न अति न्यायिक सक्रियता, न टकराव- समाधान है समन्वय

न्यायिक सक्रियता बनाम दशकों से लटके मुकद्दमें। तारीख दर तारीख धक्के खाना निर्दोष के लिए सजा सरीखा होना। इन दो ध्रुवों में सत्य आखिर क्या है? देश की सबसे बड़ी अदालत के पूर्वे न्यायमूर्ति श्री संतोष हेगड़े की टिप्पणी, ‘अदालत को ऐसे मामलों में त्वरित सुनवाई करने की जरूरत है.जहां  किसी व्यक्ति को कल फांसी की सजा दी जानी है या अगले दिन परीक्षा है और छात्र को प्रवेश पत्र नहीं दिया गया हो.ता। लेकिन तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता और बॉलीवुड स्टार सलमान खान से जुड़े घटनाक्रमों से न्यायपालिका की छवि खराब हुई. इनमें अदालतों ने उन्हें जमानत दे दी और उनके मामलों की ‘बिना बारी के’ सुनवाई की। इसके उलट जेल में सैकड़ों लोग ऐसे भी जिनकी जमानत याचिका पर भी साढ़े साल बाद सुनवाई होती है। ऐसे मामलों से गलत संदेश जाता हमैं विभिन्न मंचों से कहता रहा हूं कि दो उदाहरणों से न्यायपालिका की छवि खराब हुई।’
पिछले कुछ समय से न्यायिक सक्रियता पर न्यायपालिका और विधायिका के बीच टकराव की स्थिति  है। केन्द्रीय वित्तमंत्री ने टकराव को टालने के लिए ‘एक लक्ष्मण रेखा’ की आवश्यकता पर बल दिया तो उसके उत्तर में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कहना था, ‘जब कार्यपालिका से लोग असंतुष्ट होते हैं तब न्यायपलिका को हस्तक्षेप करना पड़ता है’ ठीक हो सकता हैं लेकिन एक अन्य केन्द्रीय मंत्री का तर्क ‘जब जनता किसी सरकार से असंतुष्ट हो तो उसे सरकार को बदलने का अधिकार है’ भी गलत नहीं कहा जा सकता।
न्यायिक हस्तक्षेप बनाम टकराव पर पर ग्रीन ट्रिब्यूनल पर आये कोर्ट के आदेश को देखना आवश्यक है।  पिछले दिनों ग्रीन ट्रिब्यूनल ेने दिल्ली से गुजरने वाले वाणिज्यिक वाहनों पर कर लगाया है, तो माननीय उच्चतम न्यायालय ने उसे उचित ठहराया जबकि  संविधान के अनुच्छेद 265 क अनुसार- ‘कानून के बिना किसी प्रकार का कर नहीं लगाया जा सकता।’ ऐसे ही कारणों से सरकारें  न्यायपालिका द्वारा ‘कदम दर कदम, ईंट दर ईंट’ विधायिका को ध्वस्त करने को लोकतंत्र के विरूद्ध बताती  रही है तो विपक्ष के अनेक नेताओं इस ‘आक्रमण’ से बचने के लिए सांसदों के बीच एकता की जरूरत पर बल देते हैं। वैसे सरकार और विधायिका में एक-दूसरे के प्रति असंतोष कोई नया नहीं है। 1996 में क्षेत्राधिकार पर चर्चा  के लिए संसद का एक विशेष सत्र बुलाने की मांग उठी। 2006 में संसद में एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के माध्यम से इस पर विस्तृत चर्चा भी हुई। अप्रैल 2007 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह चुके है, ‘न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिरेक में विभाजन रेखा बड़ी पतली है और कई बार अदालत कार्यपालिका के काम करने लगती है।’ हालांकि ऐसी प्रतिक्रियाओं पर अगस्त 2005 को मुख्य न्यायाधीश ने बहुत कहा, ‘हमें बताइए, हम अदालत बंद कर देंगे और तब जो मर्जी हो आप करें।’ 
आश्चर्य है कि इस तरह के विवाद उठ रहे है जबकि हमारे संविधान निर्माताओं ने कार्यपालिका और, न्यायपालिका के अधिकार और कर्तव्यों का बहुत स्पष्ट विभाजन किया है। ऐसे में यदि दशकों पुराने   मुकद्दमों के बोझ तले दबी न्यायपालिका एक ओर संसाधनों का अभाव बताये और दूसरी ओर   न्यायिक सक्रियता के माध्यम से गली, नाली, अवैध निर्माण, प्रदूषण, जैसे मामलों पर संज्ञान ले तो समझा जा सकता है कि जहां प्रशासन अपने कर्तव्यों का उचित निर्वहन नहीं कर पा रहा वहीं हमारे न्यायालय भी अपनी प्राथमिकता तय नहीं कर पा रहे है। बेशक जनहित में याचिकाएं स्वीकार करना और उसपर आदेश देना उचित है लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि न्यायालय  विधायिका का विकल्प नहीं हो सकती है। हमें ऐसी व्यवस्था विकसित करनी चाहिए जहां प्रशासन के हर अंग की जिम्मेवारी तय करनी होगी बौर अपने कर्तव्यों की अनदेखी पर उसे दण्डित करने का प्रावधान भी हो। वहीं न्यायपालिका को भी हर मुकद्दमें के निपटारे की अधिकतम समय सीमा तय करनी चाहिए।  यहां भी जिम्मेवारी तय किसे बिना बात बनने वाली नहीं है। संसाधनों की कमी अगर मुकद्दमों के दशकों लम्बित होने का बहाना है तो सरकारें भी तो संसाधनों की कमी का रोना रोती है। इन दोनो में आखिर अंतर क्यों किया जाना चाहिए? और महत्वपूर्ण यह भी है कि संसाधनों की कमी के लिए आम जनता किसी भी तरह से जिम्मेवार नहीं है तो फिर वही कार्यपालिका अथवा न्यायपालिका की कार्यक्षमता के हाथो एकमात्र भुगतभोगी क्यों हो? यहां यह विशेष स्मरणीय है कि 1979 में हुसैनआरा खा़तून मामले में सिर्फ एक अंग्रेजी अखबार में कैदियों की अमानवीय स्थिति एवं न्याय की देरी पर प्रकाशित रिपोर्ट के आधार पर दायर वाद पर हमारे माननीय न्यायालय त्वरित न्याय को मौलिक अधिकार घोषित कर चुके हैं।
