ज्ञानिन के मन रहत है केवल निज हित की...


पिछले दिनों ‘बेटी बचाओ’ से संबंधित कार्यक्रम में अध्यक्ष बना दिया गया। विद्वान वक्ताओं ने कन्या भूण हत्या की निंदा की। कुछ ने लिंगभेद को कोसा। कुछ कवि भी थे जिन्होंने श्रृंगार रस से वीर रस तक के सभी प्रयोग कर खूब रंग जमाया। उन्होंने यमराज सहोदर डाक्टरों को  ललकारा। ‘कुड़ी मारों’ को मारा। बेटी को प्रकृति का सर्वोत्तम उपहार करार दिया।
संगोष्ठी की गरिमा के अनुरूप हर अंडे ने मुर्गी को ‘ची-ची’ करना  सिखाने की भरपूर कोशिश की। भरपूर तालियों ने उनका उत्साहवध्रन किया। लेकिन एक ‘विद्वान’ ने अपने ‘व्याख्यान’ में चीन के बढ़ते आयात के खतरों पर ट्रार्च, लैम्प, मोमबत्ती से नहीं, सीधे ‘एलईडी बल्व’ से प्रकाश डालकर सबको चकाचौंध कर दिया। विद्वानों के पास अर्थशास्त्र से समाजशास्त्र तक का ढ़ेर ज्ञान होता है। वे जहां तहां अपना ज्ञान उलटते - पलटते रहते हैं। लेकिन समस्या मेरे जैसे अल्पबुद्धि को होती है जिन्हें एक तरफ तो खुद ही समझने में कठिनाई होती है उसपर यह कह दिया जाये कि ‘फलां साहब’ के व्याख्यान पर भी कुछ कहो। अरे साहब कहें तो तब जब कुछ अपने पल्ले पड़ा हो!
तो साहब उस दिन अध्यक्ष जी से कहा गया कि ‘बेटी बचाओ या न बचाओ पर चीन से बचाओ’ विषय पर कुछ कहे। आप जानते ही है अध्यक्ष की सुनने वाले हमेशा कम ही बचते हैं। उस दिन तो और भी कम से थे क्योंकि विद्वानों की सभा थी। किसी विद्वान ने विद्वान के दो लक्षण बताये थे।  ‘प्रथम कि जो मन आये, बोले। विषय-फिसय छात्रों के लिए होते हैं, विद्वानों के लिए नहीं। विद्वान तो जो बोले वहीं विषय। वहीं एजेंडा। वही ज्ञान क्योंकि वे केवल ही ज्ञानी।
दूसरा यह कि विद्वान केवल बोलता है। किसी की सुनने में समय बर्बाद नहीं करता।  इसलिए अपनी कहे और ‘अभी दो कार्यक्रमों में जाना है’ कह कर पतली गली से निकल ले। अगर ये दो गुण नहीं तो समझो विद्वता का लेबल बीपीएल है या फिर नया-नया जोश है इसलिए कर्मकांड में कच्चा है।’  हां तो बात हो रही थी कि अध्यक्ष जी का वक्तव्य एक आवश्यक कर्मकांड है। कोई सुनने वाला हो या न हो। बोलने के लिए कुछ हो या न हो। कुछ न कुछ कहना जरूरी है क्योंकि यही परम्परा है। परम्परा का पालन करना हमारी संस्कृति है। जैसे आरती के बिना कथा संपन्न नहीं मानी जाती, यज्ञ में पूर्णाहूति आवश्यक है ठीक उसी तरह से बौद्धिक यज्ञ में अध्यक्षीय उद्बोधन जरूरी माना जाता है। हाँ, एक अंतर जरूर है। कथा स्थल बेशक दिनभर अधखाली रहे पर आरती के समय भीड़ बढ़ जाती है पर ज्ञानियों के जमावड़े सिकुड़ने लगते हैं। वहां अंत पूर्णाहूति के बाद आशीर्वाद और प्रसाद का वितरण होता है लेकिन यहां सबकी सुनते -सुनते भर चुका अध्यक्ष अगर ज्ञानी हुआ तो आशीर्वाद के स्थान पर श्राप देगा। कमियां निकालेगा। और ऐसे आयोंजनों में पतली चाय संग दो बिस्कुट आरम्भ में ही प्रस्तुत कर प्रसाद की औपचारिकता निभा ली जाती हैं। इस अंतर के अंतरतम में फिर कभी सैर करेंगे। फिलहाल अध्यक्षीय उद्बोधन।
