शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन बिना असंभव है ‘स्किल्ड इंडिया’ Skill India # Joke without Changing Education system
किसी भी शिक्षा संस्थान का अपनी गुणवता और उपलब्धियों के लिए चर्चित होना श्रेयस्कर हो सकता है लेकिन अनुशासनहीनता अथवा देशद्रोही नारे उसकी कीर्ति को कलंकित ही करते हैं। दुर्भाग्य से हमारे कुछ विश्वविद्यालय शिक्षा के इतर कारणों से लगातार चर्चा में है। देश केे सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रपति रहे डा. अब्दुल कलाम अपनी अंतिम सांस तक युवाओं को गुणवत्ता वाली शिक्षा के लिए प्रयासरत रहे तो प्रधानमंत्री जी भी ‘स्किल्ड इण्डिया’ पर जोर दे रहे हैं। लेकिन भारत में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति पर पिछले दिनों राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसी ईआरटीे) के एक अध्ययन में यह तथ्य सामने आया कि देश में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति बदहाल हैं। यदि गंभीरता से विचार करें कि हमारे यहां दोहरी शिक्षा प्रणाली है वहां सरकारी स्कूलों और निजी स्कूलों की शिक्षा गुणवत्ता काफी भिन्न है। बेशक कुछ राज्यों में परीक्षा परिणाम सरकारी स्कूलों की स्थिति में ‘जबरदस्त परिवर्तन’ प्रदशित करते हो लेकिन सत्य यह है कि सरकारी स्कूलों के छात्र न केवल भाषा में थोड़ी कठिनता को समझ नहीं पाते हैं वहीं गणित में सामान्य जोड़-घटा भी नहीं कर पाते। इस प्रकार की सिथति में सामाजिक स्तर के आधार पर अंतर में भी काफी विभिन्नता है।
दिल्ली की वर्तमान सरकार ने हाल ही में सरकारी स्कूलों के छात्रों को कक्षा में रोकने के लिए दीवारे ऊंची करने और सीसीटीवी लगाने की बात कहीं है वही छात्रों की पूरे समय उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए दो बार हाजिरी लेने तथा शिक्षकों को जिम्मेवार ठहराने की बात कही है। इसके अतिरिक्त वर्तमान में कक्षाओं में बच्चों की संख्या 60-70 तक है। कमोवेश यही दशा देश के अन्य राज्यों की भी है। जबकि फिनलैंड में हर 14 बच्चे पर एक अध्यापक का मानक है। यहां फिनलैंड की चर्चा इसलिए क्योंकि वहां सभी को समान शिक्षा समान स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती है। जबकि हमारे देश में समानता के दावे तो जरूर है लेकिन उनमें कितनी वास्तविकता है यह सभी जासनते हैं। आज हमारे देश में शायद ही किसी की प्राथमिकता अध्यापक बनना हो। यहां लोग डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस, जज, यहां तक कि नेता बनना चाहते हैं परंतु अध्यापन मजबूरी में ही अपनाते है।
यूरोप के सातवें लेकिन भारत से आकार में काफी छोटे देश फिनलैंड ने शिक्षा के क्षेत्र में पिछले कुछ दशकों में कुछ ऐसा किया है जो हमारे लिए अजूबा हो सकता है। भारत से हजारों मील दूर अपने जंगल, सउना बाथ और शिक्षा के लिए प्रसिद्ध फिनलैंड के एक हिस्से में 51 दिन की रात होती है. सूरज निकल ही नहीं पाता है। वहां के गांव भारतीय गांव जैसे ही हैं। लेकिन वहां हुए अध्ययन के अनुसार कक्षा में अध्यापक न हो तो बच्चों हुडदंग या मस्ती नहीं बल्कि बांसुरी, फ्लूट आदि संगीत वाद्य बजाने की प्रैक्टिस करते है। हमारे ग्रामीण स्कूलो में सुविधाओं का अभाव देखा जा सकता है लेकिन फिनलैंड के ग्रामीण स्कूल में शिक्षा ही नहीं, संगीत प्रशिक्षण के लिए आधुनिकतम म्यूजिकल इंन्सट्रूमेंट भी मिलेंगे। मनोरंजक गीतों के माध्यम से भाषा तथा अन्य विषयों की जानकारी दी जाती है। वहां 3 वर्ष नहीं बल्कि सातवे साल में स्कूल प्रवेश होता है। अध्यापक भी टीचर नहीं. बल्कि सहपाठी होते हैं।
