शोर में खामोश संसद, दिखावा लोकतंत्र का What a strange democracy


नोटबंदी के सद्प्रभाव जब आयेगे तब आयेगे लेकिन संसद के शीतकालीन सत्र का शोर में डूब जाना ऐसा दुष्प्रभाव है जो लोकतंत्र को गहरे तक नुकसान पहुंचा सकता है क्योंकि एक ओर प्रधानमंत्री कह रहे कि उन्हें संसद में बोलने नहीं दिया जा रहा इसलिए वे जनसभा में अपनी बात रख रहे हें तो दूसरी ओर विपक्ष भी कमोवेश यही बात कह रहा है। आश्चर्य है कि दोनो पक्ष सड़क पर तो बहुत कुछ कह रहे हैं लेकिन संसद उनके शोर से निशब्द है और जनता हतप्रभ क्योंकि वह प्रधानमंत्री जी से चाह कर भी पूछ नहीं पा रही है कि अगर वे बहुमत के बावजूद संसद में बोल नहीं पा रहे हैं तो इसमें जनता का क्या अपराध है? प्रचंड बहुमत उसकी कमजोरी क्यों है ? आखर जनता इससे अधिक उनके लिए क्या करें? क्या संसदीय लोकतंत्र का मतलब अराजकता के समक्ष घुटने टेकना है? यदि नहीं तो पहले से स्थापित संसदीय नियमों के तहत कोई रास्ता निकालना अथवा कार्यवाही न करने के पीछे  क्या विवशता है?
विवश जनता चाह कर भी विपक्ष से नहीं पूछ पा रही है कि आखिर आप अपने इस व्यवहार से लोकतंत्र को घायल क्यों कर रहे हो? संसद को बंधक बनाकर आपने किस प्रकार से जनता के हितों का संरक्षण किया है? आप नोटबंदी को उचित मानते हो लेकिन उसके क्रियान्वयन को गलत मानते हैं लेकिन आपके पास इसके लिए क्या सुझाव हैं? सड़क पर आप सरकार पर घोटले के आरोप लगा सकते हो तो संसद में इन आरोपों के साथ बहस करने से क्यों बचना चाहते हो? आखिर आपको एकतरफा संवाद क्यों भाता है? क्या आपका यह व्यवहार लोकतंत्र को मजबूत कर रहा है?। यदि हाँ, तो किस प्रकार से? क्या यह सही नहीं कि आप जनता द्वारा आपको सौपी गई विपक्ष की भूमिका से संतुष्ट नहीं है और किसी भी तरह से वर्तमान सरकार का बर्दाश्त नहीं करना चाहते हो?
नोटबंदी बनाम संसदबंदी के दौर में हम किस अधिकार से इस बात पर गर्व करे कि दुनिया भारत को सबसे बड़ा लोकतंत्र बताती है? जब हमारी संसद ही शोर में डूबी है तो हम कैसे कहे कि हमने दुनिया को एक श्रेष्ठ शासन प्रणाली दी है? क्या पूरे सत्र का आवश्यक कामकाज निबटाये बिना निपट जाना श्रेष्ठ प्रणाली का प्रमाण है? जनता की आर्थिक पीड़ा को स्वर देने का दावा करने वालों के पास इस बात का क्या जवाब है कि इस सत्र की बर्बादी से करोड़ों की बर्बादी का जिम्मेवार कौन है? एक- दूसरे को दोषी ठहर कर लोकतंत्र की सेवा नहीं की जा सकती। यदि दोनो पक्षों को अपराधबोध नहीं है तो स्पष्ट है कि उन्हें न तो ‘लोक’ की चिंता है और न ही ‘तंत्र’ की। जरूर वे अपनी -अपनी विवशतायें को लेकर विवश है। क्या कभी मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर  मोहम्मद ने ठीक नहीं कहा था, ‘भारत में जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र है वरना........।’
निश्चित और निविवाद रूप से विपक्ष लोकतंत्र का अनिवार्य अंग है। विपक्ष के बिना लोकतंत्र की कल्पना भयावह है। किसी भी सरकार को निरंकुश बनने से रोकने में विपक्ष की भूमिका है। लेकिन जब विरोध ससंदीय कामकाज में अवरोध उत्पन्न करने लगे और वैधानिक संकट तक उत्पन्न होने की स्थिति उत्पन्न होने लगे तो विरोध की सीमाओं पर विचार होना चाहिए। इस बात का कोई अर्थ नहीं कि आज के सत्तारूढ़ पक्ष ने कल जब वह विपक्ष में था तो यही सब किया था। अतः आज उसे इसका विरोध करने का अधिकार नहीं है क्योंकि यह भी याद रखना जरूरी है कि आज के विपक्ष और बीते हुए कल के सत्तारूढ़ दल का इस विरोध के प्रति क्या  रवैया था। क्या वह उस समय इससे असहज नहीं था? क्या बदला लेने की बजाय यह उचित नहीं होता कि आप जिम्मेवार विपक्ष की भूमिका का निर्वहन कर भविष्य के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते?
