब क्या है? आखिर यौन शुचिता को नकारा नहीं जा सकता। 
बेशक यौन जीव की दैहिक आवश्यकता और संसार के संचालन के लिए आवश्यक माना गया है लेकिन इसे व्यक्ति का गोपनीय अथवा एकान्तिक मामला माना गया है। तभी तो दुनिया भर में नग्न रहने को अश्लीलता और अपराध की श्रेणी में रखा गया है। यह वैश्विक मान्यता है कि काम का सार्वजनिक प्रदर्शन समाज में विकष्ति बढ़ाता है। कौन नहीं जानता कि ‘शादी का उद्देश्य क्या है लेकिन  क्या कभी किसी ने अपने पुत्र- पुत्रवधु को आंगन अथवा चौराहे पर शैय्या बिछाकर प्रथम मिलन की सलाह दी है? स्पष्ट है कि समाज में कुछ अघोषित नैतिक नियम हैं। बड़े से बड़ा प्रगतिशील भी जो दूसरों को बेशक उकसाता हो लेकिन स्वयं अपने परिवार में इनके उल्लंघन की कामना नहीं करता क्योंकि उसका मन-मस्तिष्क भी स्वीकारता है कि नियमों का अभाव विसंगति पैदा करता है जिससे अव्यवस्था, अराजकता और असामान्यता उत्पन्न होकर व्यक्तित्व विघटन होता है। इस अवधारणा को पश्चिम के मनोवैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं।
 यह नैतिकता का अधोपतन है कि खुलेपन को आधुनिकता का पर्याय बताते हुए नंगेपन के पक्षधर पूरी शक्ति से सक्रिय है। आज जो प्रेम के नाम पर जो प्रदर्शन दिखाई दे रहा है उसका आधार प्रेम(लव) नहीं, वासना (लस्ट) है जो अंततः मन में एक अपराधबोध उत्पन्न करता है। जब उनकी वासना का भूत उतर जाता है, असुरक्षा की भावना उन्हें अपनी ही नजरों में गिरा देती हैं जिससे उनका गृहस्थ जीवन शंकाओं से भर जाता है। उन्हें सदैव डर बना रहता है कि कहीं इतिहास का कोई पुराना पन्ना न खुल जाय। फिर सबसे बड़ा प्रष्न है कि इन अनैतिक संबंधों से उत्पन्न संतानों का भविष्य क्या होगा? क्या पश्चिम की तरह यहां भी असामान्य बच्चों की फौज बढ़ेगी और बाल अपराधियों की संख्या भी? एक ओर तो हम 18 वर्ष से कम आयू के बच्चों से कार्य करवाने को बाल श्रम कानून का उल्लंघन बताते हैं तो दूसरी और समय से पूर्व किशोर छात्रों को ऐसे संबंधों की छूट देकर आखिर किसी समझदारी का परिचय दे रहे हैं? क्या उनके लिए यह समय अपनी पढ़ाई, अपने भविष्य जो अन्ततः राष्ट्र का भविष्य ही है, को ऐसे कार्यों में लगाने के पक्षधरों को सद्बुद्धि आएगी? यह अनुभव सिद्ध सत्य है कि  विवाह जैसी सामाजिक स्वीकृति वाली संस्था के माध्यम से व्यक्ति यौनेच्छापूर्ति के साथ-साथ सामाजिक दायित्व भी पूरे कर सकता है जबकि सहजीवन अथवा स्कूल, कालेज, मैट्रों, कार्यालयों में कुकरमुत्तों की तरह पनपे संबंधों में जो आज मेरे साथ, कल तेरे साथ, परसो उसके साथ और ...! केवल अपमान, अशांति और शायद जानलेवा एडस जैसे रोगों की प्र्राप्ति के अतिरिक्त आखिर क्या है? हमें विचार करना होगा कि क्या यह सब संयुक्त परिवारों के क्षरण एवं नैतिक शिक्षा रहित वर्तमान शिक्षा पद्धति के स्वाभाविक उत्पाद हैं? यदि हाँ तो हमें तथाकथित स्वयंभू झंडाबरदारों के विरोध को भी सहना होगा जो किसी नैतिक हस्तक्षेप को अनावश्यक कहते नहीं अघाते।
अंत में एक संस्मरण की चर्चा करना चाहूंगा। बस यात्रा के दौरान  अपने एक पड़ोसी मित्र की पुत्री को किसी के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखकर मैने उसे फटकार लगाई।  आश्चर्य कि शर्मसार होने की बजाय उसने मिर्च मसाला लगाकर घर बताया गया तो हमारे ‘बहुत भले’ पड़ोसी मित्र मुझसे ही नाराज हुए।  क्या ऐसे वातावरण का यौन शोषण की घटनाओं से कोई सम्बन्ध हो सकता है? इसपर आपका मौन खतरनाक हो सकता है। चार लोगों को फांसी के साथ-साथ ऐसे वातावरण को भी फांसी देने के लिए कुछ जरूर किया जाना चाहिए वरना यह सब जारी रहेगा। यह न भूले कि प्रकृति ने हमारे शरीर में दिल से  डेढ़-दो फीट ऊपर दिमाग बनाया है- शायद इसीलिए कि हम भावनाओं से नहीं, विवेक से निर्णय ले सकेें।
भावनाओं से नहीं, विवेक से निर्णय की जरूरत-- डा विनोद बब्बर भावनाओं से नहीं, विवेक से निर्णय की जरूरत-- डा विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 23:10 Rating: 5

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