लंच में छात्र और अध्यापक एक ही डाइनिंग रुम में जाते है।ं वहां 1943 में मुफ्त मिडडे मील दिया जाता है। ताजा, गर्म, स्वादिष्ट भोजन सभी बच्चे चाव और अनुशासन से ग्रहण करते हैं जबकि हमारे यहां मिड डे मील के नाम पर मजाक ही होता है। छात्र पढ़ाई के साथ-साथ सक्रिय रहने वाली गतिविधियों, खेलकूद भी भाग लेते हैं जिससे उनमें टीम भावना और आपसी सूझ बूझ व विश्वास पैदा होता है। खास बात यह है कि गांव हो या शहर दोनों ही जगह पढ़ाई एक जैसी और बिल्कुल मुफ्त है। इसी का प्रभाव है यहां के 99 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढते है। हमारे यहां की तस्वीर बिल्कुल उल्ट है। यहां निजी स्कूलों न केवल मोटी फीस वसूलते है बल्कि दाखिले के समय अनेक नामों से भारी भरकम राशि वसूलते हैं। लगभग हर दल की सरकार और नेता इस विसंगति कोे रोकने की बातें तो करते हैं लेकिन वे यह समझने को तैयार नहीं कि जबतक सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के साथ खिलवाड़ होता रहेगा, तबतक बच्चांे को बेहतर शिक्षा दिलवाने के लिए अभिभावक निजी स्कूलों की ओर भागने को मजबूर है। जब सरकारी स्कूलों की स्थिति बदलेगी, उसी दिन शिक्षा में असमानता की खाई मिट जाएगी। न कोई मैनेजमेंट कोटा होगा, न दाखिले की मारामारी। तभी उत्कृष्टता के लिए निजी स्कूल की ओर देखने की मजबूरी खत्म होगी।
फिनलैंड में अध्यापक पहली क्लास का हो या 12वीं का, मास्टर्स डिग्री जरुरी है। लेकिन टीचर्स ट्रेनिंग अलग-अलग प्रकार की होती है। नयी चुनौतियों के लिए ट्रेनिंग का तरीका भी लगातार बदल रहा है। छठी तक के अध्यापक को छोटे बच्चों को पढ़ाना होता है। वे आमतौर पर सभी विषय पढ़ाते हैं इसलिए उनकी ट्रेनिंग अलग होती है। उसके बाद अलग-अलग विषयों के टीचर होते हैं जो अपने विषय में मास्टर्स डिग्रीधारक होते है। यूनिवर्सिटी में एडमिशन भारत जितना सहज नहीं है। केवल गंभीर सुपात्र ही प्रवेश पाते हैं। जबकि हमारे यहांकालेज की फीस स्कूल से कम होने के कारण समय बिताने वाले या छात्र राजनीति के इच्छुकों की भीड ज्यादा है। में यदि शैक्षिक वातावरण नहीं है तो स्पष्ट है कि दोष किसका है।
कुशलता और स्वस्थ प्रतियोगिता के अतिरिक्त वहां कमजोर बच्चो पर विशेष ध्यान दिया जाता है। अगर सुधार नहीं होता तो उसके लिये अलग से टीचर बुलाये जाते हैं। सभी बच्चों को कानूनन 7 साल से 16 साल तक स्कूल में पढाई करनी होती है. इसके बाद अगर कोई बच्चा चाहे तो एक साल और स्कूल में बीता सकता है. और यहीं बच्चे अपनी रुचि के मुताबकि एक बड़ा फैसला करते हैं। उसके बाद उनके पास विकल्प है सेकेण्डरी स्कूल या वोकेशनल स्कूल। वोकेशनल स्कूल कालेज में तरह तरह के काम सिखाये जाते हैं। 9 साल की अनिवार्य शिक्षा के बाद 40 प्रतिशत लड़कियां और 58 प्रतिशत लड़के वोकेशनल स्कूल में दाखिला लेते है। हमारे यहां इस प्रकार की बातें तो दशकों से की जा रही हैं लेकिन उसे व्यवहारिक रूप आज तक नहीं दिया गया। आज भी हमारे प्रधानमंत्री जिस स्किल्ड इंडिया की बात कर रहे हैं वह मातृभाषा को प्राथमिकता देने तथा वोकेशनल कोर्स शुरु किये बिना संभव ही नहीं है।
