आजादी वादो की, विवादो की



स्वतंत्रता अर्थात स्व का तंत्र जिसमें अपना तीर, कमान भी अपनी यानि प्रभुसत्ता संपन्न राष्ट्र जिसकी  कमांड अपनो के हाथ में हो। ऐसा तंत्र जो सबकी चिंता करे। सभी को  सुरक्षा का अहसास कराये क्योंकि सुरक्षा स्वतंत्रता की प्रथम शर्त है। केवल राजनैतिक गुलामी से ही नहीं, अपितु सामाजिक, आर्थिक, मानसिक गुलामी से भी मुक्ति दिलाने के लिए अपनी समस्त क्षमताओं का सदुपयोग करें।आतंकवाद,बढ़ते अपराधों, आत्मकेंद्रित राजनैतिक आपा-धापी, बढ़े वैश्विक दबावों की घुटन और उमस भरे माहौल के रहते आजादी ठीक उसी प्रकार है जैसे पिंजरे में बंद पक्षी के पैरों में पड़ी बेड़ियों तो खोल दी जाए परंतु पिंजरे का ताला यथावत रहे। इस दृष्टि में  स्वधर्म, स्वराज, सुराज और स्वतंत्रता पर्यायवाची है क्योंकि यह श्रृंखला प्रकृति का सिद्धांत है। इसमें से किसी एक की अनुपस्थिति पूरे समाज को परतंत्र बना देती है।  15 अगस्त1947 को हमें स्वराज्य मिला। ठीक आधी रात को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हुए पं. जवाहरलाल ने कहा था, ‘बहुत साल पहले हमने नियति से एक वादा किया था। आज उस वादे को पूरा करने का वक्त आ गया है। आधी रात जब सारी दुनिया सो रही है, भारत ज़िंदगी और आज़ादी पाने के लिए जागने जा रहा है।’ तब से अब तक हर स्वतंत्रता दिवस पर  सभी प्रधानमंत्रियों ने इसी संकल्प को दोहराते हुए देश की जनता को  आत्मविश्वास कायम रखने की सीख दी। ऐसा करते हुए उन्हें अपने राष्ट्रधर्म तो क्या अपने खुद के चुनावी वायदों तक याद नहीं आते। इसी कारण सब अपने विरोधियों को तो कोसते रहे पर आत्म मूल्यांकन करने की जरुरत किसी ने महसूस नहीं की। इसी कारण   स्वतंत्रता के शेष लक्षण फिलहाल अप्राप्त है। देश का शासन भारतीयों के हाथों में आया, लेकिन, शासन तंत्र का भारतीयकरण होने की सोच से ही हम बचते रहे। स्वदेशी, स्वभाषा और स्वाभिमान किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्रता रूपी प्रासाद की खिड़कियां होती है। ‘स्वत्व’ और ‘अपनत्व’ की शुद्ध, स्वच्छ समीर के निर्बाध आवागमन के लिए इन खिड़कियों का होना जरूरी है। दुर्भाग्य से इन खिड़कियों पर आज भी गुलामी की भाषा और संस्कृति की शिलाएं विद्यमान हैं। ऐसे में जब स्वराज्य ही अधूरा हो तो सुराज्य से हमारा मिलन कैसे हो सकता है।
भारत को गांवों का देश कहा जाता है। हमारे गांव चिंता से आजादी से कितने दूर है इसकी गवाही देते हैं हाल ही में जारी जनगणना के  आंकड़े। जिसके अनुसार स्वतंत्रता के 68 वर्ष बाद आज भी गांव में रहने वाले 17.91 करोड़ परिवारों में से 16.50 करोड़ परिवारों की आय 10 हजार मासिक से कम, तो 13.34 करोड़ परिवारों की आय 5 हजार रुपए महीने से कम हैं। इनमें 10.08 करोड़ परिवार भूमिहीन  है। 9.16 करोड़ परिवार दिहाड़ी मजदूर  हैं। डिजिटल इण्डिया के शोर के बीच हमारे 35 प्रतिशत गांव वासियों का निरक्षर होना शर्मशार करता है तो 4.08 लाख परिवारों द्वारा कचरा बीनने और 6.68 लाख परिवारों द्वारा भीख मांगने का सरकारी आंकड़ा बताता है कि हम राजनैतिक आजादी पाकर इतने चिंता मुक्त हो गए कि आर्थिक, सामाजिक, मानसिक आजादी के चिंतन को ही भूल गए। क्या यह इसी का परिणाम नहीं है कि ‘आजाद’ भारत में भारतीय भाषाओं की अस्मिता खतरे में है। शासन से प्रशासन तक, कानून से शिक्षा तक विदेशी भाषा हावी है। प्रशासनिक सेवाओं में हिंदी जानने वालों का अनुपात लगातार कम हो रहा है। संसद से सड़क तक अपनी भाषाओं के सम्मान की आवाज अनसुनी रहना साबित करता है कि हम आत्ममुग्ध हैं। 
