कटघरा राजनीति के निहितार्थ Unite we Stand, devide we fall


लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण है। जागरूक विपक्ष लोकतंत्र का प्रहरी कहा जाता है। दुर्भाग्य से हमारे आस-पास का परिवेश लोकतंत्र की दृष्टि से बहुत सफल नहीं कहा जा सकता। कुछ देशों में नाम मात्र का लोकतंत्र है तो कुछ में लोकतंत्र फौजी जूतों तले ‘फल-फूल’ रहा है। लेकिन  यह हमारा सौभाग्य है कि आपातकाल के एक काले दौर को छोड़ दे तो भारत में पक्ष-विपक्ष दोनो ने विचार भिन्नता और असहमति के बावजूद अपने आचरण को मर्यादित रखा और लोकतंत्र को पटरी से उतरने नहीं दिया।
निश्चित रूप से राजनीति के अनेक आयाम होते हैं। विभिन्न अभियान, विभिन्न गतिविधियां, विभिन्न स्वर लेकिन लक्ष्य केवल एक- ‘येन, केन, प्रकारेण स्वयं को स्वयं को सत्ता के शिखर पर स्थापित करना।’  साम, दाम, दंड, भेद राजनीति का ही सूत्र है। लेकिन किसी भी जिम्मेवार राजनैतिक दल अथवा राजनैतिक व्यक्तित्व से यह आपेक्षा जरूर की जाती है कि वे ऐसा कोई कार्य, वक्तव्य, अभियान न करें जिससे राष्ट्र की प्रतिष्ठा, सुरक्षा बलांे का मनोबल और जनता के बीच सौहार्द्ध प्रभावित हो। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि पिछले कुछ दशकों से भारतीय राजनीति  मर्यादा से दूर होती जा रही है। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है मानों राजनीति और नैतिकता परस्पर विरोधी हो। क्योंकि मीडिया के माध्यम से जनता देख रही है कि अपने तुच्छ राजनैतिक हितों के लिए हमारे ‘बड़बोले’ नेता किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। यूं तो यह प्रवृति पिछले लम्बे समय से है और कमोवेश सभी दल इसके लिए जिम्मेवार है लेकिन 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद इस कड़वाहट में जबरदस्त उछाल आया है। ऐसा लगता है मानों कुछ लोग जनमत को स्वीकार नहीं कर पा रहे है। राजनैतिक विरोधियों के विरूद्ध माहौल बनाने के लिए विरोधियों का चरित्र हनन ही नहीं किया जाता बल्कि सेना और संवैधानिक मर्यादाओं को भी तार-तार किया जा रहा है।
लगातार आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए स्थापित पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों का पिछले दिनों भारतीय सेना ने सीमा पार कर सफाया किया। इस ‘आपरेशन’ को पाकिस्तानी अधिकारियों ने भी स्वीकार किया है लेकिन हमारे ही कुछ नेता इस पर संदेह जताते हुए इसका सबूत मांगते नजर आयें। ऐसा करते हुए उन्हें अपने सैनिकों की वीरता और उनके सम्मान तक को भी ताक पर रखने से परहेज नहीं। वे समझकर भी नहीं समझना चाहते कि दुनिया का कोई भी विवेकी राष्ट्र अपनी सुरक्षा नीति को सार्वजनिक नहीं करता।
गत सप्ताह भोपाल जेल से प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी के 8 खूंखार आतंकी एक जवान की हत्या कर फरार हो गये। इससे हडकम्प मचना  स्वाभाविक था। सरकार को कोसने वाले सक्रिय हो गये। क्योंकि भागने वाले आतंकियों में से 4 इससे पूर्व भी अक्टूबर 2013 में मध्यप्रदेश की खंडवा जेल फरार हो चुके थे। 17 फरवरी, 2016 को राउरकेला में दुबारा गिरफ्तार होने से पूर्व इन लोगों ने 17 आतंकी वारदातों को अंजाम देकर अनेक निर्दोषों की जाने ली। इन खतरनाक आतंकवादियों पर कई संगीन मामलों में मुकद्दमें चल रहे है। सुरक्षात्मक कारणों से इन्हें पेशी पर कोर्ट ले जाने की बजाय वीडियो कांफ्रेंसिंग से सुनवाई होती थी। इतने खतरनाक आतंकवादियों को एक साथ रखते हुए भी सुरक्षा व्यवस्था का पर्याप्त न होना जहां सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलता है वहीं एक साल के भीतर ही ठीक दिवाली का रात को दुबारा जेल तोड़ने का दुस्साहस उनके भयंकर इरादों का  प्रमाण है जिसकी अनदेखी कोई नासमझ ही कर सकता है। अतः लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों को तत्काल निलम्बित कर जांच का आदेश दिया गया।