तो जनाब विद्वानों की उस सभा के मूर्ख अध्यक्ष जी को खाली कुर्सियों से संवाद करना था। जरूरी था इसलिए कहा गय़ या यूं कहे कहना पड़ा। जो कहा गया, वह सुना नहीं गया। लेकिन जैसी की परम्परा है पहले से ही तैयार प्रैस विज्ञप्ति में अध्यक्षीय उद्बोधन को पर्याप्त स्थान दिया जाता है जो अगले दिन सभी समाचार-पत्रों में प्रमुखता से स्थान भी पा जाता बशर्ते आयोजक मीडिया प्रेमी हो। अगर छपे तो खास बात यह होती है कि उसमें फोटो असली होती है पर शब्द मनमानेे। इसलिए  अध्यक्ष जी के शब्द दूर ब्रह्माण्ड में विचरण करते रहते हैं और अनकहे हलक में अटके बाहर निकलने के लिए छटपटाते रहते हैं। अपना वक्तव्य भी इसी हस्र को प्राप्त हुआ।
खैर जो हुआ सो हुआ, आज अचानक कहने का मन हो आया। आप यहां से भाग नहीं सकते इसलिए सुनना ही पड़ेगा।
बेटी बचाओं के चीन से बचाओं की ओर सरकते समारोह के अध्यक्ष जी ने कहा थ़ा, ‘आज के इस कार्यक्रम में बहुत सार्थक संवाद हुआ। कन्या भूणहत्या, लिंगभेद पर जैसीे घिसे-पिटे विषयों पर तो आप रोज ही टीवी से रडियों पर भी सुनते रहते हैं। इसीलिए आपने सुनने की बजाय कुर्सियों का बोझ कम करने का निर्णय लेकर इन कुर्सियों के साथ न्याय ही किया है, उसके लिए अप अभिनन्दन के पत्र हैं। आज के कार्यक्रम की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि एक ‘विद्वान’ ने भावों को कूट शब्दों और संकेतों में व्यक्त किया। आप बेटी बचाओं अभियान में चीन से बढ़ते आयात की चर्चा को ‘दाल भात में मूसल चन्द्र’ कहकर खारिज नहीं कर सकते। बल्कि उन्होंने संकेत किया है कि अगर हम इसी तरह से बेटियों को  मारते रहे तो एक दिन हमें अपने बेटों- पौत्रों के लिए बहुएं चीन से आयात करनी पड़ सकती है। लेकिन ध्यान रहे अब तक का अनुभव यह रहा है कि चीनी सस्ता है पर उनकी कोई गारंटी नहीं होती। इसलिए आप चीन के भरोसे भारतीय बेटियों के साथ अन्याय और अत्याचार न करें। मैं उन महोदय के शोधपूर्ण और विद्वतापूर्ण व्याख्यान के लिए उनका अभिनन्दन करना चाहता हूं लेकिन वे किसी अगली सभा को उपकृत कर रहे होंगे। अगर आप में से कभी किसी की पकड़ में आ जाये तो आप भी अपनी विशिष्ट ‘कूट’ रीति से उनका अभिनन्दन कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने उन प्रश्नों का भी उत्तर दे दिया जो फिलहाल हमारे सामने ही नहीं है।’
सच ही कहा है किसी ने -
ज्ञानिन् के मन रहत है, केवल निज हित बात।
घट-घट ढूंढ़े भगत सौ, पूछे जात औ पात।।   -विनोद बब्बर 9868211911 

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