वर्ष 2000 से हर 3 वर्ष बाद पूरे विश्व के 15 वर्ष के छात्रों को गणित, विज्ञान और भाषायी साक्षरता जैसी कसौटियों पर परखने के लिए प्रोग्राम फॉर इंटरनैशनल स्टूडेंट एसेसमेंट (पीसा) आयोजित किया गया जाता है। यह संयोग नहीं बल्कि तथ्य है कि लगभग हर बार फिनल्ैंड के छात्र अधिकांश कसौटियों पर अव्वल रहें। जबकि भारतीय छात्रों का प्रदर्शन काफी खराब रहा। फिनलैंड जैसे देश में जहां प्राकृतिक संसाधन नगण्य है। आगे बढ़ने के लिए निपुणता (स्किल्ड) होना ही एकमात्र विकल्प है। वहां की सरकार ने प्राथमिक शिक्षा में ही यह सुनिश्चित किया है कि छात्रों को आरंभ से ही ऐसा प्रशिक्षण दिया जाए। जबकि हमारी व्यवस्था इस संबंध में कुछ विशेष नहीं कर सकी है। वहां जिस कार्य को वहां के शिक्षक और सम्पूर्ण शासन मिलकर बखूबी अन्जाम दे रहे हैं, हम स्वतंत्रता के बाद से दोहरी शिक्षा प्रणाली के माध्यम से निजी क्षेत्र को सब सौंपकर उदासीन बने हुए हैं। ऐसे में जबकि संसद का सत्र जारी है और देशभर में शिक्षा के नये सत्र आरंभ होने जा रहे हं, यक्ष प्रश्न यह है कि क्या हमारे कर्णधार इस ओर ध्यान देंगे या राजनैतिक लाभ के लिए देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ जारी रखेंगे?
यूरोप के सातवें लेकिन भारत से आकार में काफी छोटे देश फिनलैंड ने शिक्षा के क्षेत्र में पिछले कुछ दशकों में कुछ ऐसा किया है जो हमारे लिए अजूबा हो सकता है। भारत से हजारों मील दूर अपने जंगल, सउना बाथ और शिक्षा के लिए प्रसिद्ध फिनलैंड के एक हिस्से में 51 दिन की रात होती है. सूरज निकल ही नहीं पाता है। वहां के गांव भारतीय गांव जैसे ही हैं। लेकिन वहां हुए अध्ययन के अनुसार कक्षा में अध्यापक न हो तो बच्चों हुडदंग या मस्ती नहीं बल्कि बांसुरी, फ्लूट आदि संगीत वाद्य बजाने की प्रैक्टिस करते है। हमारे ग्रामीण स्कूलो में सुविधाओं का अभाव देखा जा सकता है लेकिन फिनलैंड के ग्रामीण स्कूल में शिक्षा ही नहीं, संगीत प्रशिक्षण के लिए आधुनिकतम म्यूजिकल इंन्सट्रूमेंट भी मिलेंगे। मनोरंजक गीतों के माध्यम से भाषा तथा अन्य विषयों की जानकारी दी जाती है। वहां 3 वर्ष नहीं बल्कि सातवे साल में स्कूल प्रवेश होता है। अध्यापक भी टीचर नहीं. बल्कि सहपाठी होते हैं।
लंच में छात्र और अध्यापक एक ही डाइनिंग रुम में जाते है।ं वहां 1943 में मुफ्त मिडडे मील दिया जाता है। ताजा, गर्म, स्वादिष्ट भोजन सभी बच्चे चाव और अनुशासन से ग्रहण करते हैं जबकि हमारे यहां मिड डे मील के नाम पर मजाक ही होता है। छात्र पढ़ाई के साथ-साथ सक्रिय रहने वाली गतिविधियों, खेलकूद भी भाग लेते हैं जिससे उनमें टीम भावना और आपसी सूझ बूझ व विश्वास पैदा होता है। खास बात यह है कि गांव हो या शहर दोनों ही जगह पढ़ाई एक जैसी और बिल्कुल मुफ्त है। इसी का प्रभाव है यहां के 99 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढते है। हमारे यहां की तस्वीर बिल्कुल उल्ट है। यहां निजी स्कूलों न केवल मोटी फीस वसूलते है बल्कि दाखिले के समय अनेक नामों से भारी भरकम राशि वसूलते हैं। लगभग हर दल की सरकार और नेता इस विसंगति कोे रोकने की बातें तो करते हैं लेकिन वे यह समझने को तैयार नहीं कि जबतक सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के साथ खिलवाड़ होता रहेगा, तबतक बच्चांे को बेहतर शिक्षा दिलवाने के लिए अभिभावक निजी स्कूलों की ओर भागने को मजबूर है। जब सरकारी स्कूलों की स्थिति बदलेगी, उसी दिन शिक्षा में असमानता की खाई मिट जाएगी। न कोई मैनेजमेंट कोटा होगा, न दाखिले की मारामारी। तभी उत्कृष्टता के लिए निजी स्कूल की ओर देखने की मजबूरी खत्म होगी।
