सहिष्णुता की धरती

लोकतंत्र में मत भिन्नता होना स्वाभाविक है। उस पर भी अनेक प्रकार की बोली, भाषा, रहन-सहन की विविधताओं वाले इस विशाल देश में ऐसा होना सामान्य माना जाता है। लेकिन इधर पिछले कुछ दिनों से सदियों से सहिष्णुता का स्वर्ग माने जाने वाले समाज को राजनीति की शह पर असहिष्णु घोषित करने का एक अभियान चल रहा है। आश्चर्य तो तब होता है जब केवल अज्ञानी अथवा नासमझ ही नहीं, स्वयं को बुद्धिजीवी कहलाने  वाले भी इस ‘ब्लैमगेम’ के मोहरे बन रहे हैं। स्पष्ट झलकता है कि  जान बूझकर ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिससे देश में फिर से असुरक्षा और अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो। क्या यह सत्य नहीं है कि राजनैतिक बढ़त पाने के लिए कांग्रेस शासित प्रदेश कनार्टक और समाजवादी पार्टी द्वारा शासित उत्तर प्रदेश की दुर्घटनाओं के लिए मोदी को बदनाम करने के लिए साहित्य अकादमी तक को निस्तेज करने तथा सभ्यता, संस्कृति को भी ताक पर रखने के प्रयास हो रहे हैं। ये लोग समझकर भी नहीं समझ रहे हैं कि उनकी ये हरकतें समाज के ताने-बाने को नुकसान पहुंचता  सकती है। 
आश्चर्य से अधिक चिंता की विषय है कि जो लोग अपनी कलम के कारण ही समाज में प्रतिष्ठा पाते रहे हैं, वे अचानक संवाद की परम्परा को ताक पर रख रहे हैं। यदि कहीं कोई कमी अथवा गलती हैं तो उसके लिए कलम को सक्रिय होना चाहिए था। न जाने क्यों उन्हें अपनी कलम और शब्द शक्ति पर विश्वास नहीं रहा। ऐसे लोग साहित्य अकादमी सम्मान लौटा कर  बेशक चर्चा में आ जाए लेकिन अंतत उन्हें जवाब देना पड़ेगा कि उन्होंने यह गलत मार्ग क्यों चुना। क्यों छोड़ी विवेक की डगर। क्या यह उनका कर्तव्य नहीं कि वे समाज में एकता और भाईचारे का माहौल बनाने का प्रयास करते? क्या एक- दूसरे की भावनाओं का सम्मान करने की उनकी अपील समाज में अपना प्रभाव खो चुकी है? यदि इसका उत्तर हां में हैं तो यह हमारे सम्पूर्ण समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। और यदि वे राजनीति के मोहरे बनने को विवश हुए तो भी गंभीर चिंतन की मांग करता है। 
इस बात से किसे इंकार होगा कि सम्पूर्ण विश्व में केवल भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता को कानूनी ही नहीं  सामाजिक मान्यता प्राप्त है। अगर हमारी पहचान अनेकता में एकता है तो इसका पूरा श्रेय इस देश की उदात्त एवं सहिष्णु परंपरा को जाता है। भारत दर्शन बिना किसी भेदभाव के ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का उद्घोष करता है। भारत में जन्मे हर धर्म, हर मत ने सहिष्णुता को प्राथमिकता दी है। सदियों का इतिहास गवाह है हमने कभी बल या छल से किसी पर अपने धार्मिक विचार नहीं थोपे। विदेशी आक्रांताओं ने हमारे हजारों मंदिरों को लूटा ही नहीं नष्ट तक किया और कुछ को अपने धार्मिक स्थलों में बदला। कुछ ऐसे अवशेष देश की राजधानी दिल्ली सहित सम्पूर्ण भारत में आज भी हैं। दूसरी ओर हमारा रिकार्ड बेहद उदार रहा है। हम हर नए विश्वास को आदर से ग्रहण करते रहे हैं। भारत में बनी पहली मस्जिद एक हिन्दु राजा ने बनाई थी। बेशक हर भारतीय किसी न किसी धर्म से जुड़ा है लेकिन आज भी मजारों पर जाने वालों में अधिकांश हिन्दू ही होते हैं। ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ हमें सभी में एक ही ईश्वर का दर्शन कराता है। ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दो भगवान’ गांधी का प्रिय भजन था।  
खुद को सबसे उदार समाज कहने वाले अमेरिका तक में सिक्ख बन्धुओं को केवल इसलिए निशाना बनाया जाता है क्योंकि उनकी दाढ़ी  पगड़ी इस्लाम से मिलती जुलती है। वहां के प्रांतीय गवर्नर भारतवंशी बॉबी जिंदल और निक्की का ईसाई मत को स्वीकारना प्रमाण है कि वहां बहुमत के धार्मिक विश्वास को अपनाये बिना राजनीति संभव नहीं है। खुद अमेरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को अपने नाम के कारण बार-बार सफाई देनी पड़ती है जबकि भारत में एक नहीं अनेक राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, गवर्नर धार्मिक अल्पसंख्यक हो चुके हैं। इसपर भी तुष्टीकरण अथवा अनेक विशेष सुविधाओं की व्यवस्था।  क्या यह उचित न होता कि बुद्धिजीवी कहलाने वाले इस्तीफे देकर भागने अथवा अपने राजनैतिक आकाओं को खुश करने की बजाय  एक देश में एक विधान, एक समान व्यवहार के लिए अभियान चलाते?  धर्म, जाति को व्यक्तिगत जीवन तक सीमित करने और धर्मान्तरण पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन न करने वाले आखिर क्यों नहीं समझना चाहते कि इसी में देश का हित है। 
