पाकिस्तानी नीयत, नीति और हम Need to tune Pakistan


पाकिस्तानी नीयत, नीति और हम 
अपने आस्तित्व में आने से आज तक पाकिस्तान लगातार भारत को नीचा दिखाने के प्रयासों में लगा है। तीन सीधे युद्धों में मुंह की खाने और पूर्वी हिस्सा गवांने के बाद उसने छदम् युद्ध की राह पकड़ी।  पंजाब और कश्मीर में अलगाववाद को बढ़ावा दिया और आतंकवाद को प्रशिक्षण तथा खाद पानी देकर पाकिस्तान ने अपने इरादे स्पष्ट कर दिये। आज सारी दुनिया पाकिस्तान को आतंकवाद के निर्यातक के रूप में जानती है। लेकिन आश्चर्य कि आज तक संयुक्त राष्ट्र संघ सहित किसी भी महाशक्ति ने पाकिस्तान को सही रास्ते पर लाने की कोशिश नहीं की। अभी हाल ही में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुने गये ट्रम्प ने अपने चुनाव अभियान में आतंकवाद के प्रति असहिष्णुता की बात जरूर कहीं थी लेकिन अब तक पाकिस्तान पर उन्होंने ‘नजरे इनायत’ नहीं की है। शायद इसी वजह से पाकिस्तान का दुस्साहस कम नहीं हो रहा है। इसका ताजा उदाहरण वहां की एक सैनिक अदालत द्वारा भारतीय नौसेना के पूर्व अधिकारी कुलभूषण सुधीर जाधव को जासूसी और अशांति फैलाने के झूठे आरोपों में फांसी की सजा सुनाई है। पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने इस फैसले को मंजूरी दे दी है। अपने नागरिक और पूर्व सैनिक को झूठे आरोपों में बचाव का उचित अवसर दिये बिना मृत्युदंड देने का समाचार पाकर देश के पाकिस्तान के विरूद्ध जबरदस्त रोष है। रोष के स्वर संसद में गूंजने पर विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने स्पष्ट शब्दों में पाकिस्तान को सही राह पर आने की चेतावनी देते हुए अपने सैनिक के बचाव के लिए ‘कुछ भी करने’ की बात कही। 
इस मामले में पाकिस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय मानकों तक को धता बताया। भारतीय ही नहीं अमेरिकी विशेषज्ञों ने पाकिस्तान के इस कदम को अनुचित बताया है क्योंकि इसमें अनेक अनियमितताएं बरती गईं। सुनवाई के दौरान जाधव को कोई वकील तक उपलब्ध नहीं कराया गया। सुनवाई अति गोपनीय और जल्दबाजी में हुई। इसके विपरीत भारत ने मुंबई आतंकी हमले के पाकिस्तानी आरोपियों को बचाव का हर अवसर दिया। सब स्प्ष्ट होते हुए भी कबाब और उसके साथियों पर सैनिक अदालत में नहीं, सामान्य अदालत में केस चला। उच्चतम न्यायालय तक अपील का अवार लिा और बचाव के लिए निःशुल्क अच्छे वकील तक दिये गये। 
ज्ञातव्य है पिछले साल जाधव की गिरफ्तारी के बाद से ही भारत सरकार छह बार पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय को लिखित रूप से बता चुकी है कि श्री जाधव सेना के रिटायर्ड अधिकारी हैं और ईरान से अपना व्यापार करते थे। उनका रॉ से उनका कोईं संबंध नहीं है, उन्हें छोड़ दिया जाए। तेरह बार आग्रह के बावजूद भारतीय उच्चायोग तक को जाधव से मिलने की अनुमति नहीं दी गई। आश्चर्य है कि स्वयं पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के सलाहकार सरताज अजीज भी कुछ दिन पूर्व यह स्वीकार कर चुके हैं कि जाधव के भारतीय जासूस साबित करने के लिए उनकी सरकार के पास ठोस सबूत नहीं हैं। इस अप्रत्याशित निर्णय से पूर्व  पाकिस्तान कुछ क्षणों की एक रिकार्डिंग दिखाता रहा है जिसके पचास से अधिक फेरबदल स्पष्ट दिखते हैं। अतः इन सबके बावजूद श्री जाधव को फांसी की सजा सुनाना पाकिस्तानी की उसी नीति और नीयत का विस्तार है जिसके अंतर्गत  पाकिस्तान स्वयं को निर्दोष साबित करने के लिए ऐसे षड़यंत्र रच रहा है जिससे कह सके कि भारत द्वारा उसपर आतंकवाद को प्राश्रय देने के आरोप झूठे है जबकि वह तो स्वयं ही भारत प्रायोजित आतंकवाद का शिकार है।
यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार की औकात लगभग शून्य है। वहां असली ताकत सेना के हाथ में हैं इसलिए भारत की हर संभव उदारता का परिणाम आज तक शून्य ही रहा है। अतः  हमारी सरकारों को यह समझ में आ जाना चाहिए कि पाकिस्तान की किसी दर्पहीन कठपुतली सरकार या उसके मुखिया से बातचीत अथवा किसी प्रकार के समझौते समय की बर्बादी और लगभग औचित्यहीन है। इसलिए देर सवेर भारत को पाकिस्तान के दम्भी सैन्य अधिकारियों को उन्हीं की भाषा में समझाना पड़ेगा। संवाद और सुनीति की बात वहां चलती जहां आपकी बात को सुनने, समझने वाले की मंशा सही है। जहां सरकार बेकार  हो, मीडिया गलत के विरूद्ध बोलने में हकलाता हो, वहां कभी सही निर्णय होगा इसमें संदेह है। ऐसे में स्पष्ट है कि वे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर ही व्यवहार करेंगे तो केवल भारत अथवा दक्षिण पश्चिम एशिया का यह भुभाग ही नहीं, सारा विश्व पाकिस्तानी मानसिकता से झुलसता रहेगा।
