मृत्यु उत्सव तो जीवन? If Death is Festival than What is Life???


वर्ष के 365 दिन एक समान होते हैं। वहीं चौबीस घंटे। लगभग हर सुबह उजाला, दोपहर में तेज धूप, रात्रि में अंधेरा। लेकिन हर दिन उत्सव नहीं होता। कुछ चुनिंदा दिन ही उत्सव होते हैं। इसी प्रकार हर जन्म उत्सव है। लेकिन हर मृत्यु उत्सव नहीं होती है। महत्वपूर्ण प्रश्न है कि मृत्यु अगर उत्सव है तो जीवन क्या है? सच तो यह है कि उत्सव बहुत छोटे होते हैं लेकिन उसकी तैयारी बहुत बड़ी होती है। उत्सव को आनंददायक बनाने के लिए, कुछ विशिष्ट बनाने के लिए, प्रेरक और भव्य बनाने के लिए बहुत तैयारी करनी पड़ती है। इसे यूं समझा जा सकता है जैसे हमारे-आपके घर में एक बच्चे का नामकरण, प्रथम जन्मदिवस अथवा कोई अन्य छोटा सा उत्सव किया जाना है। हम कई दिन पूर्व से उसकी तैयारियां करते हैं। घर में साफ सफाई करते हैं। सफेदी करते हैं। अनेक मेहमान आने वाले हैं इसलिए लगे हाथ परदे बदलने की सोचते हैं। फर्नीचर ठीक कराते हैं। इसके अतिरिक्त भी एक सूची बनाते हैं कि हमें क्या-क्या करना है। क्या-क्या करना चाहिए? किस बाजार से क्या खरीदना है? इस उत्सव में किस-किस को आमंत्रित करना है। यह आयेाजन करना है तो कहां करना है। घर पर, घर के सामने पार्क या सड़क पर या फिर किसी बैंकट हाल में। क्या-क्या व्यंजन बनेंगें। खानपान की व्यवस्था स्वयं देखनी है या कैटरिंग वाले को देनी है। इस उत्सव में क्या विधि-विधान होंगें? कैसी पूजा होगी? किसकी पूजा होगी? किसको विशेष महत्व अथवा सम्मान दिया जायेगा। किस जिम्मेदारी को कौन पूरा करेगा? सबसे महत्वपूर्ण यह कि इसके लिए संसाधन कहां से जुटाएं जाएंगे? इस प्रकार के अनेकों प्रश्न हमारे सामने होते हैं। अच्छी योजना बनाकर की गई अच्छी व्यवस्था से हर उत्सव विशेष हो जाता है। अविस्मरणीय हो जाता है। इस उत्सव में भाग लेने वाले, उस उत्सव को देखने वाले, उत्सव का अंग बनने वाले ही नहीं, दूर कहीं स उत्सव का समाचार पढ़ने वाले भी आनंदित-रोमांचित होते हैं।
उत्सव किसी यज्ञ की पूर्णाहूति तो हो सकती है लेकिन उसकी शुरुआत उस क्षण से ही आरम्भ हो जाती है जब उसका विचार मन में आता है। मृत्यु वही उत्सव होती है जब उसकी तैयारी चलती रहती है। भगतसिंह का बलिदान उत्सव बना क्योंकि उसने वर्षों पहले से प्रयास आरम्भ कर दिये थे। वीर हकीकत राय का बलिदान उत्सव कैसे बना, लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, अशफाक उल्ला खान, चन्द्रशेखर, राजगुरु, लाला लाजपतराय जैसे महापुरुषों का इस संसार से गमन उत्सव क्यों बना यह सब जानते हैं। ऐसी मृत्यु का अपना आकर्षण है। आनंद है। इसीलिए कहा गया हैं- ‘जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद!’ मन में आनंद तब होता है उत्सव का वातावरण हो। उत्सव आनंद का प्रतीक है और उस आनंद की तैयारी स्वयं को समाज के हितार्थ यज्ञ की समिधा, सामग्री और धृत बनकर करनी है। तभी तो उसकी सुगन्ध चहू ओर फैलेगी। 
सुगंध और आनंद में बहुत निकटता है। दोनो होते हैं पर दिखते नहीं। दोनो ही महसूस तो किये जाते हैं पर उन्हें स्पर्श नहीं किये जा सकते। दोनो के प्रति पवित्रता का भाव होता है। ऐसी पवित्रता जिसके लिए कबीर कहते हैं, ‘ये चादर सुर नर मुनि ओड़ी, ओड़ के मैली कीनी चदरिया। दास कबीर जतन से ओड़ी, जस की तस धर दीनी।।’ अब यह ‘जस की तस धर दीनी’ ही उत्सव का चरम है। पूर्णाहूति है। 
अगर तैयारी नहीं तो ध्यान रहे मृत्यु उत्सव नहीं केवल शव है। शव सड़ांध मारने लगता है पर उत्सव में सुगंध होती है।
अगर स्वयं को योग्य नहीं बनाया, समाजोंपयोगी नहीं बनाया और केवल खुद के सुख तक सीमित रहे तो जीवन अय्याशी है।ध्यान रहे उत्सव और अय्याशी में अंतर होता है। अय्याशी आत्मकेन्द्रित और आत्मघाती होती है जबकि उत्सव सामूहिक और सर्वत्र के मंगल की कामना का नाम है। जो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए मारे गये उन्हें तो उनके अपने वंशज तक भुला देते हैं लेकिन जो बहुजन हिताय जीते और मरते हैं वे मर कर भी नहीं मरते। ऐसे महापुरुषों का महाप्रयाण महाउत्सव है। मृत्यु अवश्यमभावी है तो आओ हम भी अपनी मृत्यु को उत्सव बनाने के लिए अपने जीवन को आत्मकेन्द्रित से सामूहिकता से जोड़े। पापाचार से पवित्रता की ओर बढ़े क्योंकि हमारे पूर्वज ऋषियों ने हमें सिखाया है-
असतो मा सद गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतम् गमय।।

 विनोद बब्बर संपर्क-   09868211911, 7892170421 


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