 अपने मोरिशस प्रवास के दौरान मैंने यह जाना कि वहां सभी धार्मिक संस्थाओं को वहां के सरकारी रेडियों पर समय दिया जाता है लेकिन उन्हें किसी दूसरे के विश्वास पर एक भी शब्द कहने की अनुमति नहीं है। लेकिन हमारे समाज की दशा क्या है, यह किसी से छिपा हुया नहीं है। हिन्दु दर्शन को पिछड़ा, अवैज्ञानिक, अन्धविश्वासी और न जाने क्या-क्या साबित करने की होड़ दिखाई देती है। जबकि इतिहास गवाह है कि इस धरती पर अनेक ऐसे नये मत पनपे, फले-फूले जो  सनातन परंपरा से बिल्कुल अलग विचार रखते थे। असहमति के बावजूद आपस में एक-दूसरे के प्रति आदर रखा गया। चीनी यात्री हुएनसांग और फाह्यान ने तत्कालीन भारतीय समाज की धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा हैं तो मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका में कुछ ऐसे ही उद्गार व्यक्त किये हैं। विजयनगर साम्राज्य के बारे में विदेशी यात्री डोमिंगो पेज लिखता है कि चाहे मूर हो, ईसाई हो, या अन्य मतावलंबी, राजा की नजरों में सब बराबर हैं। इराक के शाह शाहरूख के राजदूत अब्दुर्रज्जाक ने भी विजयनगर के राजाओं की धर्मनिरपेक्षता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
दुर्भाग्य की बात तो यह भी  है कि गुरु गोविंद सिंह, महाराणा प्रताप, शिवाजी सहित देश के महापुरूषों के बारे में नई पीढ़ी को जानकारी नहीं दी जा रही। कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज को बांटे रखने के लिए उन्होंने बड़ी मेहनत से जिस झूठ को सच साबित करने का प्रयास किया है उसके धराशाही हो जाने का भय हो? सत्य तो यह है कि भारतीय संस्कृति के ये सभी पुरोधा किसी सम्प्रदाय अथवा धर्म के खिलाफ नहीं थे बल्कि जुल्म के खिलाफ थे। कितने लोग जानते हैं कि शिवाजी के सेनापति का नाम इब्राहिम गार्दी था जो पांच वक्त का नमाजी थी। बेशक उस समय वे हमारी बहन-बेटियों को अपमानित करते थे लेकिन शिवाजी ने अपने शत्रु की सुंदर पुत्रवधु को लाने वाले अपने सरदार को न केवल फटकारा बल्कि उस महिला को ससम्मान वापस करते हुए उसके लिए ‘माँ’ शब्द का प्रयोग किया था। महाराणा प्रताप की सेना में सरदार हकीम खान  सहित अनेक मुस्लिम थे तो गुरु गोविंद सिंह की सेना में अनेक पठान थे। उनके एक सेवक के विरूद्ध शिकायत आई कि वह दुश्मनों को भी पानी पिलाता है। लेकिन गुरु साहिब ने उसे न केवल शत्रुओं को पानी पिलाने बल्कि उनके घावों पर मरहम लगाने की अनुमति दी।  
यदि समकालीन परिस्थितियों की बात भी करें तो कौन नहीं जानता कि इस देश का विभाजन धार्मिक आधार पर किया गया। पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र बना लेकिन भारत हिन्दू बहुल्य होते हुए भी हिन्दू राष्ट्र नहीं बना। अतः इसे अथवा इसके किसी भी भाग को इस्लामिक अथवा ईसाई राज्य बनाने के लिए मचल रहे लोगों को भी समझना होगा कि ऐसा किसी भी कीमत पर संभव नहीं होगा। सर्वधर्म समभाव सदियों से हमारी परम्परा रहा है। हाँ, वोटबैंक की राजनीति ने अवश्य विभाजन बढ़ाया है। समान कानून लागू करने तथा वोट बैंक और धार्मिक कट्टरता की नीति को हमेशा के लिए परित्याग हो जाए तो  दुनिया की कोई शक्ति भारत को पुनः विश्वगुरु बनने से रोक नहीं सकती। दुर्भाग्य से हमारे तथाकथित चन्द बुद्धिजीवी ही इसके लिए तैयार नहीं है। काश! वे रणछोड़जी बनने की बजाय ‘न दैन्यम न पलायनम’ का मार्ग अपनाते। परिस्थिति से भागना अथवा आंखे बंद करना बेशक तत्काालिक राहत दे परंतु ऐसा करना न तो कभी स्थाई समाधान था और न ही हो सकता। समाधान संस्कृति सूत्रों में निहित हैं। जरूरत है उसे समझने की। परिस्थितियों ने पूजा पद्धति को बेशक अलग-अलग कर दिया हो लेकिन हमारे पुरखे एक ही संस्कृति के वारिस के थे। आओ  प्रार्थना करे उस सर्वशक्तिमान से जिसे अनेक नामों से पुकारा जाता हैं- सबको सन्मति दो भगवान!
-- विनोद बब्बर 09868211911 
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