सहोदर है प्रकाश और ज्ञान
ज्ञान और प्रकाश सहोदर है तो दीपक इनका धर्मपुत्र है। प्रकाश सकारात्मक ऊर्जा है। तो अन्धकार नकारात्मकता का द्योतक है। इसीलिए तो दुनिया के हर धर्म, सम्प्रदाय, मत, विचार ने प्रकाश को महत्व दिया है। सर्वविदित ही है कि महाभारत युद्ध से पूर्व कुरुक्षेत्र में विषाद ग्रस्त अर्जुन को अपना विराट् रूप दिखाते हुए श्री कृष्ण ने उसे आकाश में सहस्रों सूर्यों के एक साथ उदित होने के सदृश ज्योति से साक्षात्कार कराया था। हिन्दुओं के हर देवी-देवताओं का शरीर प्रकाश से ही निर्मित है। उनके चित्रों में उनके सिरों से इसलिए प्रकाश वलय दिखाया जाता है। गुरु नानकदेव जी के प्रकटोत्सव पर कहा गया--मिटी धुन्ध जग चानन होया। बाईबल के ‘जेम्स’ अध्याय के अनुसार सृष्टि की रचना प्रकाश के पिता (फादर ऑफ लाइट्स) के द्वारा हुई है। बौद्ध मत के अनुसार बुद्ध ने ज्ञानरूपी प्रकाश के महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए ही ‘आत्मदीपो भवः’ अपना दीप स्वयं बनो की उद्घोषणा की।
आज बेशक तरह-तरह के दीये दृश्यमान हो। माटी के दीये से बिजली से जगमगाने वाली लड़ियां भी दीयों की श्रेणी में शुमार होती है। इन विविधतापूर्ण संसार में देशी से अधिक विदेशी हो लेकिन भारत में दीये की उपलब्धता का इतिहास पांच हजार वर्ष से भी पुराना बताया गया है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो सभ्यता दीयों से युक्त थी। उसकाल काल के दीये गोलाकार होता था। ईसा के जन्मकाल से दो सौ साल पहले निर्मित प्रस्तर की मूर्तियों के हाथों में दीये देखे जा सकते हैं।
निःसंदेह प्रकाश आध्यात्मिक ऊर्जा का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च यहां तक कि मजारों-समाधियों पर भी दीया (चिराग) जलाने का परम्परा आज भी बरकरार है। लेकिन दीये की दिव्यता का अंतर जरूर बोलता है। दिल्ली में निज धर्म की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाली महान आत्मा के बलिदान स्थल, धड़ की अन्येष्टि और शीश की अन्त्येष्टि स्थल पर चौबीसों घंटे शुद्ध घी के पवित्र दीये प्रकाशमान रहते हैं। प्रतिदिन लाखो लोग उस दिव्य प्रकाश के दर्शन कर अपनी आत्मा को प्रकाशित करते हैं। जबकि उस क्रूर, अमानुष की मजार जिसने लाखों की आत्मा से छल करते हुए उन्हें अपने पूर्वजों की परम्पराओं, मान्यताओं से विमुख किया, की मजार उपेक्षित हैं। वहां रह रहे करिंदे चिराग के लिए गिड़गिड़ाते हैं। ऐसा इसलिए कि प्रकाश पुंज होना आसान नहीं है। बादशाह के लिए तो और भी कठिन। वनवास गये बिना श्रीराम अधिकतम अध्योया के राजा हा े सकते थे लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम हर्गिज न होते। त्याग, समर्पण की नींव पर दीया बनता, बलता और बोलता है।
बेशक हमारी नई पीढ़ी को इस जानकारी से विमुख रखने का षड़यन्त्र किया जा रहा हो लेकिन सारा विश्व जानता है कि वैदिक ज्ञान के द्वारा विश्व को ज्ञान-विज्ञान का प्रथम संदेश मिला। प्रकाश के महत्त्व को भी तो सर्वप्रथम वेदों ने रेखांकित किया। उपनिषद में कहा गया है कि दीप ही अग्निदेव है, दीप ही सूर्य है, दीप ही वायु है, दीप ही चन्द्रमा है, दीप ही ब्रह्म का बीज है और स्वयं ब्रह्मदेव के रूप में भी दीप है। सूर्य, चन्द्र और ब्रह्म के सभी गुण और जन्म दीप को माना गया है। मनुष्य के जन्म और मृत्यु के समय भी दीप वहां विद्यमान रहता है।