भोपाल सेंट्रल जेल से इतने खूंखार आतंकवादियों के फरार होने पर  सवाल उठने चाहिए थे। उठे भी। कुछ ने उसे सरकार की मिलीभगत का परिणाम तक बताया गया लेकिन जब कुछ ही घंटों में पुलिस ने आतंकवादियों को घेर कर आत्मसमर्पण के लिए कहा लेकिन वे तैयार नहीं हुए तो इन दुर्दांत आतंकियों को मारने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था।   यह समाचार आते ही आतंकवादियों के फरार होने पर सरकार को कोसने वाले पैतरा बदल कर मुठभेड़ को ही फ़र्ज़ी बताने लगे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वोट बैंक की राजनीति खतरनाक आतंकवादियों के लिए तो आंसू बहाये जा रहे है लेकिन शहीद हुए रमाशंकर यादव का नाम भी किसी के होंठों तक नहीं आया। यह राजनीति का निम्नतम स्तर है जो तात्कालिक लाभ तो दे सकता है लेकिन अंततः आत्मघाती है।
बिना जांच रिपोर्ट का इंतजार किये न्यायाधीशों की तरह फैसला सुनाने की प्रवृति अर्थात अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को कारण- अकारण कटघरे में खड़ा करना राजनीति का विकृत स्वरूप है। आश्चर्य तो यह है कि ऐसा करने वालों में अग्रणीय ‘स्वनामधन्य’ नेता कभी बाटला हाउस की मुठभेड़ तक को फर्जी बताते हुए मारे गये आतंकियों के घर मातमपूर्सी के लिए जा चुके हैं। विश्व के सबसे खतरनाक आतंकी ओसामा बिन लादेन को ‘ओसामा जी’ कहने वाले को उनके दल द्वारा लगातार इस प्रकार की बयानबाजी के लिए खुली छूट देना उसके नेतृत्व की मानसिकता पर प्रश्नचिन्ह है। देश के सबसे पुराने दल को स्वयं सर्वे करा यह जानना चाहिए कि उनके दल की दुर्दशा का कारण कहीं ऐसी बयानबाजी तो नहीं है।
आतंकवादी-पुलिस मुठभेड़ पर जिस तरह राजनैतिक मुठभेड़ की राजनीति चल रही है उससे इसकी छाया ससंद के शीतकालीन सत्र तक पड़नी तय है। यदि ऐसे में पांच राज्यों के आसन्न चुनावों के कारण स्वस्थ बहस का स्थान एक बार फिर से स्थगन और गतिरोध ले तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। लेकिन यह लोकतंत्र के हित में नहीं होगा कि संवाद का स्थान स्थाई रूप से विवाद हथिया लें। इस मसले पर खुली चचा्र होनी चाहिए ताकि यदि सरकार और व्यवस्था की कमियां है वे सामने आये ताकि उन सभी ढ़ीले पेचों को कसा जा सके जिनके कारण आईएसओ पुरस्कार प्राप्त जेल से फरार होने की शर्मनाक घटना ने साकार रूप लिया।
राजनैतिक मुठभेड़ और ससंद में गतिरोध के स्थान पर यदि लापरवाही के दोषियों पर कड़ी कार्यवाही और बम विस्फोट, राजद्रोह, जासूसी, सरकारी खजाने में लूटपाट और सुरक्षाकर्मियों की हत्या जैसे मामलों के अधिकतम 6 माह में निस्तारण का दबाव बनाा जाये तो भविष्य में ऐसे शर्मनाक घटनाओं की पुनार्वृति से बचा जा सके तभी न्याय का कोई अर्थ शेष रहेगा वरना आतंकवाद राजनैतिक लाभ की इच्छा से खाद पानी पाकर लगातार फलता- फूलता रहेगा। निर्दोषों की जान जाती रहेगी। बच्चे अनाथ होते रहेंगे और हमारे नेता मृतको को श्रद्धांजलि और उनके परिजनों को संवेदना संदेश भेजकर अपनी गुणा-भाग में लगे रहेंगे। ऐसा करने वालों को यह हर्गिज नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवाद वह भस्मासूर है जो किसी का सगा नहीं। उसने हमारे  एक प्रधानमंत्री तथा एक पूर्व प्रधानमंत्री तक को निगला है। अतः उससे एक स्वर में केवल और केवल सख्ती की भाषा में ही बात की जानी चाहिए। उससे जरा सी भी उदारता
राजनैतिक नेतृत्व को अपने तमाम मतभेदों, मनभेदों के बावजूद  सर्वसम्मति से ‘वयं पंचाधिक शतम्’ संदेश देते हुए यह स्पष्ट कहना चाहिए कि जिनपर धमकी, अपहरण, अवैध वसूली, हत्या एवं देशद्रोह जैसे कई कई संगीन आरोप हो। जो पहले भी जेल से फरार होकर आतंकी गतिविधियों में शामिल रहे हो। इस बार फरार होते हुए जिन्होंने ड्यूटी पर तैनात एक पुलिसकर्मी की निर्मम हत्या की हो, उन्हें अपने लिए किसी ‘मानवाधिकार’ की कल्पना भी नहीं करनी चाहिए। आखिर जब एक तरफ आतंकवाद का खतरा मंडरा रहा हो और दूसरी ओर पाकिसतान से युद्ध की स्थिति हाक तब राजनैतिक लाभ के लिए कटघरे की राजनीति देश की सुरक्षा से खिलवाड़ के अलावा और कुछ नहीं हो सकती। सरकार को भी बाहरी और भीतरी सुरक्षा जैसे मामलों में लगातार विपक्ष को विश्वास में लेते रहना चाहिए। ध्यान रहे लोकतंत्र केवल एक दिन मतदान का कर्मकांड नहीं है बल्कि लगातार कायम रहने वाली ‘लोक-लाज’ और ‘लोक-सुरक्षा’ के प्रति सचेत रहने का नाम है। सरकारें आती रहेगी, जाती रहेगी लेकिन देश के जन-तन की सुरक्षा और सम्मान सदा रहना चाहिए। हर कीमत पर देश ही पहले।-- विनोद बब्बर  संपर्क-   09868211911 rashtrakinkar@gmail.com


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