कहां नहीं है धुंध, कोहरा, स्मॉग Fog, Smog Every Where


पौष माह (दिसम्बर-जनवरी) में देश के बहुत बड़े हिस्से में कोहरे के कोहराम के कारण जन-जीवन अस्त-व्यस्त रहता है। अति शीत के कारण लोग घर से बाहर नहीं निकल पाते वहीं सड़क से रेल और वायु मार्ग तक हर तरफ यातायात में व्यवधान उत्पन्न होता है। सड़क दुर्घटनाएं होती हैं तो रेल समय अनुशासन की गति खो देती हैं। ऐसा होना कोई असामान्य  बात नहीं है लेकिन इस बार पया्रवरण से परिवेश तक एक नये तरह का कोहरा भी है जिसे निश्चित रूप से असामान्य नही कहा जायेगा। 
विज्ञान की भाषा में वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प जब ओसांक से नीचे पर हिमांक से ऊपर रहती है तो पानी की छोटी छोटी बूंदे वायुमंडल में देर तक लटकी रहती है। इस स्थिति में दृश्यता बहुत कम हो जाती है जिसे कोहरा कहते है। जबकि कोहरे और विभिन्न रसायनों के धुएं के मिश्रण को ‘स्मॉग’ कहते है जो अम्लीय प्रकृति होने के कारण  बहुत हानिकारक होती है। लोक व्यवहार की मान्यता के अनुसार जब व्यवस्था में अकर्मण्यता की उपस्थिति एक सीमा से बढ़ जाती है लेकिन दिखावा बढ़ चढ़ कर होता है तो उसे भ्रष्टाचार कहते हैं। इसके कारण सामान्य जन पिछड़ा, गरीब और न्याय से वंचित रहता है। जबकि राजनीति में काले कारनामों और काले धन के मिश्रण को अराजक भ्रष्टाचार कहते हैं जो आत्मकेन्द्रित होने के कारण किसी भी देश और समाज के लिए आत्मघाती होता है।
इस बार का कोहरा विज्ञान ही नहीं लोक व्यवहार की परिभाषा की कसौटी पर खरा (?) उतरता है। सड़क से संसद तक, लोगों की जेब से दिल और बाजार तक छाये इस कोहरे ने देश में एक नये वातावरण को जन्म दिया है। काले धन और भ्रष्टाचार रूपी कोहरे पर काबू पाने की बातें दशकों से होती थी लेकिन वह सुरसा की तरह लगातार बढ़ता रहा। इसकी उत्पत्ति के अनेक कारणों में चुनावी राजनीति में धनबल के बढ़ते प्रभाव, टिकटों की खरीद फरोख्त, विदेशों से प्राप्त चंदा तथा कर व्यवस्था में अति जटिलता होना माना जाता है। समय-समय पर जो प्रयास किये गये वे राजनीति की भेंट चढ़ गये अथवा अधूरे मन से किये जाने के कारण बहुत प्रभावी नहीं रहे। लेकिन इस बार मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार और कालेधन से जंग का शंखनाद करते हुए अचानक बड़े नोटों के बदलाव की जो घोषणा की उससे एकाएक बैंकिंग व्यवस्था पर आन पड़े दवाब के बीच जहां लाखों बैकिंग कर्मचारियों अधिकारियों ने कड़ी मेहनत कर स्थिति को सामान्य बनाने का प्रयास किया वहीं अनेक उच्चाधिकारियों ने काले को सफेद कर अव्यवस्था में ऐसी धुंध और कोहरा फैलाने का प्रयास किया जो प्रकृति की धुंध से ज्यादा हानिकारक है। एक ओर सामान्यजन लम्बी कतारों में लग कर दो हजार रुपये प्राप्त कर रहा था वहीं कुछ लोगों के पास हाल ही में जारी की गई करोड़ांे रुपये की नई मुद्रा बरामद होना कोहरे (पारदर्शिता के अभाव) से अधिक ‘स्मॉग’ का प्रमाण है। इसने सरकार और व्यवस्था पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगाये।
शीतकालीन संसद सत्र का बिना कोई विधायी कामकाज के समाप्त हो जाना एक ऐसा कोहरा है जो लोकतंत्र और हमारे देश की छवि को धूमिल करता है। महामहिम राष्ट्रपति जी की सीख तक को अनदेखा कर संसद की कार्यवाही को बाधित करना दुर्भाायपूर्ण है लेकिन देश के प्रधानमंत्री द्वारा ‘संसद में बोलने से रोके जाने’ के आरोप बहुत गंभीर है। तो दूसरी ओर विपक्ष भी इसी प्रकार के आरोप लगाकर वातावरण में धुंध बढ़ा रहे हैं। आखिर क्या कारण हे कि दोनो पक्ष बाहर तो खूब दहाड़ाते हैं जबकि संसद में संवाद कर संदेह का कोहरा दूर करने से बच रहते हैं।
इलैक्ट्रोनिक मीडिया भी कोहरा बढ़ाने में अपनी ओर से महत्वपूर्ण योगदान कर रहा है। समाचार दिखाने की बजाय समाचार बनाने के लिए बाल की खाल खिंचना लगभग हर चैनल पर देखा जा सकता है। खास बात यह कि हर घटना को सभी चैनल अपने आकाओं के हितों के अनुसार प्रस्तुत कर अर्थ का अनर्थ करने में कोई कसर बाकी नहीं छोडते है। किसी अभिनेता के बेटे के नाम पर अंतहीन बहस करने के लिए उन्हंें विशेषज्ञ मिल जाते हैं लेकिन भीषण सर्दी के बावजूद खुले में रात गुजारने के लिए विवश लोगों अथवा ऐसी ही जनसमस्याओं पर सार्थक बहस के लिए स्थान और समय लगभग न के बराबर हैं। देश के कायदे कानून और बहुसंख्यक समाज की परम्पराओं का मजाक उड़ाना इनका प्रिय शगल होते हुए भी कोई इनका बाल बांका तक नहीं कर सकता क्योंकि इनके लिए विलाप करने वालों की हर जगह  फौज तैयार रहती है।
