विषम नौटंकी नहीं, सम उपचार चाहिए

 दिल्ली एक बार फिर से सुर्खियों में है। सुर्खियों में रहना दिल्ली का चरित्र है। सुर्खियों के लिए ही तो देश भर से लोग दिल्ली में धरने-प्रदर्शन के लिए आते अथवा लाये जाते हैं। चुने हुए/ छटे हुए लोग भी दिल्ली में हंगामा कर सुर्खियां बटोरते हैं। दिल्ली को सुर्खियों का ऐसा नशा है कि वह भी अक्सर बेराह चलने लगती है। सभ्यता, संस्कृति और अनुशासन की पटरी से उतर जाना दिल्ली की फितरत बन चुकी है। आखिर दिल्ली की पटरियों पर चलने के लिए जगह ही कहां बची है। पूरी दिल्ली में यदि कहीं पटरी खाली दिख जाए तो यह तय है कि वह स्थान निश्चित रूप से दिल्ली नहीं, नई दिल्ली ही होगा।
पटरी की लीक पर सिंह सपूत नहीं चला करते है इसलिए दिल्ली का हर नेता ही नहीं छुटभैय्या भी अपनी अलग पटरी बिछाने के चक्कर में रहता है। इसलिए कई बार सड़क पर पटरी नजर आती तो कई बार पटरी पर सड़क। पटरी पर सस्ते सामान से महंगी राजनीति तक की बेशुमार दुकानें सजी हैं। दिल्ली वाले भी किसी दुकान की बजाय पटरीवाले को ज्यादा पसंद करते हैं। उससे मोलभाव की सुविधा रहती है। उस पर एक बड़ा लाभ यह कि ठगे जाने के बावजूद स्वयं को समझदार समझने का भ्रम बरकरार रहता है। पटरी पर मजमा लगाने वाले भी हैं। मजमेबाज भी यहां अच्छी शोहरत पा जाते हैं।
दिल्ली कई बार बसी, कई बार उजड़ी लेकिन दिल्ली में बसने की चाहत न केवल आज भी बनी हुई है बल्कि दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। केवल रात काटनी हो तो यहां रैन बसेरे हैं तो फुटपाथ भी हैं। रेलवे-स्टेशन हैं तो बस अड्डें भी। अगर कुछ दिन गुजराने हो कहीं भी तिरपाल तानने की आजादी हैं। अगर दिल्ली पर दिल आ जाए  यानि ज्यादा दिन रहने का मन हो तो झुग्गी डालने का विकल्प है।   आपकी इस गुस्ताखी को आपकी मजबूरी साबित करने वाले एक नहीं, कई कानून के रखवाले तैयार हैं। घड़ियाली आंसू बहाने वाले ये ‘हमदर्द’ आपका साथ देने को प्रति क्षण तैयार हैं बशर्ते आपका नाम मतदाता सूची में शामिल हो और आप बस उनके हाथ, हाथी, फूल या झाड़ू को अपना वरदहस्त प्रदान करने का संकल्प ले लें। दिन भर सोये रहकर वे आपके लिए रात भर जाग सकते हैं। दूसरों को जगा सकते हैं। आपको राहत देने के लिए दिल्लीवासियों को सांसत में डाल सकते हैं। आखिर इस कर्मकांड से उन्हें प्रसाद रूप में कुर्सी मिलती है तो सुर्खियां भी।ं 
बात सुर्खियों की हो तो दिल्ली का कोई मुकाबला नहीं। बात ही नहीं, बेबात भी सुर्खियां बटारेने में दिल्ली सबसे आगे हैं। अब देखो न जो फार्मूला मैक्सिकों सहित दुनिया के विभिन्न देशों में असफल रहा उसे दिल्ली में लागू करने की जिद्द यदि दिल्ली नरेश ने ठानी है तो उसके हौसले को दाद देनी ही पड़ेगी। प्रदूषण से मुक्त करने का बीड़ा उठाये दिल्ली नरेश ने ऐलान किया कि प्रथम जनवरी से कार सम-विषम नम्बरों के आधार पर चलेगी। कुछ ने इसे तुगलकी फरमान बताया तो कुछ ने राहत का इंतजाम घोषित किया। राजनैतिक बयानबाजी अपनी जगह सही या गलत हो सकती हैं परंतु केवल आलोचना अथवा जनून किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इस बात से किसे इंकार होगा कि सार्वजनिक यातायात की असफलता  ही बाइक अथवा कार की ओर जाने पर मजबूर करती हैं। आज की व्यस्त जिंदगी में लम्बा इंतजार करना अथवा लटक कर यात्रा करना कितनी व्यवहारिक है इसपर कुछ कहना बेकार है। बेहतर सार्वजनिक यातायात व्यवस्था के बिना इस तरह के फैसले आलोचना को आमंत्रित करते ही हैं।
इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि जिनके पास धन है वे दूसरे नम्बर की कार की व्यवस्था कर लेंगे ताकि उन्हें एक दिन सम नम्बर की तो दूसरे दिन विषम नम्बर की कार उपलब्ध हो।  लेकिन यहां तोें निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के पास भी दिखावटी कारें है। वे केवल दुःख- सुख में ही इसे निकालते हैं। वे दूसरी कार खरीद नहीं सकते और न ही उनके पास पार्किंग की व्यवस्था है ऐसे में असली समस्या उनकी है कि अगर किसी को अचानक दिल्ली या दिल्ली से बाहर जाना पड़े तो क्या वे तारीख बदलने का इंतजार करे। ऐसे तमाम सवालों से जूझते हुए दिल्ली नरेश ने एक जनवरी से पन्द्रह जनवरी तक सभी स्कूलों को बंद रखने और उन स्कूलों की बसों को भी आम जनता के लिए लगाने का ऐलान किया। इसे प्रयोग शुरू होने से पहले ही केवल जिद्द पूरी करते हुए पलायन का रास्ता दिखाना ही जाएगा। सभी जानते हैं कि जब स्कूल खुलेंगे तो भीड़ बढ़ेगी लेकिन बसे घटेंगी तब क्या होगा? 
खैर दिल्ली ने अपनी मनमानी करने की ठान ली तो ठान ली। प्रथम दिन मात्र एक घंटें बाद इस प्रयोग को पूरी तरह सफल बताने से शुरू हुई सुर्खियां दावों और प्रतिदावों में बदल गई। कुछ मित्र सम-विषम लागू होने से फूले नहीं समा रहे हैं तो कुछ सरकार को कोसने में लगे हैं। लगा जैसा दिल्ली  का प्रदूषण ने वायुमंडल से मन- मस्तिष्क तक हर जगह अपनी पैठ बना ली हो जिसे देखों वही वास्तविकता की बजाय घर बैठे राजनैतिक आधार पर इस फार्मुले की सफलता- असफलता का फतवा दे रहा हैं। आखिर क्यों बंट रहा है समाज? क्यों सही उपचार नहीं हो पा रहा है किसी भी समस्या का? अनेक मित्र अपने-अपने आकाओं के इशारे पर दिल्ली की मुस्कुराहट से आंसूओं के चित्र प्रस्तुत कर अपने पक्ष को मजबूत बता रहे हैं तो दूसरे के चित्र को नकली घोषित कर रहे है। यह सत्य है कि कुछ पॉश कालोनियों में जहां हर घर में सदस्यों से ज्यादा कारंे हैं वहां का दृश्य कुछ जरूर बदला है लेकिन अधिकांश क्षेत्र में कोई विशेष अंतर नहीं है। लगभग वही मारा-मारी। वही ट्रैफिक जाम। कहीं-कहीं तो समस्या पहले से भी ज्यादा।
दिल्ली का दुर्भाग्य है कि यहां  किसी भी समस्या का समाधान इतने चलताऊ ढ़ंग से किया जाता है कि कुछ ही दिनों में समस्या पहले से भी अधिक विकराल रूप धारण कर लेती है। कुछ वर्ष पूर्व  रिहायशी क्षेत्रों से फैक्ट्रियां हटाई गई। फिर वाहनों को सीएनजी वाला किया गया। कुछ दिन सुधार जरूर हुआ लेकिन शीघ्र ही फिर वहीं हाल हो गया। स्पष्ट है कि खूब शोर-शराबे और सुर्खियों की चाह ने बीमारी की ठीक से पहचान ही नहीं होने दी।  