भारत की राजनैतिक पार्टियों को भी अब हर तरह के भ्रम से बाहर आकर राष्ट्र हित में एकजुटता का परिचय देना चाहिए। पाकिस्तान की शह पर इन दिन कश्मीर में जो कुछ हो रहा है अथवा किये जाने के प्रयास किये जा रहे हैं उसका एक स्वर में सुस्पष्ट उत्तर देने की आवश्यकता है कि कश्मीर भारत का था, है और रहेगा। जिसे भारत में रहना स्वीकार न हो तो वह पाकिस्तान या जहन्नुम जाना हो  जाने के लिए स्वतंत्र है। कोई भी व्यक्ति वह चाहे कितना भी बड़ा अथवा नामचीन ही क्यों न हो, यदि वह देशद्रोहियों का समर्थन करेगा तो उसके साथ भी देशद्रोही जैसा ही व्यवहार किया जाएगा। हम अपने सुरक्षा बलों के एक साधारण जवान का अपमान भी बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। पत्थर का जवाब गोली से दिया जायेगा। राष्ट्र की अखंडता के लिए लाशंे गिनने का काम अब बंद करना ही होगा। सनद रहे महाभारत के शांतिपर्व में शरशैय्या पर पड़े पितामह भीष्म युधिष्ठिर को राजधर्म की शिक्षा देते हुए स्पष्ट कहा था, ‘शांति किसी भी कीमत पर मिले, सस्ती है लेकिन अगर कीमत राष्ट्र की एकता से चुकानी पड़े तो हजार युद्ध भी करने पड़े तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए।’
सरकार को देश के उच्चतम न्यायालय के समक्ष भी स्पष्ट करना चाहिए कि आतंकवाद एक विशेष परिस्थिति है। उसका मुकाबला सामान्य नियमों-कानूनों से नहीं किया जा सकता। अपने सैनिकों के हाथ बांधकर आधुनिकतम हथियारों से लैस खूंखार आतंकवादी को काबू नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार यदि भाड़े के टटू हमारे सैनिकों पर पत्थर बरसाते हैं तो हमारे सैनिकों को परिस्थिति के अनुसार प्रतिकार करने का अधिकार है। पैलेट गन तो क्या अगर स्थिति को नियंत्रित करने के लिए मशीनगन भी चलानी पड़े तो इसका निर्णय दिल्ली में वातानुकुलित भवन में कड़ी सुरक्षा में बैठे प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री या विपक्ष के नेता नहीं बल्कि परिस्थितियों का सामना कर रहे सैनिक स्वयं ही करेंगे।
यह उचित ही है कि केंद्र सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत में एक याचिका दाखिल कर आतंकवाद से निबटने में आड़े आ रहे 8 जुलाई के फैसले पर फिर विचार करने का अनुरोध किया है। ज्ञातव्य हो मुठभेड़ों की जांच के आदेश देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि सेना को आत्मरक्षा के लिए न्यूनतम बल का इस्तेमाल करना चाहिए। इसका असर आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट और गैर कानूनी गतिविधि रोक अधिनियम (यूएपीए) के प्रावधानों में सेना को मिले संरक्षण पर भी पड़ रहा है। जिसका सीधा प्रभाव सेना के उग्रवाद के खिलाफ चलाए जा रहे अभियानों पर पड़ रहा है। अपनी याचिका में सरकार का मत है कि फैसला देते समय अफस्पा और गैरकानूनी गतिविधि रोक कानूनों और जमीनी हकीकत पर गौर नहीं किया। सुरक्षा बलों को ऐसी परिस्थितियों में तत्काल फैसला लेने का अधिकार देना होगा। मिलेट्री आपरेशन की अन्य मामलों की तरह न्यायिक समीक्षा नहीं होनी चाहिए। यदि यह प्रावधान न बदले गये तो सुरक्षा बलों का मनोबल टूटेगा। यहां तक कि इसका सेवारत और सेवानिवृत हो चुके सैन्य अधिकारियों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जिन्होंने सारा जीवन देश को सुरक्षित और अखंड बनाए रखने में लगा दिया। 
यह स्थिति किसी एक राज्य की नहीं, सम्पूर्ण भारत की है। जो द्रोही कानून की भाषा समझे उसे कानूनी रूप से बचाव का अवसर देकर कटघरे में खड़ा किया जाना उचित है लेकिन जो मानवता से दूर दूर तक कोई संबंध न रखता हो उसके मानवाधिकार की बात बेमानी है। इस संबंध में हमें अपने छोटे से पड़ोसी श्रीलंका से सबक क्यों नहीं लेना चाहिए जिसने अपने देश में आतंकवाद की कमर तोड़ने के लिए किसी भी दबाव को अस्वीकार किया।

डा. विनोद बब्बर संपर्क-   09868211911, 7892170421 rashtrakinkar@gmail.com


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