क्या हताश विपक्ष को इतना भी मालूम नहीं कि किसी भी सजग लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष की भूमिकाओं में कोई भी बदलाव अंतिम नहीं होता। क्या बदला और बदले का बदला लोकतंत्र को आहत नहीं कर रहे हैं? उसे कभी अपने ही वरिष्ठ नेता रहे और वर्तमान में इस देश के सर्वोच्च पद पर आसीन महामहिम की संसद को ठप्प करने के संबंध में टिप्पणी का महत्व और अर्थ समझ में क्यों नहीं आया? 
क्या यह सत्य नहीं कि आज हमारा लोकतंत्र व्यक्तिवाद और वंशवाद के दो अतिवादी ध्रुवों के बीच ंकराह रहा है? क्या इस स्थिति से बाहर निकलना किसी एक पक्ष के बिना संभव है? सांपनाथ, नागनाथ, भुजंगनाथ के हर प्रयोग के बाद एक राज्य में ‘मदारीनाथ’ को आजमाने के बाद भी स्थिति के लगातार बद से बदहतर होने पर आखिर जनता अब क्या करें? लोकतंत्र में संवाद के बदले  विवाद के दौर में यदि मतदान के प्रति जनता की रूचि कम होती है तो इसका जिम्मेवार कौन है? क्या कैशलैस के शोर  के बीच पब्लिक लैस चुनाव को लोकतंत्र का काला अध्याय नहीं कहा जायेगा?
संसद संवाद का मंच है। लोकतंत्र में हर विवाद का समाधान संवाद से ही संभव है। उसे किसी भी कीमत पर, किसी भी काल में अखाड़ा नहीं बनाया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित होना चाहिए कि संसद का कामकाज हर हालत में चले क्योंकि संसद के न चलने से अनेक महत्वपूर्ण विधेयक अटक गयेे है। बदलते दौर में भारत की तस्वीर धुंधली होने से बचाने के लिए दोनो पक्षो को हठधर्मिता छोड़नी चाहिए। भविष्य में इस तरह के विवाद ही उत्पन्न न हो, इसके लिए  प्रयास होने चाहिए। यदि लोकसभा अध्यक्ष अपने पूर्व दल के प्रति ‘सॉफ्ट कार्नर’ से ऊपर उठकर मर्यादा का उल्लंघन करने वाले हर व्यक्ति के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करे तो....! आखिर यह देश किसी भी नेता अथवा दलों के दलदल से बड़ा है। लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। इसकी रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी कीमत चुकाई जानी चाहिए। मेरा देश की प्रतिष्ठा को आंच नहीं आनी चाहिए चाहे इसके लिए सौ दल और हजार नेता भी कुर्बान क्यों न करने पड़ें। सभी को इसका स्थाई समाधान ढ़ूंढ़ना होगा अन्यथा लोकतंत्र अराजकता का पर्याय बन सकता है। अराजकता और लोकतंत्र को एकाकार होने से बचाने के लिए मनमाने फैसलों पर विरोध का कोई तरीका ऐसा निकला जाए जिससे कम से कम अव्यवस्था के साथ विरोध का लक्ष्य पूरा हो सके। 
यह हर्गिज नहीं भुलाया जाना चाहिए कि नोटबंदी से जो कठिनाईयां पेश आ रही है वे अस्थाई दौर होते हुए भी कष्टकारी है। आज लोकतंत्र और विकास एक-दूसरे के पूरक है। लेकिन दोनो में एक को चुनने का निर्णय बहुत जटिल है परंतु भूख और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसके पक्ष में निर्णय होगा यह सभी जानते हैं। विकास कार्यों में बाधा अंततः लोकतंत्र की बेड़ी बनेगी। विश्व के अनेक देशों को प्रतिबंधित लोकतंत्र केे कटु अनुभव प्राप्त है।  हमें भी आपातकाल नहीं भूल सकता जब सम्पूर्ण विपक्ष को अकारण जेल में डाल दिया गया था। 
किसी भी लोकतंत्र को अधिकतम दोषमुक्त बनाकर ही यहां के आम नागरिकों के जीने के अधिकार और  विकास को सुनिश्चित किया जा सकता है। निश्चित रूप से 86 प्रतिशत मुद्रा के एकाएक चलन से बाहर होने के कारण जनता को असुविधा हो रही है लेकिन शोर में खामोश संसद ने उसकी कठिनाईयों को अभिव्यक्त करने की बजाय उसकी विवशता का मजाक ही उड़ाया है। संसद से बाहर नारे, लच्छेदार भाषण लेकिन अंदर शोर से संसद को ठप्प करने वालों हमारे लोकतंत्र को संवेदना के नाम पर शोर की बजाय संवाद, बहस ओर लौटा दो! कृपया संसद को संसद ही रहने दो जो ‘जनता की, जनता के द्वारा, जनता के लिए’ हो। --  विनोद बब्बर  संपर्क-   09868211911, 7892170421 


शोर में खामोश संसद, दिखावा लोकतंत्र का What a strange democracy  शोर में खामोश संसद, दिखावा लोकतंत्र का What a strange democracy Reviewed by rashtra kinkar on 05:28 Rating: 5

No comments