एक अदद टिकट का सवाल है How to Reserve seat in House
‘असंभव को संभव बनाने की कला को राजनीति कहा जाता है’ राजनीति की इसी परिभाषा ने भारतीय राजनीति में टिकटार्थियों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि की है। आज लगभग हर वह व्यक्ति जिसके पास कुछ धन, कुछ संबंध हैं, चुनाव लड़ने के लिए मचलता दिखाई देता है। कोई टिकट के लिए बड़ी से बड़ी बोली लगाने का दावा करता है तो ऊंचे लोगों से अपनी सिफारिश के दम पर सबको पछाड़ने के लिए फर्राते भरता नजर आ रहा है। यह समस्या किसी एक दल की नहीं बल्कि कमोवेश हर दल की है। पिछले दिनों संपन्न हुए पांच राज्यों के चुनाव में हर दल में टिकटों के लिए जबरदस्त मारामारी देखी गई। कमान अपने हाथ में रखने अर्थात् टिकट वितरण में अपनी मनमानी करने के लिए दल बंटे, परिवार बंटें। वर्षों सेे समर्पित कार्यकर्ताओं के सम्मान को ठेस पहुंची। अनेक बागी हुए। अनेक मन मसोस कर रह गए। परिणाम नेे अनेक को निराशा दी तो अनेकों से अधिक लोग अपनी अनदेखी करने वालों की हार से प्रसन्न हुए।
देश की राजधानी दिल्ली में इसी माह होने वाले नगर निगम चुनाव में तीनों प्रमुख दलों को टिकट वितरण में जबरदस्त असंतोष का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि एक अदद टिकट के लिए अनेक स्थानों पर दावेदारों की संख्या दो सौ से अधिक रही। लगभग हर दल ने अपनी ओर से उम्मीदवारों का चयन पूरी ‘ईमानदारी’ सें किया होगा लेकिन जिस तरह से दशकों से समर्पित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते हुए विचाराधारा से दूर का भी संबंध न रखने वालों को नवाजा गया उसी का परिणाम है कि लगभग हर सीट पर हर दल के एकाधिक बागी उम्मीदवार नजर आ रहे हैं। कोई भी दल घोषित प्रतिबद्धता शुद्ध अंतकरण से पालन नहीं कर सका। कहीं गुटबाजी तो कहीं बांटने वालों ने आपस में कोटा तय करके अपनों को टिकट बांट लिये। आजादी के बाद सर्वाधिक समय तक सत्ता में रहे दल की पूर्व मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद तक टिकट वितरण में मनमानी से क्षुब्ध बताये जाते हैं। अनेक बड़े नेताओं ने अंतिम क्षण में दल बदल कर अपना विरोध दर्ज कराया। स्पष्ट है कि हमारे राजनैतिक अपनी इतने परिपक्व नहीं हुए है कि टिकट वितरण की न्यूनतम निर्दोष व्यवस्था विकसित कर सकें।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर राजनीति का आकर्षण एकाएक इतना क्यों बढ़ रहा है। क्या राजनीति के माध्यम से अकूत धन कमाने या जुटाने के लिए लोग चुनाव लड़ना और जीतना चाहते हैं? क्या सत्ता और भ्रष्टाचार का निकट संबंध है? सत्ता सूत्र किसी भी कार्य को बिगाड़ने अथवा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह जरूरी नहीं कि हर कार्य नियमानुसार ही हो क्योंकि वर्तमान कार्य प्रणाली में अनेक तरह की औपचारिकतायें हैं जो निर्णय प्रक्रिया को बाधित/ प्रभावित कर सकती हैं। ऐसा माना जाता है कि इन औपचारिकताओं की बाधाओं को पार करने के लिए लगाये जाने वाले ‘पहियें’ अपनी गति और अपने ‘चैनल’ से निर्वाचित लोगों तक भी पहुंचते हैं। शायद इसीलिए चुनाव जीतने वाले की हालत बदलते देर नहीं लगती। इसके प्रमाण के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, किसी भी जनप्रतिनिधि द्वारा पिछले चुनाव और इस चुनाव से पूर्व घोषित सम्पत्ति के अंतर को देख इसकी पुष्टि की जा सकती है।
राजनीति के आकर्षण का दूसरा महत्वपूर्ण कारण स्वयं को साधारण से असाधारण कहलाने और उच्च संबंध बनाने की चाह भी है। एक परिचित के अनुसार, ‘भगवान की कृपा से हर सुख सुविधा हैं। घर के बाहर लगी नेमप्लेट में विधायक, पार्षद लिखवाने के लिए अगर ‘दो पैसे’ खर्च करने पड़े तो क्या बुराई है। कौन नहीं जानता कि कानूनी प्रतिबंध के बावजूद शादी में करोड़ों की सजावट, दिखावा होता है। अनेक बार तो बड़े मंत्री, संत्री न केवल खुद आयोजन करते हैं बल्कि दूसरों के ऐसे आयोजन में भी शामिल होते हैं जहां स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ होती है।’
