साम्प्रदायिक बनाम धर्मान्तरण ----डा. विनोद बब्बर

इन दिनों कालाधन और  भ्रष्टाचार के बाद धर्मान्तरण का  बहुत शोर है। यदि ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो यह तथ्य सामने आता है कि भ्रष्टाचार केवल आर्थिक गड़बड़ियों तक सीमित नहीं होता बल्कि मानव मन- मस्तिष्क में स्थान पाकर लगातार विकृतियों का प्रसार करता है। वह उसे पथभ्रष्ट बनाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए अपना चरित्र, अपनी संस्कृति, अपने पूर्वजों की परम्पराएं कोई मायने नहीं रखती। यह एक ऐसा कुचक्र है जो धर्मांतरण के रूप में भी समाज में तनाव का कारण बनता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दु के धर्मान्तरण को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताने वाले किसी गैरहिन्दु के धर्मान्तरण पर आसमान सिर पर उठा लेते है। 
गत दिवस आगरा में कुछ बंगाली मुसलमानों की घर वापसी के समाचार के बाद धर्मान्तरण के विरूद्ध संसद तक में सवाल उठे। बेशक दबाव के बाद आगरा में हिन्दू बने लोग अपने साथ छल की बात करते हैं लेकिन उनके घर में ‘काली की मूर्ति’ बताती है कि मामला कुछ और है। सरकार की ओर से संसद में धर्मान्तरण पर पूरी तरक रोक की बात कहे जाने पर  सहमति न होना भी दुर्भाग्यपूर्ण है। 
यह कोई पहली बार नहीं है कि जब इस तरह की घटना सामने आई हो। गत वर्ष श्रीनगर में मुस्लिम युवाओं को ईसाई बनाने का विडियो सामने आने के बाद जम्मू-कश्मीर पुलिस ने घाटी में लालच देकर उनका धर्मांतरण कराने की शिकायतों के बाद कानून की धाराओं के अनुरूप एक मामला दर्ज किया था। वहाँ की एक शरिया अदालत ने पादरी से गिरिजाघर में कथित तौर पर मुस्लिम युवकों को ईसाई बनाने के आरोप पर स्पष्टीकरण मांगा था। ईसाई मिशनरी की सक्रियता कोई नई बात नहीं है।   स्वामी अग्निवेश ने भी ईसाई धर्म के मुखिया पोप को पत्र लिखकर धर्मान्तरण रोकने के लिए कह चुके  है। उनके अनुसार भारत के पिछड़े एवं आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मान्तरण तनाव का कारण बन रहा है। लगभग यही बात उड़ीसा के कंधमाल में हुए दंगों की जाँच कर रहे न्यायिक आयोग द्वारा भी कही चुकी है। 
ऐसे में प्रश्न यह है कि क्या किसी व्यक्ति द्वारा उपासना पद्धति बदलने को धर्मांतरण कहते हैं? क्या यह इतने तक सीमित है? धर्मांतरण पर बहस नई नहीं है क्योंकि धर्मांतरण का अर्थ इतना सीमित नहीं है। धर्मांतरण से आस्थाएं बदल जाती है, अपने ही पूर्वजों के प्रति भाव बदल जाता है। खानपान बदल जाता है, पहनावा बदल जाता है। नाम बदल जाते हैं, विदेशी नाम, जिसका अर्थ स्वयं उन्हें ही मालूम नहीं हो, हो जाते हैं। पूरे विश्व में भारत की ध्वजा फहराने वाले स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अगर कोई धर्मांतरित होता है तो एक हिन्दू घट गया ऐसा नहीं है, बल्कि देश में एक शत्रु बढ जाता है।