यह तथ्य नहीं, सत्य है कि जो नियम व्यवस्थाएं अंग्रेज शुरू करके गए थे, वे आज भी जारी है। चाहे वह पुलिस व्यवस्था हो, शिक्षा व्यवस्था हो, शासन व्यवस्था हो, न्याय, कृषि, चिकित्सा हो या फिर समाज व्यवस्था हो। पुलिस अधिनियम 1860 का, सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1861 का, भारतीय दंड विधान लार्ड का और शिक्षा व्यवस्था मैकाले की बाअदब जारी है। ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं कि हम स्वतंत्र हैं? खंडित आजादी के बाद स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी त्रासदी है कि नेतृत्व की मानसिकता भी खंड़ित रही। जो देश का ‘सरदार’ बनने की सर्वश्रेष्ठ योग्यता रखने वाले से काम करने का मौका जल्द छीन लिया गया लेकिन अल्प समय में ही उन्होंने राष्ट्र को एकसूत्रता में बांधने का संकल्प पूरा कर दिखाया लेकिन बाद वालों ने क्या किया?
आजादी का अर्थ निरंकुशता और अनुशासनहीनता कतई नहीं हो सकता। मनमानी का नहीं, आजादी सामंजस्य का पर्याय है। किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी वहां की युवा पीढी ही होती है। लेकिन, दुखद पहलु यह है कि अधिकांश युवा भ्रमित और दिशाहीन हैं। विदेशी सामान, विदेशी संस्कृति, विदेशी भाषा और विदेशी जीवन शैली को अपनाने के लिए यह पीढी पागल हो रही है। जिस देश में युवावस्था का अर्थ बल, बुद्धि एवं विद्या होना चाहिए, वह नशे में डूब बढ़ रही हैंं। धैर्य, संयम तथा शालीनता का स्थान स्वच्छंदता, उन्मुक्त जीवन शैली तथा विवेकहीन उन्माद ले रहा है। अपनी भावी पीढ़ी को साहित्य से उपेक्षित रखने का अर्थ है उसे विवेक और संवेदनाओं  से दूर रखना। क्या यह उसी का परिणाम नहीं है कि आज हमारे युवा आजादी के लिए बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों को कम और नाचने वालों तथा सट्टेबाज दलालों को ज्यादा जानते है।
जय जवान-जय किसान के नारे में हमने जय विज्ञान जरूर जोड़ दिया लेकिन न तो सीमा पर जवान सुरक्षित है और न ही अन्नदाता किसान संतुष्ट है। विज्ञान का लाभ आज भी सब तक नहीं पहुचा है।   दिन रात मेहनत करने के बावजूद कर्ज से दबा किसान आत्महत्या करने को विवश है पर कुछ भी बोलने को स्वतंत्र हमारे माननीय मंत्रीजी इसका कारण ‘नपुंसकता’ बताते हैं। संदर्भ बेशक गलत है पर जवाब ज्यादा गलत भी नहीं है क्योंकि वादों और विवादों के लिए जाने जाने वाले लोगों को बार-बार चुनना ‘नपुंसकता’ ही है। एक पिद्दी सा शरारती पड़ोसी लगातार हमें परेशान कर रहा है तब भी हम उसे मिठाई भिजा रहे है। दुर्भाग्य  है कि सरकारंे बदलने के बाद भी  ‘कछुआ धर्म’ संवैधानिक बाध्यता की तरह हमसे चिपटा हुआ है। न जाने क्यों हमें अपने बल और विवेक से अधिक दूसरों के इशारों पर नाचना ज्यादा भाता है। 
सोने की चिड़िया कहलाने वाला हमारे देश के लाखों करोड़ कालेधन के रूप में विदेशी बैंकों में है। हम उसे वापस लाने की बजाय विदेशी पूंजी निवेश के लिए जोर लगा रहे हैं। आर्थिक नीतियां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों की रक्षा कर रही है। अपने मजदूर बेरोजगार हो रहे हैं क्योंकि  बाजार चीन निर्मित सामान से अटे पड़े हैं। अपनी आजादी की इस विचित्र परिभाषा को खुद हमारे लिए समझना मुश्किल है।
जब हम ‘आजादी चिंता से,  चिंतन से नहीं’ का आह्वान करते हैं तो इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि हम स्वतंत्रता के 68 वर्ष की उपलब्धियों को नकार रहे हैं। बेशक हमने प्रगति के पथ पर डग बढ़ाते हुए बहुत सी बाधाएं देखी हैं और उन बाधाओं के कारणों से भी हम अनभिज्ञ नहीं हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि क्या हम अपने देश की गति और प्रगति से संतुष्ट हैं? क्या राजनैतिक भ्रष्टाचार हमें विचलित नहीं करता हैं? शिक्षा और नौकरियों में व्यापे ‘व्यायम’ कोढ़ में खाज है या नहीं? न्याय पर अपराधी का प्रथम आधिकार बताने वाले  और आतंकवादियों के मानवाधिकारो के लिए जी जान लगा देने वालो इतनी आजादी की देश के बहुसंख्यक समाज की चिंता उनके चिंतन से ही गायब है। सच बेशक कितना भी कटु हो  लेकिन उससे आंखें चुराना संभव नहीं है। यह चिंतन तो करना ही पड़ेगा कि क्या ऐसी ही आजादी के लिए भारत माता के महान सपूतों ने शहादत  दी थी? क्या तिरंगा फहराने भर से हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है? क्या पाखंड की सडांध हमें विचलित नहीं करती हैं? 
