दहेज कानून का दुरुपयोग-- परिवार में बढ़ता विखण्डन

इन दिनों कर्नाटक के डॉ संतोष कुमार पोतदार साईकिल पर देश भ्रमण कर रहे है। अपने देश को जानने अथवा रोजी-रोटी के लिए देशभ्रमण सामान्य बात है लेकिन डॉ. संतोष का उद्देश्य इन सबसे अलग है। वे दहेज प्रताडना कानून (498ए) के बारे में जागरूकता अभियान पर है। अपने मार्ग में आने वाले हर जिला मुख्यालय पर जाकर संबंधित अधिकारी को दहेज कानून के दुरूपयोग को रोकने के लिए ज्ञापन सौंपने के अतिरिक्त आम लोगों से भी चर्चा करने वाले डॉ. संतोष सरकार के मुखिया से भी सम्पर्क कर उन्हें इस कानन के कारण समाज में फैल रहे तनाव की जानकारी देना चाहते है। 
भुगतभोगी संतोष के तर्क्र प्रथमदृष्टया सही लगते हैं क्योंकि एक मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस अजीत पसायत और एचके सेमा ने 498ए को कानूनी आतंकवाद की संज्ञा देते हुए कह चुकी है, ‘जांच एंजसियों और अदालतों को पहरेदार की भूमिका निभानी चाहिए। निश्चित रूप से ही उनका प्रयास यह देखना भी चाहिए कि कोई भी निर्दाेष व्यक्ति आधारहीन और दुर्भावनापूर्ण आरोपों का शिकार न बने।’  ज्ञातव्य है कि धारा 498ए के दुरुपयोग की शिकायतों पर सुप्रीम कोर्ट ने 2 जुलाई, 2014 को सभी पुलिस प्रमुख और मजिस्ट्रेटों से कह चुका है कि वे आईपीसी की धारा 498 ए के तहत अपने आप ही रिश्तेदारों को अरेस्ट और डिटेन न करें। पुलिस को अरेस्ट करने के कारणों का आधार मजिस्ट्रेट को देना होगा।’ 
निवर्तमान राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल  भी 498ए के दुरुपयोग पर चिंता जता चुकी है। उनके अनुसार - इस तरह की घटनाएं सामने आई हैं जिसमें महिलाओं की भलाई के लिए बनाए गए कानूनी प्रावधानों को तोड़ मरोड़ कर आपसी बदला लेने के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है। जो कानून महिलाओं की सुरक्षा के लिए बना है अगर वह पति और उनके रिश्तेदारों को परेशान करने का हथियार बन जाए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। 
जैसाकि परिवारिक मतभेद होने अथवा अपनी जिम्मेवारी पूरी न कर पाने के आरोप से बचने के लिए उलटा चोर कोतवाल को डांटे वाला प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ा है।  ससुराल वालों को आर्थिक, मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के लिए अलग रहने वाले सदस्यों का ही नहीं परिवार से सहानुभूति रखने वाले किसी पड़ोसी अथवा सामाजिक लोगों का नाम भी लिखवा कर दबाव बनाना चाहती है। वकीलो के अनुसार यह रणनीति पति और उसके परिजनों को गुलाम बनकर रहना स्वीकार करने अथवा समझौते के तहत अधिक से अधिक एकमुश्त रकम प्राप्त करने का हिस्सा है। आश्चर्य यह है कि महिला आयोग और नारीवादी संगठनों की दृष्टि में केवल बहु ही महिला है। सास, ननद  ही नहीं। मरणासन्न दादी सास अथवा वर्षो से सैंकड़ो हजारो किमी दूर रहने वाले महिला रिश्तेदारों के भी किसी प्रकार के कोई महिला अधिकार नहीं होते। इससे भी बडा आश्चर्य यह है कि जिस देश में देशद्रोहियों और आतंकवादियों के मानवाधिकार होते हैं वहां इस कानून के तहत मामला दर्ज होने पर वर्षों जेल में सड़ने वालों के मानवाधिकार तो बिल्कुल भी नहीं हो सकते। 
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ो के अनुसार  पिछले 10 सालों में शादीशुदा पुरुषों में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। 2011 में 47,746 महिलाओं तो 87,839 पुरुषों ने आत्महत्या की. 2012 में 46,992 महिलाओं लेकिन  88,453 पुरुषों ने अपनी जीवन लीला स्वयं समाप्त की। इन सभी आंकड़ों में अधिकांश विवाहित पुरुष हैं और आत्महत्या का कारण घरेलू झगड़े हैं। विशेषज्ञों का मत है कि यदि दहेज उत्पीडन कानून का दुरुपयोग नहीं रोका गया तो ं ऐसी आत्महत्याएं और बढ़ सकती हैं।