धर्मांतरण का इतिहास 26 अप्रैल 1818 को अंग्रेजों के मण्डला पर अधिकार से शुरू होता है। मण्डला में अधिकार होते ही ईसाई मिशनरियों ने जिले में घुसपैठ प्रारम्भ कर दी। उनका मानना था कि धर्मान्तरित व्यक्ति ही सरकार के प्रति वफादार होकर अंग्रेजों को शासन करने में सहयोग प्रदान कर सकता है। सर डोनाल्ड मेकलोड ने जबलपुर स्थित अमेरिकन मेथोडिस्ट एपीस्कोपल सोसायटी तथा बेपटिस्ट सोसायटी के सहयोग से एक योजना बर्लिन के पास्टर गोसपर को भेजी। वहाँ से 1841 में छह प्रशिक्षित नवयुवकों को भेजा गया। यह योजना खास सफल नहीं हुई लेकिन 1860 में मिरेवरेन्ड ई. चेम्पियन ने चिरई डोंगरी में एक अनाथाश्रम खोलकर आदिवासियों के बीच में उन्हीं की बोली में ईसाई धर्म का प्रचार करने लगा। जल्द ही स्थिति यह हुई कि आदिवासी समाज छिन्न-भिन्न होने लगा। समाज में उन बड़े-बूढ़ों की हालत अत्यंत दयनीय हो गई जिनके बच्चें धर्मान्तरण कर रहे थे क्योंकि धर्मान्तरित पीढ़ी के ‘फादर’ बदल चुके थे। नई पश्चिमी सभ्यता ‘खाओं, पिओ और मौज करो’, उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गया था। यह सब देख अधिकांश आदिवासियों के मन में अंग्रेजों के प्रति घोर अनादर और तिरस्कार की भावना भर गई।
इतना ही नहीं, 1935 में अंग्रेजी पार्लियामेण्ट में एक एक्ट पास किया। जिसका उद्देश्य किसी क्षेत्र के मूल निवासियों के धर्म एवं संस्कृति की रक्षा करना था। इसके लिए शासन द्वारा अनुदान देने का प्रावधान था। परन्तु इस अनुदान का उपयोग संस्कृति की रक्षा में न होकर, आदिवासियों को ईसाई बनाने के लिए हुआ।
मिशनरियों ने आदिवासियों की अशिक्षा तथा गरीबी का लाभ उठाकर उनकी आस्थाओं का व्यापार करने के अपने असली इरादों को अंजाम देना शुरु किया। आश्चर्य तो यह हुआ कि धर्मान्तरित लोग अंग्रेजों के वफादार बन गये। उनकी देशभक्ति भारत के प्रति न होकर इंग्लैंड के प्रति हो गई। स्वाधीनता संग्राम के असख्ंय सेनानियों की सूची को देखे तो उसमें एक भी धर्मांतरित ईसाई के स्वाधीनता संग्राम में योगदान की जानकारी नहीं मिलती है। गाँधीजी ने भी इस तथ्य को स्वीकारा था। 
महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी तथा डा. भीमराव अंबेडकर सहित अनेक महापुरुषों ने धर्मांतरण को समाज के लिए एक अभिशाप माना है। गाँधीजी ने अपनेे बाल्यावस्था में ही स्कूलों के बाहर विदेशी मिशनरियों को हिंदू देवी-देवताओं को गालियां देते सुना था। उन्होंने चर्च के मतप्रचार पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहा था- यदि वे मानवीय कार्य और गरीबों की सेवा करने के बजाय डाक्टरी सहायता व शिक्षा आदि के द्वारा धर्म परिवर्तन करेंगे तो मैं उन्हें निश्चय ही यहाँ से चले जाने को कहूंगा। प्रत्येक राष्ट्र का धर्म अन्य किसी राष्ट्र के धर्म के समान ही श्रेष्ठ है। निश्चय ही भारत का धर्म यहाँ के लोगों के लिए पर्याप्त है। हमें धर्म परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है।
एक प्रश्न के उत्तर में गांधी जी ने कहा था कि अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं मतांतरण का यह सारा खेल ही बंद करा दूंगा। गाँधीजी सर्वधर्म समभाव की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंनेे ईसाई मिशनरियों से कहा कि आपने मन में सोच लिया है कि यहाँ के लोगों को सीखाना है। लेकिन आप यहां से कुछ सीखें। आशा है आप अपनी आँख, कान, हृदय बंद नहीं रखेंगे बल्कि खुले रखेंगे।
