वन्स अपान ए टाइम...! Once Upon a time
जीव से आदिमानव और आदिमानव से आधुनिक मानव बनने की दूरी कितनी है? इसका इतिहास भूगोल क्या है? शिक्षा और संस्कार की इसमें क्या भूमिका है? किन परिवर्तनों के आधार पर यह वर्गीकरण हुआ इस पर अनेक मत हो सकते हैं क्योंकि समय, काल, परिस्थिति के अनुसार मान्यताओं का भिन्न होना सामान्य व्यवहार लेकिन इस बात से शायद ही कोई समाजशास्त्री असहमत हो कि केवल भय, भूख, मैथून, निन्द्रा तक सीमित आत्मकेन्द्रित जीव को ‘मानव’ नहीं कहा जा सकता। उसमें संवेदना, सहयानुभूति, सहयोग, समर्पण, सहिष्णुता का होना भी आवश्यक है। जीव से मनुष्य बनने के लिए ‘स्वयं’ से आगे बढ़ना प्रथम शर्त है। मनुष्य के बाद परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व की परिकल्पना संभव है।
यहां यह विशेष स्मरणीय है कि कुछ व्यक्ति के समूह अथवा भीड़ को समाज नहीं कहा जा सकता। व्यक्तियों के उस समूह में भाषा, संस्कृति की एकरूपता तो होनी ही चाहिए, साथ ही साथ एक-दूसरे के हितों के प्रति अनुराग हो या न हो लेकिन अहित की भावना हर्गिज नहीं होनी चाहिए। यदि कोई स्वयं को उच्च शिक्षित और आधुनिक घोषित करते हुए अपने समाज के बुजुर्गो के प्रति शील, विनय, श्रद्धा तो छोड़िए असहिष्णुता दिखाये तो समझा जा सकता है कि हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति छेश की भावी पीढ़ी को संस्कार हंस्तातरण में असफल साबित हो रही है। शायद हम यह समझ पाने में असफल रहे है कि मानव शरीर को आहार, मन को प्यार, बुद्धि को विचार और आत्मा को अध्यात्म से साक्षात्कार चाहिए। इन चारों में से एक की भी अनुपस्थिति असंतुलन उत्पन्न करती है। आज जिस तरह से हमारी युवा पीढ़ी आत्मकेन्द्रित होकर स्वच्छन्दता की ओर है उससे कहा जा सकता है कि संस्कार विहीनता उन्हें असामाजिकता की ओर धकेल रही है।
आत्मकेन्द्रितता परिवार और समाज से काटकर व्यक्ति को अकेलेपन का बन्दी बनाती है। स्वयं अपने ही माता- पिता भी उससे आधुनिकता का पर्याय बन चुकी सोशल मीडिया के माध्यम से ही संवाद कर सकते हैं। ऐसे में उसके व्यवहार, विचार और जीवनशैली में असामान्यता दिखाई दे तो दोषी आखिर किसे माना जा सकता है- क्या परिवार, समाज, शिक्षा प्रणाली, अति आधुनिकता या अन्य? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने आहार, प्यार संग आधुनिकतम सुविधाएं तो अपने बच्चों को उपलब्ध करा दी लेकिन सदविचार और अध्यात्म को छोड़ दिया। क्या यह हमारी उसी भूल का परिणाम तो नहीं है कि अध्यात्म को अनुभव किये बिना हमारी युवा पीढ़ी के लिए धार्मिकता मनोरंजन का एक साधन अथवा ढकोसला बन कर रह गये हैं।
गत दिवस एक पंचसितारा होटल के ‘बालरूम’ में आयोजित भजन सन्ध्या में भाग लेने का ‘अवसर’ मिला। एक सुपरिचित भजन गायक का नाम, भव्य हाल, भारी भीड़ का सुयोग था। अपनी खराब आदत में कोई सुधार न करते हुए इस बार भी समय से पांच मिनट पूर्व ही पहुंच गया। यह संतोष की बात थी कि आयोजक वहां उपस्थित थे। हाल में कुर्सी बिछाई जा रही थी। मंच पर भी तैयारियां जारी थी। एक घंटा कब बीत गया, पता ही नहीं चला। इसी बीच उपस्थिति बढ़ी। चाय- काफी का दौर शुरु हुआ। हम अंदर पहुंचे तो आगे की सीटे खाली थी लेकिन फिर वहीं खराब आदत- तीसरी पंक्ति में बैठना पसंद किया। हमारे सामने वाली सीट पर दो बुजुर्ग आकर बैठे ही थे कि अचानक एक युवती प्रकट हुई और अपने अंग्रेजी ज्ञान का परिचय देते हुए उन बुजुर्गा से बोली, ‘सॉरी, दीज सीटस आर आवर्स’ वे भी अंग्रेजी जानने वाले थे। उन्होंने कहा कि जब वे यहां आये तो सभी सीटे खाली थी। आपकी कैसी हुई। आंखे तरेरते हुए महोदया दहाड़ी, ‘यू आर मिसयुजिंग युअर सीनियर सिटीजनशिप। प्लीज लिव आवर सीटस।’ इस पर एक बुजुर्ग बोला, ‘अगर आपका रिजर्वेशन हैं तो हम सीट छोड़ने का तैयार है पर हाल तो अभी खुला है। आपने आरक्षण कब करवाया।’ ओह इतना दुस्साहस! अंग्रेजी जानने वालों को आखिर यह सब कैसे बर्दाश्त हो सकता था। आंखो से शोले बरसाते हुए आधुनिकता की प्रतिमूर्ति बोली, ‘वन्स अपान ए टाइम आई वाज देयर। सो दिस सीट इज माइन।’’ मैं मुस्कुराये बिना न रह सका। इस पर वातानुकुलित हाल होते हुए भी उनका पारा और चढ़ गया। लेकिन इस बार थोड़ी हिन्दी भी चमकी, ‘यू आर टेकिंग एडवान्टेज। इसी लिए तो सीनियर सिटीजन बदनाम है। महिलाओं का सम्मान नहीं करते।’’ सम्मानित महोदया को हिन्दी की जानकारी होने की जानकारी से मेरे अंदर बैठा बूढ़ा भी साहस करके बोला, ‘आप भजन में आई हैं। निश्चित रूप से आपके मन में श्रद्धा भी होगी। कृष्ण कहते हैं- श्रद्धावान लभ्ये ज्ञानम्। आपको यह जानकारी होनी चाहिए कि स्वस्थ और युवाओं के लिए सामने गद्दे लगे हैं। अभी अधिकांशं सीटे खाली हैं, बुजर्गों को इन सीटों से हटाने की बजाय आपको वहां बैठ जाना चाहिए। कम से कम भजन में आकर तो हमंे अपने तनाव और श्रेष्ठता ग्रन्थी को नियंत्रित रखना चाहिए। ये सीट न आपकी है, न इनकी। न जाने कितने आये, बैठे और चले गये। शाश्वत तो प्रभु नाम है। आप कहीं भी बैठकर प्रभु नाम संकीर्तन का आनंद ले सकती है। लेकिन कृपया अपने पिताामह की आयु के इन बुजर्गों से इस तरह का व्यवहार न करें।’
आंखें लाल किये उसने होंठ फड़फडाये और उन बुजर्गों संग मेरा भी आरती वंदन करते हुए वह आगे बढ़ गई। कुछ देर बाद भीड़ बढ़ने लगी। 9 बजे तक हाल फुल हो गया। धीरेन्द्र ने मुझसे पूछा, ‘भजन में कितने लोग होगे?’ मेरा उत्तर था, ‘आयोजक से जानकारी मिल सकती है कि कितनी कुर्सियां बिछी थी और कितने लोगों के लिए गद्दे थे। इससे अनुमान लग जायेगा कि कुल कितने लोग भजन में आये लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि भजन कितने लोगों में आया। केवल भजन में आना ही पर्याप्त नहीं। ऐसे भजन कार्यक्रमों के माध्यम से हमारे अंदर अध्यात्म भी आना चाहिए।’
भजन सन्ध्या देर रात तक जारी रही होगी लेकिन साढ़े नौ बजे हमने सीट छोड़ दी। वापस लौटते हुए अहसास हुआ कि ओह! एक गलती तो हमसे भी हो गया। हमने न तो उस सीट पर अपना नाम लिखा और न ही सीट पर बैठे हुए स्वयं की ‘सैल्फी’ ली। संयोग या दुर्याेग से कभी फिर वहां जाना हो तो कैसे कहेंगे- ‘वन्स अपॉन ए टाइम आई वाज देयर सो... दिज सीट इज माइन!’
वाह मेरी देश के श्रद्धालु देवियों, सज्जनों, भक्तों। भजन की धुन पर झूम तो सकते हो पर उसके निहितार्थ को समझना जरूरी नहीं समझते। ‘हैप्पी फादर्स डे’ कहने में सबसे आगे लेकिन फादर तुल्य बूढ़ों का करते रहो अपमान! क्योंकि आप जानते हैं अंग्रेजी, ‘वन्स अपॉन ए टाइम...!’ आपने नहीं सिखा- अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
आप कहां जानते हैं कि ‘वृद्ध सेवाय विज्ञानत्’ अर्थात वृद्धजनों की सेवा से विशेष ज्ञान एवं विज्ञान की प्राप्ति होती है। आपको किसी ने नहीं बताया कि कभी सब जानते ही नहीं मानते भी थे जों माता-पिता और गुरू का आदर, सम्मान व सेवा करके उन्हें प्रसन्न करता है, वह तीनों लोकों को जीत लेता है और अपने शरीर से दिव्यमान होता हुआ सूर्यादि देवताओं के समान स्वर्ग में आनन्द लेता है।
काश! तुम्हें कोई बताता- ‘वन्स अपॉन ए टाइम.., इस देश के सभी बच्चे, अपने से बड़ों का आदर करते थे। उनके लिए शिक्षा केवल रोजगार का माध्यम नहीं थी बल्कि इंसान बनने की पहली कसौटी थी। बेशक तक लोग अशिक्षित थे लेकिन ज्ञानी थे। वे जानते थे किस तरह से अभावों में भी आनंद से जिया जा सकता है। तब शिक्षा अर्थात् दीक्षा सबके हितों का संरक्षण करते हुए आत्मसम्मान से जीना सिखाती थी। केवल मनुष्यों के सहचर्य में ही नहीं, प्रकृति, पर्यावरण, पशु- पक्षी सहित सम्पूर्ण परिवेश के प्रति सहिष्णुता होनी चाहिए। यह समझदारी उस कौए में भी थी जिसके बारे में हम बचपन में पड़ा करते थे, ‘वन्स अपॉन ए टाइम, देयर वाज एक क्रो। ही वाज वेरी थर्स्टी।’ वह कौए बाग में रखे घड़े का पानी नहीं पी सकता क्योंकि उसमें पानी बहुत कम होने के कारण नीचा था। कौए ने परिवेश? परिस्थितियों को समझकर युक्ति लगाई तो बात बन गई। काश ये भी समझते!
विनोद बब्बर संपर्क- 09458514685, 09868211 911
वन्स अपान ए टाइम...! Once Upon a time
Reviewed by rashtra kinkar
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