बेशक उपनिषद में कहा गया है कि दीप ही अग्निदेव है, दीप ही सूर्य है, दीप ही वायु है, दीप ही चन्द्रमा है, दीप ही ब्रह्म का बीज है और स्वयं ब्रह्मदेव के रूप में भी दीप है। सूर्य, चन्द्र और ब्रह्म के सभी गुण और जन्म दीप को माना गया है। मनुष्य के जन्म और मृत्यु के समय भी दीप वहां विद्यमान रहता है। प्रकाश का सबसे बड़ा स्रोत है सूर्य। यों तो सूर्य ही प्रकाश के सभी स्रोतों के मूल में है। चन्द्रमा अपने शीतल प्रकाश के लिए सर्वख्यात है उसे सुधांशु अर्थात् अमृतमय बताया गया है। उसकी किरणें सुधावर्षण करती हैं। वनस्पतियों में संजीवनी का संचार करती हैं। पर किसे विदित नहीं कि चन्द्रमा का यह प्रकाश अपना नहीं होकर सूर्य का ही है। यही कारण है कि वेदों में सूर्य की उपासना में अनेक सूक्त एवं ऋचाएं गढ़ी गई हैं। हमारे ऋग्वेद नेे सूर्य-सूक्त के माध्यम से सर्वप्रथम सूर्य के अतुल्नीय अवदान को स्वीकारा। सूर्य अगर प्रकाश का दान बन्द कर दे तो कुछ ही दिनों में सारी सृष्टि अन्धकार और ठंड से ग्रस्त हो समाप्त हो जाय। प्रकाश के महत्त्व को आज के वैज्ञानिकों ने भी अच्छी तरह समझा है। अभी तक के अन्वेषणों के अनुसार प्रकाश की गति से बढ़ कर कोई गति नहीं है। नक्षत्रों के मध्य की दूरियां प्रकाश-वर्षों (लाइट ईयर्स) में मापी जाती हैं।
कई बहुमूल्य अवदानों की तरह दीपोत्सव का अवदान भी विश्व को भारत की ही देन है। इसका आरम्भ रावण पर राम की विजय और धर्मपत्नी जानकी के साथ अयोध्या के सिंहासन पर उनके आरुढ़ होने से माना जाता है। दीपों की मालाएं प्रकाश बिखेरती हैं और भारतीय चिन्तन में प्रकाश को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। प्रकाश अन्धकार पर विजय का प्रतीक है। सामान्य अर्थ में अन्धकार को नष्ट करने का कार्य प्रकाश ही करता है किन्तु वह केवल बाह्य अन्धकार का ही विनाश नहीं करता अपितु मनुष्य के अन्तःकारण में बसे अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाश का भी वही कारण है।
दिवाली, दीपावली, प्रकाश पर्व, ज्योति पर्व आखिर क्या अंतर है इन नामों में। सभी में दीया प्रमुख है। दीया जो कल तक केवल माटी का था। अब लोगो को अपनी माटी से जुड़ना पिछड़ापन लगता है इसलिए दीपक और, मोमबत्ती से ज्यादा विद्युत लड़ियों को जलाकर अमावस्या की काली रात को चकाचौंध कर देने वाली रोशनियां तो सर्वत्र देखी जा सकती है। ध्यान रहे दीपावली का अर्थ केवल घर को दीयों से आलोकित करने का नाम नहीं है। बल्कि मन- मस्तिष्क को भी ज्ञान से आलोकित करने की बेला है। गीताकार का स्पष्ट उद्घोष है कि मनुष्य को पवित्र करने वाला अगर कोई कारक है तो वह ज्ञान ही है। शरीर को स्वच्छ करने के लिए तो अनेक उपकरण उपलब्ध हो सकते हैं लेकिन अन्तस की मैल, कलुश- द्वेष, घृणा, क्रोध, आलस्य, प्रमाद आदि को दूर करने का काम केवल और केवल ज्ञानरूपी प्रकाश ही कर सकता है। ‘मन मैला और तन को धोए’ अर्थात् अन्दर की स्वच्छता नहीं हो तो बाहरी धवलता व्यर्थ है। ढ़ोंग है। तभी तो ईशावास्योपनिषद् कहता है, ‘विद्या के साथ-साथ अविद्या का भी अस्तित्व है।’ अविद्या विनाश और पतन का कारण बनती है। असमानता, छुआछूत, अंधविश्वास, विद्या न होकर अविद्या है। अन्धकार है। सर्वथा त्यात्य है।
आओ संकल्प करें, ‘इस प्रकाशपर्व पर ज्ञान को ही अपना सच्चा पथ-प्रदर्शक मानते हुए, अपने पूर्वजों की परम्पराओं को सम्मान देते हुए आडम्बरों का परित्याग करेंगे। अपनी जननी और जन्मभूमि का गौरव बढ़ाने के लिए प्राण-प्रण से कार्य करेंगे।’ -- विनोद बब्बर संपर्क-09868211911
सहोदर है प्रकाश और ज्ञान
Reviewed by rashtra kinkar
on
03:29
Rating:
No comments