बचपन से मोहब्बत को Where is My Childhood??
पिछले कई दशकों से हर सुबह कुछ मित्र हमारी कुटिया में एकत्र होते हैं। मैं हर सुबह लगभग 4 बजे उठकर (जागकर नहीं) स्नान, ध्यान के पश्चात उनकी प्रतीक्षा करता हूं। ज्योंहि दरवाजे पर दस्तक होती है इंतजार दीदार में बदल जाती है। अभिवादन, प्रणाम, चाय-नाश्ते के बाद हर रोज किसी न किसी विषय सम सामयिक विषय पर चर्चा होती है। कई बार चर्चा दिनचर्या बन जाती है और कई बार दिनचर्या पर चर्चा होती है। सच तो यह है कि हमारा जीवन ही अनेक चर्चाओं का समूह है जिनमें खुशी, गम, अभाव, आनंद, मुस्कान, उदासी, आंसू और कहकहो जैसे अनेक घटक हैं।
जीवन प्रकृति के चक्र है। हर सुबह की तरह चमकदार संभावनाओं से परिपूर्ण हमारा बचपन, हर दोपहर की तरह दनदनाती, ऊर्ष्मा और ऊर्जा से लबालब हमारी जवानी, हर शाम की तरह खामोश हमारा बुढ़ापा और रात की कालिमा और शांति प्रतीक है अनंत विश्राम की। इस जीवन से अगले जीवन के बीच का एक ऐसा समय जो किसी दुविधा,, अशांति का नहीं चिंतन का विश्राम का काल है। जीवन जब थक जाता है उसे चिर विश्राम चाहिए। पिछले बोझ, खीज उतारने, तमाम गम भुलाने का समय चाहिए ताकि विश्राम के बाद एक बार फिर से तरोताजा होकर एक नई सुबह, एक नई रोशनी, नई उम्मीदों, नए विश्वासों के साथ एक नई शुरुआत कर सके।
हमेशा की तरह आज सुबह की चर्चा की शुरुआत हमारे परम मित्र हरि किशन जी ने की। हरिकिशन जी के जीवन के सात दशक पार कर चुके हैं। न सात दशकों में कितने वसंत थे और कितने पतझड़ इसकी गणना आसान नहीं है। विभाजन के दौर में जन्में हरि भाई के परिवार ने अपार कष्ट झेले। अभाव तो जैसे साथी ही बन गया। स्कूल में किताबों का अभाव, फीस का अभाव, परीक्षा पास की तो नौकी का अभाव, निराश होकर कुछ करना चाहा तो संसाधनों का अभाव। बचपन कठिनाइयों में बीता तो जवानी ने कड़े संघर्ष की राह दिखाई। अभी स्वयं को स्थापित कर ही रहे थे कि आतंकवाद के दौर ने एक बार फिर विस्थापित कर दिया। 1984 में पंजाब से दिल्ली आने के बाद फिर वहीं कष्ट, कष्ट, कष्ट। संघर्ष, संघर्ष , संघर्ष। इसी बीच परिवार बना, बसा। दो बेटे और दो बेटियां लेकिन भगवान ने एक बेटे को बचपन में ही वापस ले लिया तो दूसरा बेटा दो बेटों का पिता बनकर पिछले वर्ष भगवान को प्यारा हो गया। इस आयु में हरि भाई पर छोटे-छोटे ेपोतो के भरण पोषण की जिम्मेवारी आन पड़ी है। हम में से किसी ने भी उन्हें कभी अपने भाग्य को कोसते नहीं देखा। धीर-गंभीर होकर वे और सहधर्मिणी इस अप्रत्याशित कर्तव्य को निभा रहे हैं।
हर सुबह एक घंटा पार्क में और एक घंटा हमारी कुटिया में बिताने वाले हरि जी बहुत सामाजिक है। अपना दर्द भुलाकर हर सुबह की चर्चा में बहुत उत्साह और आनंद के साथ भाग लेते हैं। आज सुबह धीरेन्द्र ने एक गाना बजा दिया-
‘बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना। जब याद मेरी आए मिलने की दुआ करना।।
घर मेरी उम्मीदों का सूना किए जाते हो। दुनिया ऐ मुहब्बत की लूटे लिए जाते हो।।
जो ग़म दिए जाते हो उस ग़म की दुआ करना। जब याद मेरी आए मिलने की दुआ करना।।
सावन में पपीहा का सँगीत चुराऊँगी फ़रियाद तुझे अपनी गा-गा के सुनाऊँगी।
आवाज़ मेरी सुन के दिल थाम लिया करना।’
इस सुमधुर गीत को गुनगनाते हुए वे अपने बचपन की यादों में खो गये। दरअसल बचपन चाहे जैसा भी बीता हो, विशिष्ट होता है। उस जैसी निंश्चिंतता, मस्ती, उन्मुक्तता फिर कहां? विज्ञान ने बहुत उन्नति कर ली है परंतु आज तक ऐसा कोई ऐसा साफ्टवेयर ईजाद नहीं हुआ जो हमें फिर से उस दुनिया में ले जाये। ऐसा कोई भवन नहीं बना जिसमें प्रवेश कर हम फिर से अपने बचपन को बाहों में कस कर पकड़ लें। वो कागज की किश्ती, वो बारिश का पानी। वो भीगना। बादलों को निहारना। बादलों में बिछड़े हुओं को खोजना। बादलों संग दौड़ना। बादलों की गर्जन -तर्जन सुन घर की ओर दौडत्रना। वो धूल उड़ाना। आपस में झगड़ा, किसी वस्तु को पाने के लिए छीना झपटी। लेकिन पल भर बीतते ही जैसे सब बीती बाते हो जाती और फिर से हमजोली बन जाते।