इसमें कोई संदेह नहीं कि यह देश अपनी समृद्ध विरासत और मेहनतकश देशवासियों के कारण आगे बढ़ा है पर नादिरशाह, गजनवी के क्लोन आज भी देश को लूट रहे हैं तो मीरजाफर और जयचंद के क्लोन जड़ों को खोखला कर रहे हैं। भारत माता व्यथित है, क्योंकि उसकी सभी संतानों को आर्थिक आजादी नहीं है, धार्मिक भेदभाव जारी है। तुष्टिकरण से निजात मिलना शेष है। जातिवाद, क्षेत्रवाद, सामाजिक समानता में बाधक है। उन्नति के समान अवसर नहीं है। और तो और सम्प्रदाय के नाम पर कानून तक अलग-अलग है। धन्य है इस देश की जनता जिसके मनोबल को लाख मुसीबतें भी तोड़ नहीं पायी हैं। आज हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो किसी खद्दरधारी अथवा कमांडों से घिरे नेता के कारण नहीं बल्कि अधनंगे, अशिक्षित मगर मेहनतकश और ईमानदार उन कोटि-कोटि भारतीयों के कारण हैं जिनके अस्तित्व को सरकारी आंकड़े भी स्वीकाराने को विवश है।
पिछले 68 वर्षों से उपेक्षित लोगों के लिए स्वतंत्रता दिवस का अर्थ एक रस्मी उत्सव रहा है। ध्वजारोहण के बाद कुछ वादें। अपनी और अपनों की उपलब्धियों का गुणगान बहुत हो चुका है। किसी भी राज्य-राष्ट्र का असली ध्वज उसकी जनता है। सच्चा ध्वजारोहण ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ अर्थातृ सबकी खुशहाली, शुद्ध राजनीति और निजहित पर राष्ट्र-हित को अधिमान से अंतिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति तक भी स्वराज, सुराज, स्वतंत्रता यानि अच्छे दिनों की शीतल सुगंध समीर के सुखद झोंक महसूस करने में है।  उसे केवल लच्छेदार भाषणो ंमें नहीं, ठोस धरातल पर यह अहसास करना होगा,  ‘बेशक रात अंधियारी है लेकिन सुबह अब बहुत दूर नही है। अपने हो या पराये, भ्रष्टाचार पूरी तरह से अस्वीकार्य होगा। आतंकवाद को दृढ़ता से कुचला जाएगा। राष्ट्र के हर नागरिक को वास्तविकता आजादी प्राप्त मिलनी ही चाहिए। मिलेगी, शीघ््रा मिलेगी। लेकिन कैसे इस चिंतन की कड़ी हर्गिज टूटनी नहीं चाहिए। फिलहाल देश का सबसे बड़ा चिंतन मंच यानि ससंद शोर में खामोश है क्योंकि हमारे प्रतिनिधियों को आजादी है महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपने ‘इस खास ढ़ंग’ से संवाद करने की। 
आइए भारत माता के उन बलिदानी वीर सुपूतों की स्मृति को प्रणाम करें जिन्होंने अपनी अस्थियां जलाकर हमारे लिए उजाला किया! स्वतंत्रता दिवस की अनंत शुभकामनाएं!
--डा. विनोद बब्बर संपर्क-09868211911
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