कलकत्ता में यंग वूमेन क्रिश्चियन एसोसिएशन के सभागार में मिशनरियों की एक सभा को संबोधित करते हुए गाँधीजी ने कहा-‘ईसाई पादरियों में जो श्रेष्ठतम लोग हैं, उनमें से एक बिशप हेबर थे। हेबर ने लिखा था कि भारत वह देश है जहाँ के लोग नीच और निकम्मे हैं। य़ह पंक्तियां मुझे हमेशा डंक मारती रही है।’ उन्होंने लिखा भी है- ‘लोगों को आप अच्छा जीवन बिताने का न्योता देते हैं। उसका यह अर्थ नहीं कि आप उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित कर लें। अपने बाइबिल के धर्म-वचनों का ऐसा अर्थ अगर आप करते रहे तो इसका मतलब यह है कि आप लोग मानव समाज के उस विशाल अंश को पतित मानते हैं जो आपकी तरह की ईसाइयत में विश्वास नहीं रखते। यदि ईसा मसीह आज पृथ्वी पर फिर से आज जाएंगे तो वे उन बहुत सी बातों को निषिद्ध ठहराकर रोक देंगे, जो आप लोग आज ईसाइयत के नाम पर कर रहे हैं। ’लार्ड-लार्ड‘ चिल्लाने से कोई ईसाई नहीं हो जाएगा।‘ (संपूर्ण गाँधी वांङ्मय खंड-61 पृष्ठ-49)
आश्चर्य कि आजादी के बाद भी मिशनरियों का यह खेल जारी रहा। मध्यप्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की शिकायतों को देखते हुए 14 अप्रैल, 1955 को तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश डा. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति की प्रमुख संस्तुति में मतांतरण के उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकालना और उन पर पाबंदी लगाने की बात प्रमुख थी। बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुचित श्रद्धा, अनुभव हीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए न हो। बाद में देश के कई अन्य भागों में गठित समितियों ने भी नियोगी आयोग की संस्तुतियों को उचित ठहराया। उड़ीसा के कंधमाल दंगों की जाँच कर रहे न्यायमर्ति श्री एस सी महापात्रा ने सरकार को सौंपी अपनी अंतरिम रिपोर्ट में कहा है- बड़े पैमाने पर हुई हिंसा की जड़ें भूमि विवाद, धर्मान्तरण तथा फर्जी सर्टिफिकेट जैसे मुद्दे हैं। रिपोर्ट के अनुसार क्षेत्रा की अनुसूचित जनजातियों को संदेह था कि धोखाधड़ी से उनकी जमीन पर कब्जा कर रहे हैं। कंध आदिवासी पानो समुदाय जोकि ईसाई है द्वारा आरक्षण का लाभ उठाने की प्रवृति को अपने हितों के विरुद्ध मानता है।
पिछली सरकार ने  मनमाने ढ़ंग से साम्प्रदायिकता हिंसा विरोधी कानून बनाने की कोशिश की थी।  हमारे देश में ही नहीं, दुनिया भर में विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों में उत्पन्न तनाव साम्प्रदायिकता का रूप धारण कर जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है। दिलों के फासले समाज को बांट देते हैं तो बात देश के बंटवारे से नरसंहार तक जा पहुँचती है। हम 1947 के विभाजन के समय हुए दुनिया के सबसे बड़े कत्लेआम को हर्गिज नहीं भूल सकते जिसने सदियों से साथ-साथ रह रहे भाई-भाई को दुश्मन बना दिया।
विभाजन के बाद दिलों की यह दरार धीरे-धीरे भरनी चाहिए थी लेकिन अफसोस कि राजनीति ने इसे लगातार गहरा ही किया है। जरूरत थी कि हम धर्म की बजाय राष्ट्र और उसकी परम्पराओं को अपनी पहचान बताते हुए गर्व करते जबकि हुआ इससे ठीक उल्टा। राज्य द्वारा समाज को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक में बांटकर तुष्टिकरण का खेल आरम्भ किया गया जिसने कट्टरवादी शक्तियों को बल प्रदान किया। विदेशी धर्मों को बाहरी सहायता मिलना जारी रहा जिसने धर्मान्तरण जैसे खेल शुरू कर दिये। धर्मान्तरण समाज की एकता पर भारी पड़ा और आज भी दिलों की दरार को रिसते जख्मों में बदला जा रहा है। आज जब आगरा धर्मान्तरण पर चर्चा हो ही रही है तो क्यों न इस समस्या के स्थायी समाधान की बात सोची जाए। 