स्वयं को सबसे योग्य चिकित्सक बताने वाले भ्रष्ट से ईमानदार तक हर नेता ने ऊपरी लक्षणों को बीमारी मानने की भूल की। प्रदूषण के लिए केवल वाहन जिम्मेवार हैं ऐसा मानने वाले झोलाछाप डाक्टर ही तो हैं जिनके लिए चेहरे के पीलेपन का इलाज गुलाबी पाउडर लगाकर किया जा सकता है। शायद तत्कालिक रूप से वे चेहरे को गुलाबी दिखाकर सुर्खियों बटोर लें लेकिन उन्हें समझना होगा कि वाहनों से तो मात्र 15 प्रतिशत ही प्रदूषण होता है। समस्या की जड़ जनसंख्या के बेतहाशा बढ़ने में हैं। उस पर भी कुछ महानगरों और नगरों  में विकास जरूर दिखता हैं परंतु छोटे नगर और गांव आज भी उपेक्षित हैं। पढ़ाई, दवाई से कमाई तक के लिए राजधानी दिल्ली का आकर्षण उन्हें यहां खींच लाता हैं। उसपर वोट बैंक की चाह में झुग्गियों को संरक्षण देने की प्रवृति का अपना प्रभाव है। दुःखद बात यह है कि इस प्रवृति के विरूद्ध बोलना तो दूर कोई भी नेता इसे स्वीकारने तक को भी तैयार नहीं है। वे भी नहीं जो ‘ईमानदारी’ से प्रदूषण मुक्त दिल्ली बनाने की ठाने हैं। 
दिल्ली के फुटपाथ ही नहीं सड़कों का बहुत बड़ा हिस्सा भी रेहड़ी पटरी वालों ने कब्जा रखा है। इससे यातायात में बाधा उत्पन्न होती हैं। मिनटों की दूरी घंटों में बदल जाती है। विदेशी मुद्रा से आयातित तेल बर्बाद होता है तो प्रदूषण भी बढ़ता है। होता है तो होता रहे पर उनकी बला से। सब ठेंगे पर। नांगलोई रेलवे की जमीन पर बसे वोट बैंक के कारण प्रति दिन हजारों लोग परेशान होते रहें। सरकारी कार्यालयों से कोर्ट की शरण में जाने के बाद जमीन कब्जे से मुक्त तो हुई लेकिन राजनैतिक नौंटकी शुरू हो गई। क्या राजनैतिक नटों से दिल्ली के वातावरण को प्रदूषण मुक्त करने की आपेक्षा की जा सकती हैं?
केवल दिल्ली ही क्यों सभी महानगरों कमोवेश इसी रोग से ग्रस्त हैं। अतिकेन्द्रीकरण के दुष्परिणामों को जानते हुए भी अजान बनने वालों की राजनैतिक मजबूरी कहें या नौटंकी वे ही सबसे बड़े प्रदूषक हैं। केवल जुमले उछालने अथवा स्वयं को एकमात्र ईमानदार घोषित करने से देश का भला होने वाला नहीं हैं। इसके लिए कुछ कड़वे घूंट भी पीने और पिलाने पड़ेंगे। सबसे पहले जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून बनें। जो भी दल इसका विरोध करे उसकी मान्यता समाप्त की जाए। वोट ही नहीं लेना होगा तो वोटबैंक की मजबूरी भी नहीं रहेगी। शायद तब कुछ समझदारी उत्पन्न हो। ध्यान रहे मूर्खतापूर्ण ईमानदारी से समझदारी बेहतर होती है। समझदारी इसी में हैं कि अनावश्यक शोर मचाने की बजाय कुछ करके दिखाने का जनून पैदा किया जाये। केवल वोट बैंक के अनुसार चलने वाली विषम राजनीति को सम बनाने के प्रयत्न भी तो होने चाहिए। और दुर्भाग्य से अगर ऐसा नहीं हुआ तो आज का प्रदूषण अराजकता में बदल सकता है और आज के राजनैतिक नायक इतिहास के कूड़ेदान में होंगे अपने हाथ, हाथी, फूल, साईकिल और झाडू सहित। 
 विनोद बब्बर संपर्क-  09458514685, 09868211911
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