फिनलैंड में अध्यापक पहली क्लास का हो या 12वीं का, मास्टर्स डिग्री जरुरी है। लेकिन टीचर्स ट्रेनिंग अलग-अलग प्रकार की होती है। नयी चुनौतियों के लिए ट्रेनिंग का तरीका भी लगातार बदल रहा है। छठी तक के अध्यापक को छोटे बच्चों को पढ़ाना होता है। वे आमतौर पर सभी विषय पढ़ाते हैं इसलिए उनकी ट्रेनिंग अलग होती है। उसके बाद अलग-अलग विषयों के टीचर होते हैं जो अपने विषय में मास्टर्स डिग्रीधारक होते है। यूनिवर्सिटी में एडमिशन भारत जितना सहज नहीं है। केवल गंभीर सुपात्र ही प्रवेश पाते हैं। जबकि हमारे यहांकालेज की फीस स्कूल से कम होने के कारण समय बिताने वाले या छात्र राजनीति के इच्छुकों की भीड ज्यादा है। में यदि शैक्षिक वातावरण नहीं है तो स्पष्ट है कि दोष किसका है।
कुशलता और स्वस्थ प्रतियोगिता के अतिरिक्त वहां कमजोर बच्चो पर विशेष ध्यान दिया जाता है। अगर सुधार नहीं होता तो उसके लिये अलग से टीचर बुलाये जाते हैं। सभी बच्चों को कानूनन 7 साल से 16 साल तक स्कूल में पढाई करनी होती है. इसके बाद अगर कोई बच्चा चाहे तो एक साल और स्कूल में बीता सकता है. और यहीं बच्चे अपनी रुचि के मुताबकि एक बड़ा फैसला करते हैं। उसके बाद उनके पास विकल्प है सेकेण्डरी स्कूल या वोकेशनल स्कूल। वोकेशनल स्कूल कालेज में तरह तरह के काम सिखाये जाते हैं। 9 साल की अनिवार्य शिक्षा के बाद 40 प्रतिशत लड़कियां और 58 प्रतिशत लड़के वोकेशनल स्कूल में दाखिला लेते है। हमारे यहां इस प्रकार की बातें तो दशकों से की जा रही हैं लेकिन उसे व्यवहारिक रूप आज तक नहीं दिया गया। आज भी हमारे प्रधानमंत्री जिस स्किल्ड इंडिया की बात कर रहे हैं वह मातृभाषा को प्राथमिकता देने तथा वोकेशनल कोर्स शुरु किये बिना संभव ही नहीं है।
वर्ष 2000 से हर 3 वर्ष बाद पूरे विश्व के 15 वर्ष के छात्रों को गणित, विज्ञान और भाषायी साक्षरता जैसी कसौटियों पर परखने के लिए प्रोग्राम फॉर इंटरनैशनल स्टूडेंट एसेसमेंट (पीसा) आयोजित किया गया जाता है। यह संयोग नहीं बल्कि तथ्य है कि लगभग हर बार फिनल्ैंड के छात्र अधिकांश कसौटियों पर अव्वल रहें। जबकि भारतीय छात्रों का प्रदर्शन काफी खराब रहा। फिनलैंड जैसे देश में जहां प्राकृतिक संसाधन नगण्य है। आगे बढ़ने के लिए निपुणता (स्किल्ड) होना ही एकमात्र विकल्प है। वहां की सरकार ने प्राथमिक शिक्षा में ही यह सुनिश्चित किया है कि छात्रों को आरंभ से ही ऐसा प्रशिक्षण दिया जाए। जबकि हमारी व्यवस्था इस संबंध में कुछ विशेष नहीं कर सकी है। वहां जिस कार्य को वहां के शिक्षक और सम्पूर्ण शासन मिलकर बखूबी अन्जाम दे रहे हैं, हम स्वतंत्रता के बाद से दोहरी शिक्षा प्रणाली के माध्यम से निजी क्षेत्र को सब सौंपकर उदासीन बने हुए हैं। ऐसे में जबकि संसद का सत्र जारी है और देशभर में शिक्षा के नये सत्र आरंभ होने जा रहे हं, यक्ष प्रश्न यह है कि क्या हमारे कर्णधार इस ओर ध्यान देंगे या राजनैतिक लाभ के लिए देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ जारी रखेंगे?
--विनोद बब्बर 09458514685, 09868211 911
शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन बिना असंभव है ‘स्किल्ड इंडिया’ Skill India # Joke without Changing Education system
Reviewed by rashtra kinkar
on
23:32
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