लोकतंत्र में राजनीति के माध्यम से सामाजिक सुधार और बदलावों की आपेक्षा की जाती है लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि आज की राजनीति को ही स्वयं सुधार और बदलावों की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए राजनीति में आये लोग भ्रष्टाचार के नये मापदंड स्थापित करने लगते हैं। परिवारवाद से लड़ने वाले वीर योद्धा अपने परिवार को स्थापित करने के लिए ‘कुछ’ भी करने को तैयार रहते हैं। चुनाव सुधारों के पुरोधा अपने ‘चुनाव’ को ही ‘सुधार’ मानकर मौन हो जाते हैं। विचारधारा के लिए जीने और मरने की कसमें खाने वाले क्षणभर में विचारधारा को ‘केचुली’ की तरह उतार फेंकते हैं। तो समझा जा सकता है कि राजनीति उस ‘कैमिकल’ की तरह है जिसके अति ‘रिएक्टि प्रभाव’ से बचा नहीं जा सकता। परंतु तालाब में नाक तक डूबे होने के बावजूद स्वयं को ‘बाकियों’ से बेहतर होने का दावा जरूर किया जा सकता है।
यक्ष प्रश्न यह है कि क्या हमारे देश की पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र है? इसका ईमानदार उत्तर है- ‘नहीं’। परिवारवादी दलों से आंतरिक लोकतंत्र की कामना ही नहीं की जा सकती लेकिन विचारधारा वाले ‘कैडर’ आधारित दलों में भी तदर्थवाद बढ़ रहा है। साधारण असहमति को भी बर्दाश्त न करने के अनेक उदाहरण हमारे चारों और मौजूद हैं। प्रोत्साहन के नाम पर अपनों अथवा चाटूकारों को आगे बढ़ाना आम बात है। प्रसाद बांटते समय कठिन समय में दल के लिए त्याग करने वालों की अनदेखी कहां नहीं है। मजेदार बात यह है कि दूसरों को उपदेश देने वाले स्वयं ही दूर- दूर तक उनसे कोई संबंध नहीं रखते। एक दल अपने कार्यकर्ताओं के हित साधन के लिए जाना जाता था। दूसरा दल सत्ता में आया तो उसके कार्यकर्ताओं ने भी स्वयं के लिए वैसी ही मांग की परंतु उनके मुखिया ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया, ‘यदि हम भी वहीं सब करेंगे तो हम में और उन में क्या फर्क रहेंगा।’ लेकिन कटु सत्य यह है कि सब कुछ जारी रहा। कृपा बरसी जरूर पर कुछ खास लोगों पर ही।
जब किसी भी राजनैतिक पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र ही नहीं है। तो उनसे टिकट वितरण में पारदर्शिता की आपेक्षा ‘चील के घांेसले’ में मांस के टुकड़े के समान है। सच्चा लोकतंत्र तभी संभव है जब सभी दलों के लिए प्रत्याशी चयन की पारदर्शी प्रक्रिया अनिवार्य बनाई जाये। हर बात के लिए अमेरिका की ओर देखने वाले वहां के सभी दलों द्वारा अपने उम्मीदवार चयन की प्रणाली का अध्ययन क्यों नहीं करते? क्या हर हालत में चुनाव जीतने के लिए किसी दल को अपनी विशिष्ट विचारधारा के विरोधी लेकिन ‘जिताऊ’ लोगों को उम्मीदवार बनाना नैतिक है?
यदि अगंभीर और दिखावटी, सजावटी लोगों को जनप्रतिनिधि बनने की लाइन में लगने से रोकना है तो सभी दलों को ‘मौसमी’ समाजसेवियों’ से सवाधान होना पड़ेगा। समाज सेवा से दूर-दूर तक कभी कोई संबंध न रखने वाले लोग अपने नेताओं को प्रभावित करने के लिए स्वयं को ‘गरीबों के मसीहा’, ‘निस्वार्थ समाजसेवी’ वाले बैनर टांगे घूमते हैं। लेकिन टिकट न मिलने पर उनकी समाजसेवा में आखिर किस तरह से बाधा उत्पन्न होने लगी कि चुनाव लड़ना जरूरी है। क्या पार्षद, विधायक, सांसद बने बिना समाजसेवा संभव नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि समाजसेवा के आड़ में समाज से सेवा कराने का मंशा हो।
यह विचारणीय है कि यदि हम सार्वजनिक जीवन में चरित्रवान और योग्य लोगों को लाना चाहते हैं तो ग्राम पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम, छावनी बोर्ड जैसे स्थानीय निकायों के चुनाव गैर राजनैतिक आधार पर क्यों नहीं होने चाहिए? यह सर्वविदित है कि राजनीति में ‘चाटुकारिता’ का अपना विशेष महत्व है। चाटुकार अथवा अपने धनबल से उम्मीदवार बनने में सफल रहे ‘महापुरुष’ से हम ‘स्वच्छ’ राजनीति की आपेक्षा करते भी है तो आखिर क्यों? बैनरों, होर्डिंग, पोस्टरों से अपने नेता की खुशामद तक लाखों - करोड़ों बहाने का समाजसेवा से यदि कोई संबंध हो सकता है तो वह ‘आत्मप्रवंचना’ ही है। राजनीति को स्वप्नों की दुुनिया से निकाल कर ‘अपनों’ की दुनिया बनाये बिना न तो देश का भला हो सकता है और न ही किसी दल का। चाटुकारों की भीड़ क्षणिक सफलता का आनंद तो दे सकती है लेकिन हजूर! जरा उस ओर भी देखिये जो चाटुकारों को महत्व देने के कारण आज स्वयं महत्वहीन हो चुके है।
--डा. विनोद बब्बर संपर्क- 09868211911, 7892170 421 rashtrakinkar@gmail.com
एक अदद टिकट का सवाल है How to Reserve seat in House
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