रैनबसेरो की ही बात करें तो  महानगरों की बात छोड़ दे तो शेष स्थानों पर न तो पर्याप्त रैन बसेरे हैं और हैं भी तो वहां पयर्ा्रप्त सुविधाओं का अभाव है। क्योंकि सड़क पर रात गुजारने वाले किसी नेता, सेठ अथवा अफसरशाह के संबंधी नहीं होते। जिनकी क्रयशक्ति इतनी कम होती है कि वे पेट की आग बुझाने के लिए अपना गाँव घर छोड़कर शहरों में पलायन को विवश हैं, उनके पास गर्म कपड़े, बिस्तर, किराये का कमरा खरीदने की सामर्थ न होना उनका दुर्भाग्य है या देश का, इस पर बहुत कोहरा छाया है लेकिन क्रिकेट तमाशे के लिए खिलाड़ियों की करोड़ों में बोली लगना और हर टीवी चैनल पर उन्हीं की चर्चा आर्थिक असमानता वं मानवीय अवमूल्यन के कोहरे से अधिक स्मॉग है जो हम सबके लिए शर्मनाक है।
रोजी रोटी के लिए घर-गाँव छोड़ने की विवशता, कर्ज से परेशान किसानों द्वारा आत्महत्या, बाल मजदूरी, शोषण, पिछड़ापन जिस भारत की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं उसकी चिंता हमारी व्यवस्था को केवल चुनावी मौसम में ही होती है वरना शेष दिन तो बड़े उद्योगपतियों,  विदेशियों, अफसरशाहों, नेताओं के लिए ही लाल कालीन बिछाये जाते हैं। हमे चमकदार भारत नहीं,   ‘शाईन इण्डिया’ चाहिए। जाने-माने स्कूलों में नर्सरी में  दाखिले की होड़ है जहाँे लाखों रुपये डोनेशन देने वाले ड़िगिड़ा रहे है क्योंकि उन्हें अपनी अगली पीढ़ी को भारत भाग्य विधाता बनाना है। तो दूसरी ओर सरकारी स्कूलों में भीषण सर्दी का दौर समाप्त होने के बाद बच्चों को सर्दी से बचाव के लिए टोपी और स्कूल बस्ते के लिए भुगतान होगा। बेस्वाद ‘मिड डे मील’ परं लाख टिप्पणियों के बाद भी कोई परिवर्तन नहीं हो रहा क्योंकि यहाँ से तैयार होकर निकलने वाली पीढ़ी  आम जनता बनाना है। वरना शासन किन पर होगा? भाषण पर तालियां कौन बजायेगा? एक दिन का राजा (मतदाता) शेष दिनों में भिक्षुक सा सम्मान भी नहीं पाता। उसे अपनी,  अपने गाँव, कस्बे की समस्याओं का ऑनलाइन समाधान नहीं मिलता। बल्कि ‘भारत भाग्य विधताओं’ के द्वार पर गुहार लगानी पड़ती है। वहां भी उसे आश्वासन ही मिलते हैं समाधान नहीं क्योंकि राजा को पांच वर्ष में केवल एक दिन के चुनने का अधिकार होता है। शेष दिनों के अशेष याचक को चुनने का अधिकार नहीं होता। निर्णय वे करते है जिन्होंने भय, भूख, बेकारी, बीमारी, अभाव, अशिक्षा अव्यवस्था का स्वाद चखना तो दूर उसे करीब से भी नहीं देखा। हमारी बुद्धि भी न जाने कितने धुंध और कोहरों से ढकी हुई है कि हम  अज्ञानता, अपरिचय के हाई-वे पर व्यवस्था  की गाड़ी दौडाने वालों से समाधान की उम्मीदे लगाते हैं।
यदि अगली पीढ़ी के मन में असमानता के बीज बोने वाली व्यवस्था को बदला नहीं जायेगा  तो कैसे आगे बढ़ेगा देश? कैसे दूर होगा असमानता का कोढ़? गरीबी, बेकारी, अव्यवस्था की घुंध में पनपने वाले अपराधों, कुरीतियों, नक्सलवादों को रोकने की कोशिशें आखिर कैसे सफल होगी? एक-दूसरे पर दोषारोपण कर पक्ष-विपक्ष इसे धुंध -कोहरे से आखिर कब तक आँखें मूंदे रखेगा? यदि इस महत्वपूर्ण अवसर पर भी हमारे राजनेताओं ने आँखे नहीं खोली तो क्या अर्थ रहेगा    संविधान में निहित कल्याणकारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का।
हमारे कुछ भाईयों की दैनिक मजदूरी करोड़ों में होना अच्छी बात है लेकिन हमारे करोड़ों भाईयों की मजदूरी अपनी दैनिक जरूरतों यहाँ तक कि विपरीत मौसम से बचने के लिए भी अपर्याप्त होना ार्म की बात है। जीवन संघर्ष में यदि हमारे एक भाई के प्राण भी जाते है तो कलंक सम्पूर्ण राष्ट्र के माथे पर होता है। आखिर कब घटेगी असमानता की धूंध? इस घनी धुंध और कोहरे में यदि कोई सजगता से अपना कर्तव्य निभा रहा है है तो वे हैं सियाचीन जैसे ग्लेशियरों पर तैनात हमारे वीर जवान। उन्हें कोटिशः प्रणाम! 
शुभकामनाओ सहित  विनोद बब्बर संपर्क-   09868211911, 7892170421


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