इस बात से कोई भी असहमति प्रकट नहीं कर सकता कि मुकद्दमों का तारीख दर तारीख दशको लटके रहना कोई आदर्श स्थिति नहीं कही जा सकती। अनेक बार न्याय का इंतजार इस जीवन के बाद भी जारी रहता है। लेकिन कोई भी सभ्य समाज नियम- मर्यादाओं का पालन किये बिना नहीं चल सकता। बेशक हर व्यक्ति के कुछ अधिकार हैं लेकिन हर अधिकार कर्तव्य पालन से जुड़ा हुआ है। यदि समाज किसी व्यक्ति विशेष को अपना स्नेह, समर्थन प्रदान करता है या कोई साधन संपन्न हैं तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह सैलेब्रिटी होकर कानून से परे हैं। यही भाव न्यायमूर्ति श्री संतोष हेगडें का भी रहा होगा कि जब भारतीय संविधान कानून की समानता का उद्घोष करता है लेकिन ऐसे उदाहरण आम आदमी के दिल में न्यायपालिका की छवि को प्रभावित करते है।
न्यायालयों की संख्या बढ़ाना तथा आधुनिक तकनीक का उपयोग आज की आवश्सकता है।  1987 में विधि आयोग ने हर 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 10 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की थी। लेकिन वास्तविकता यह है कि बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में ऐसा करना संभव नहीं हो पाया।  यदि सान्ध अदालतों का गठन, हर माले को मध्यस्थता के माध्यम से निपटाने, गंभीर मामलों का सत्य जानने के लिए खुफिया जांच करना,   बार -बार न्यायाधीशों की बदली को रोक कर समाधान की कुछ आशा की जा सकती है। प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय को अपनी विशेष निगरानी में शीघ्र निपटारे का अभियान चलाना चाहिए जिसमें छुट्टियों में कटौती तथा समय-सारणी को व्यवहारिक करने जैसे प्रयोग भी किये जा सकते है। तय बजट का सही उपयोग कर सकारात्मक बदलाव प्राप्त किये जा सकते हैं।
अभी हाल ही में आयोजित एक सम्मेलन में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय ने प्रधानमंत्री की उपस्थिति में भावुक होते हुए कहा था, ‘मैं आपसे विनती करता हूं कि सिर्फ वादी के लिए नहीं। जेल में सड़ रहे गरीब वादी के लिए ही नहीं, बल्कि देश और प्रगति के लिए भी यह समझिए कि न्यायपालिका की आलोचना करना पर्याप्त नहीं है। आप सारा दोष न्यायपालिका पर नहीं डाल सकते।’ सम्मेलन में प्रधानमंत्री के बोलने का कार्यक्रम नहीं था। लेकिन उन्होंने मंच पर आकर कहा कि समस्या के समाधान के लिए वे ईमानदारी से कोशिश करेंगे।
जहां तक न्यायाधीशों की कमी का प्रश्न है, पिछले दिनो 99वां संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए व्यवस्था को सरल बनाने का प्रयास किया गया। जिसे संसद तथा 20 राज्यों की विधानसभाओं ने इसे निर्विरोध पारित किया था। इसे भी बाधित कर दिया गया जिससे बढ़ते मामलों के निपटारे की आशा धूमिल होती है। अतः दोनो पक्षों को टकराव की बजाय सदभावना से समाधान निकालने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए ताकि देश के संविधान और कानून में  आम आदमी की आस्था बरकरार रहे। दुर्भाग्य से यदि न्याय के नाम पर केवल तारीख ही बंटती रही और प्रभावशाली लोग विशेष व्यवस्था के अंतर्गत लाभांवति होते रहे तो हो सकता तो कानून को अपने हाथ में लेने की प्रवृति को बढ़ने से रोकना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य होगा। ध्यान रहे ऐसी परिस्थितियों दुनिया भर में भी बनती रही है। अन्यथा तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जेफर्सन ने अकारण तो नहीं कहा होगा, ‘न्यायिक सक्रियता संविधान को मोम का लोंदा बना देती है, जिसे जज जो शक्ल देना चाहें, दे यकता है।’ नेहरू जी ने भी जुडिशरी को तीसरा सदन बनने से रोकने की बात कही थी। वर्तमान  राष्ट्रपति जी ने भोपाल के एक समारोह में न्यायिक सक्रियता के जोखिमों के प्रति सचेत करते हुए सामंजस्य का आह्वान किया था।
---------विनोद बब्बर 9868211911 
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