हरि भाई अपने बचपन में कहीं नदी पर तो कभी खेत में चलते रहट अथवा टयूबवैल में नहाने, खेत की हरियाली को घंटो निहारने, ताजी सब्जियां तोड़कर खाने के आनंद के उन क्षणों को याद करते हुए फिर से बच्चे हो गये और तो हम भी कहां बूढ़े रहे। वाह मेरे बचपन। एक चमकदार सुबह की झलक दिखाकर तू कहां खो गया। जब तू था तो दुनिया मुझे जवानी के सब्जबाग दिखाती थी। बचपन जब तू मेरे साथ तो मैं जल्द से जल्द जवान होकर एवरेस्ट सी ऊंचाई पाना चाहता था। लेकिन एवेस्ट की चोटी के पास पहुंचकर भी मैं उससे बहुत दूर रहा। उस मृग मरिचिका ने मुझे बहुत छकाया। दौड़ते- दौड़ते थकान के अहसास ने अहास कराया कि बचपन तो क्या तेरी जवानी भी बहुत पीछे छूट गई है। एवरेस्ट के सपने देखने वाले अब तू थका हारा बस रेस्ट कर। अगर इससे भी थक जाये तो सपने देखा कर अपने उस सुनहरे अतीत के जिसे कल तू भयावह मानता था। लेकिन आज तेरी मानसिक और शारीरिक थकान कहती है कि कल नहीं आज भयावह है। याद आया कभी पढ़ा था- ‘इतिहास कहता है- कल सुख था। विज्ञान कहता है- कल सुख होगा। लेकिन धर्म कहता है- मन सच्चा और अच्छा है तो हर रोज सुख होगा।’ आज की सुबह बचपन को याद करते हुए उपरोक्त वाक्य सत्य हो गया। बचपन इतिहास बनकर अहसास करा गया कि तब सुख था। तब उम्मीद विज्ञान बनकर विश्वास दिलाती थी- कल ानी जवानी में सुख होगां परंतु आज बुढ़ापा कहता है, ‘जब तुम फिर से बच्चे यानि मन के सच्चे बन जाओंगे सुख की अनुभूति होगी।’
वास्तव में आज की सुबह मने उस अलौकिक सुख को अनुभव किया। जिसे कभी व्यर्थ गवांया करते थे क्योंकि तब हम उसे तो क्या स्वयं को भी नहीं जानते थे। आज कुछ-कुछ जानने की कोशिश है पर समय??? ओह! समय तो गुजर चुका है। बस कुछ क्षण ही शेष है। क्या अब कुछ हो सकता है?
नहीं, नहीं कुछ नहीं हो सकता। क्योंकि-
गुज़रा हुआ जमाना, आता नहीं दोबारा। हाफ़िज खुदा तुम्हारा।।
खुशियाँ थी चार दिन की, आँसू हैं उम्रभर के। तनहईयों में अक्सर रोयेंगे याद कर के।
वो वक्त जो के हम ने, एक साथ हैं गुज़ारा। हाफ़िज खुदा तुम्हारा।।
मेरी कसम हैं मुझ को, तुम बेवफ़ा ना कहना। मजबूर थी मोहब्बत सबकुछ पड़ा हैं सहना।
टूटा हैं जिंदगी का, अब आखिरी सहारा। हाफ़िज खुदा तुम्हारा।।
मेरे लिए सहर भी, आई हैं रात बनकर। निकाला मेरा जनाज़ा, मेरी बरात बनकर।
अच्छा हुआ जो तुम ने, देखा ना ये नज़ारा। हाफ़िज खुदा तुम्हारा।।
खुदा हाफिज की ओर बढ़ते बुढ़ापे में बचपन की याद उस मोहब्बत की याद है जिसे हमने तब तो समझा ही नहीं। लेकिन आज.. आज शाम बनकर उस सुबह को पाना चाहते है। खैर वह मिलेगी। जरूर मिलेगी। लेकिन विश्रांति के बाद। थोड़ी नींद के बाद। यादों का पुराना बोझा उतार फेंकने के बाद। लेकिन अभी से कैसे कह दूं कि अगली बार वह सब नहीं होगा जो इस बार हुआ!
कल जो होगा, सो होगा। सबसे बड़ा आज का है। चलते-चलते इतना और कहना चाहता हूं- बेशक सूर्योदय का हर जगह स्वागत होता है पर दुनिया भर में ‘सन सेट’ का नजारा देखने के जितने प्वाइंट है उतने ‘राइजिंग’ प्वाइंट नहीं है। यानि अस्त भीे वंदनीय हो सकती है बशर्ते दिन ने पूरी ईमानदारी और समर्पण के साथ अपनी चमक बिखेरी हो। (10 Dec, 2016 ) - विनोद बब्बर 9868211911
बचपन से मोहब्बत को Where is My Childhood??
Reviewed by rashtra kinkar
on
20:42
Rating:
No comments