अनुभवी लोगों को मानना है कि बदलते परिवेश में जबकि भौतिकवाद का प्रभाव बढ़ा है। नैतिक मूल्यों की अनुपस्थिति में सभी आत्मकेन्द्रित हो रहे हैं। ऐसे में लड़कियां भी शादी से पहले तो अपने परिवार पर तरह के तरह के दबाव बनाती है और शादी के बाद उनकी मानसिकता ससुराल में ऐसों किसी भी तरह की जिम्मेवारी से  मुक्त जीवन चाहने लगी है। चूंकि परिवार स्वच्छन्दता का नहीं जिम्मेवारी का पर्याय होता है। अतःयथार्थ को स्वीकारने की बजाय ऐसे कानून को हथियार बनाने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि दहेज के शत-प्रतिशत  मामले झूठे होते है। यह सत्य है कि दहेज हमारे समाज का यथार्थ है। इस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर ही इस अभिशाप से छुटकारा संभव है। इसके लिए जरूरी है दहेज लेने वाले ही नहीं बल्कि देने वालों के विरूद्ध भी कार्यवाही की जाये। यह भी सत्य है कि अनेक मामलों में सचमुच दहेज उत्पीड़न होता है लेकिन इससे बड़ा सत्य यह है कि ऐसे अधिकांश मामलों में महिलाएं आज भी थाने और अदालत की पहुंच से बहुत दूर है। शहरों, कस्बों में कुछ लोग कुछ वकीलों के व्यवसायिक भड़कावे पर इस कानून के दुरुपयोग का सबब बनते है। 
ऐसे प्रयासों को दुष्परिणाम ही है कि पति-पत्नी के विवाद में निर्दोष बच्चे और परिजन पिसते है। अनेक मामलों का समाज पर विचित्र परिणाम भी देखने को मिलने लगे है। अनेक लोग स्वयं को समाज की नजरों में अपराधी मानते हुए अवसाद का शिकार हो जाते है। अनेक मामलों में उस परिवार के योग्य बच्चों की शादी में भी समस्या आने लगती है। कभी-कभी गलत तरीके से फंसाए गए पति के छोटे भाई, रिश्तेदार और दोस्त आतंकित होकर शादी से डरने लगते हैं अथवा आजीवन अविवाहित रहना चाहते है। ऐसे में समाज की सदियों पुरानी विवाह संस्था और सामाजिक मूल्य प्रभावित हो सकते है। समाज शास्त्रियों के मतानुसार यदि यही सब जारी रहा अर्थात नई बहू नए परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों की बजाए केवल कानूनी अधिकार की सीख लेकर ही ससुराल आएगी तो बहुत संभव है विवाह नामक संस्था खत्म हो जाएगी। समाज भी केवल अपनी सुविधा के अनुसार कानून और परम्पराओं की व्याख्या करने लगे तो हमारी सामाजिक व्यवस्था को चरमराने से रोकना कठिन होगा।
यह विशेष स्मरणीय है कि हमारी सबसे बड़ी अदालत पहले ही कह चुकी है कि यदि कोई महिला अपने पति और ससुराल वालों के खिलाफ निराधार रिपोर्ट दर्ज कराती है और उसे कोर्ट में साबित नहीं कर पाती है, तो पति को तलाक लेने का अधिकार होगा। स्वयं सरकारी आंकड़े गवाह है कि ऐसे मामलों के साबित होने की दर बेहद कम है। पूर्ण प्रतिबंध न होने तथा लेने व देने वाले में अंतर करने के कारण यह कानून अपने उद्देश्य से भटक चुका है। ऊपरी तौर पर महिला अधिकारों का समर्थक दिखने वाला यह कानून स्वयं महिलाओं के हितों पर भारी पड़ रहा है। अतः यह जरूरी है कि दहेज कानून के स्वरूप पर पुनर्विचार करते हुए दोषियों को किसी भी कीमत पर बचने न देने और निर्दोषों को तंग न करने वाले प्रावधान बनाने की जरूरत है।
इस सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए दहेज देने वाले व लेने वाले दोनों को गुनाहगार मानना होगा। लेने वाले के खिलाफ केस दर्ज हो लेकिन देने वाले को पीडित मानने की अवधारणा को बदलना होगा। शादी के समय लेनदेन को किया गया हो तो शादी को खारिज कर दिया जाए व कानून के तहत दहेज देने वाले को कानून के तहत प्रमाण होने पर तुरंत जेल भेजा जाए। आज सूचना प्रौद्य़ोगिकी की सहज उपलब्धता के कारण ऐसे सबूत जुटाना असंभव तो क्या कठिन भी नहीं है। जिसने दहेज दिया है उस की स्रोत की जांच हो ताकि उस पर टैक्स लगाया जा सके। क्या यह उचित नहीं होगा कि ऐसे मामले पुलिस की बजाय परिवार अदालतों के पास जाये जहां वकीलो पर प्रतिबंध हो। अदालत की मदद के लिए मनोचिकित्सक और अनुभवी समाजसेवियों को भी इस पैनल में शामिल किया जाए? क्योंकि महिला अधिकार, पुरुष अधिकार, पति अधिकार, पत्नी अधिकार से भी बड़ी जरूरत सबको उन्हें उनके कर्तव्य भी बताये सिखाये जाये। मानवाधिकार और मानव कर्तव्यों को एक दूसरे से जोड़ने की जरूरत है वरना ऐसे कानून अपने उद्देश्य में सफल होने के स्थान पर भयादोहन (ब्लैकमेल) का कारण बनते रहेगे। अन्यथा समाज में शांति और स्थिरता की कामना करना स्वयं को धोखा देने के समान होगा।
 विनोद बब्बर 9868211911
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