साम्प्रदायिक सद्भाव कायम करने के लिए जरूरी है कि हम सभी अपनी-अपनी राह चले न कि दूसरों के धर्म की आलोचना करें। कुछ माह पूर्व अजमेर से लौटते हुए रेलयात्रा के दौरान जब एक व्यक्ति को अपने धर्म को श्रेष्ठ ओर बहुसंख्यकों के धर्म को कमतर बताते हुए सुना तो मैंने उससे अत्यन्त विनम्रता से कहा- ‘बन्धु, यदि कोई हमें अथवा हमारे पूर्वजों को गाली दे तो हम क्रोधित हो जाते हैं लेकिन उन्हंे क्या कहें जो स्वयं अपने पूर्वजों को गाली देते हो?’ उसका उत्तर था, ‘ ऐसा करने वाले इंसान तो हो ही नहीं सकते।’ जब मैंने कहा, ‘क्या आपको मालूम नहीं कि कुछ पीढ़ियों पूर्व आपके पूर्वज किस मत को मानते थे?’, वह मेरा आशय समझ कर बेहद लज्जित हुआ और उसने अपने खुदा का नाम लेकर प्रतिज्ञा की कि वह भविष्य में कभी ऐसा आचरण दुबारा नहीं करेगा। 
जिन्होंने धर्मान्तरण किया भी है यदि वे अपनी पूजा पद्ध़ति तो बदल सकते हैं लेकिन उनकेे पूर्वज    तो नहीं बदले नहीं जा सकते।  यदि वे भी विवेक का परिचय देते हुए अपने पूर्वजों के धर्म का निरादर नहीं करना चाहिए।  आखिर सभी को अपनी इच्छा अनुसार अपनी राह पर चलने की छूट है। लेकिन किसी को दूसरो की राह में कांटे बोने की घूट नहीं दी जा सकती है। यदि ऐसा हो जाए तो साम्प्रदायिक हिंसा के लिए इस देश में कोई स्थान नहीं होगा। जरूरत है सबसे पहली धर्मान्तरण पर रोक लगाने की। यही राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की इच्छा भी थी। भारत चमन की तरह महकेगा यदि हम हर फूल को अपनी सुगंध बिखरने का अवसर प्रदान करें। तुष्टीकरण अर्थात कुछ फूलों को रौंदकर उनकी सुगंध को रोकने की नीति अमानवीय ही नहीं, प्राकृतिक सिद्धान्तों के भी विरुद्ध है। 
साम्प्रदायिक बनाम धर्मान्तरण ----डा. विनोद बब्बर साम्प्रदायिक बनाम धर्मान्तरण  ----डा. विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 23:02 Rating: 5

2 comments

  1. कुछ निष्कर्ष एवं प्रश्न आपके लेख में बेहद सटीक रूप में उभर कर सामने आये हैं:
    - उन्हें क्या कहें जो स्वयं अपने पूर्वजों को गाली देते हो?
    - लार्ड-लार्ड‘ चिल्लाने से कोई ईसाई नहीं हो जाएगा।‘ (संपूर्ण गाँधी वांङ्मय खंड-61 पृष्ठ-49)
    - हेबर ने लिखा था कि भारत वह देश है जहाँ के लोग नीच और निकम्मे हैं।
    - अगर कोई धर्मांतरित होता है तो एक हिन्दू घट गया ऐसा नहीं है, बल्कि देश में एक शत्रु बढ जाता है।
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    इन चार पॉइंट्स में ईसाइयत एवं इस्लाम की अवधारणाओं की कटु परन्तु सत्य व्याख्या की है आपने. साधुवाद.

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  2. "धर्म-निरपेक्ष" = "अधर्मपेक्ष या अधर्म-सापेक्ष"???
    संविधान में इसे संशोधित कर "पंथ-निरपेक्ष" किया गया था।
    धर्मांन्तरण शब्द अपने आप में भ्रामक है। धर्म = कर्त्तव्य, स्वभाव, प्रकृति, सद्गुण, सत्कर्म आदि भी
    ईश्वर एक है, सभी मानवों का परमपिता है, फिर विभिन्न पंथों में टकराव, घृणा, क्यों?
    अर्थात् "धर्म" शब्द की अति ग्लानि हो चुकी है, इसकी पुनर्स्थापना हेतु ईश्वर कौन-सा अवतार ले रहे हैं?

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