समरसता उन्नत राष्ट्र की आवश्यकता # SamRasta


समरसता उन्नत राष्ट्र की आवश्यकता
इन्द्रप्रस्थ साहित्य भारती और सुदर्शन टीवी के संयुक्त तत्वावधान में नोएडा सेक्टर 57 में स्थित सुदर्शन टीवी के केन्द्र में एक संगोष्ठी का आयोजन हुआ। बाबा साहब अम्बेडकर जयन्ती के अवसर पर  विषय, ‘समरसता उन्नत राष्ट्र की आवश्यकता’ होना स्वाभाविक था। दिल्ली पब्लिक लाईब्रेरी बोर्ड के अध्यक्ष डा रामशरण गौड़ जी की अध्यक्षता में ड़ा देवेन्द्र आर्य, डा नृत्यगोपाल, मनोज शर्मा, डा नीलम राठी ने अपने विचार रखे। तो सरस संचालन श्री प्रवीण आर्य ने किया। 
मुख्य वक्ता श्री सुरेश चव्हाणके के अनुपलब्ध (जिसकी चर्चा दो दिन तक सभी टीवी चैनलों पर होती रही है) होने के कारण राष्ट्र-किंकर विनोद बब्बर को अचानक मिला
डा  विनोद बब्बर ने बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर की स्मृति को नमन करते हुए कहा, ‘समरसता भारत की परम्परा रही है। मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया- ‘सभी क्षुद्र के रूप में जन्मते हैं लेकिन कर्माे से ब्राहण, क्षत्रिण, वैश्य बनते है।’ राम का भीलनी के झूठे बेर खाना, केवट से निकटता, कबीर, दादू, रैदास को समाज में प्राप्त श्रद्धा और सममान जैसे असंख्य उदाहरण हैं जो बताते हैं कि व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म के आधार पर जाना जाता था। जन्म के आधार पर भेदभाव नहीं था। कालान्तर में आक्रांताओं द्वारा समाज में फूट डालने तथा कुछ अपने ही समाज के नासमझ लोगों की संकीर्णता से समरसता की परम्परा बाधित हुई जिसे संविधान निर्माता बाबा साहिब भीमराव अम्बेडर जी ने पुनः स्मरण कराया। वास्तव में समरसता किसी भी जीवन्त राष्ट्र की शिराओं में बहती रक्त रूपी जीवनरसता है। उसके बिना उसकी उन्नति तो क्या उसके सम्मान पर भी प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है।
बाबा साहिब ने स्वामी रामतीर्थ के उस कथन को अवश्य जाना, माना और सराहा होगा जिसके अनुसार स्वामी रामतीर्थ ने राष्ट्र की तुलना शरीर से करते हुए कहा था- ‘भारत भूमि मेरा शरीर है। कन्याकुमारी मेरे चरण हैं। हिमालय मेरा सिर है। मेरे केशों से गंगा बहती है। मेरे बाजुओं से ब्राहृपुत्र तथा सिन्धु निकलती हैं। विंध्याचल मेरे कमर की करधनी है। कोरोमंडल मेरा दायां पांव है और मालाबार मेरा बायां पांव। मैं सम्पूर्ण भारत हूं और पूरब व पश्चिम मेरी बाहें हैं, मैं उन्हें सीधी रेखा में आलिंगन करने के लिए फैलाए हुए हूं। मैं अपने प्रेम में शाश्वत हूं। अहा! ऐसी ही मेरे शरीर की मुद्रा, जब यह खड़ी होती है तो अनंत को निहारती है। मेरी आत्मा सबकी आत्मा है। जब मैं चलता हूं तो मुझे लगता है भारत चल रहा है। जब मैं सांस लेता हूं तो मुझे लगता है भारत सांस ले रहा है। जब मैं बोलता हूं तो अनुभव होता है भारत बोल रहा है। मैं भारत हूं। मैं शंकर हूं। मैं शिव हूं।’
जो महत्व हमारे शरीर के हर अंग में जीवनरसता (रक्त प्रवाह) का है जिसके सम रूप से प्रवाहित होने से ही हम स्वस्थ रहते हुए परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकते हैं वहीं महत्व राष्ट्र में समरसता का है। रक्त प्रवाह बाधित होने से हमारे शरीर का कोई अंग लुज पुंज हो जाता है। अनेक बार शिराओं में आये व्यवधान के कारण हमारे प्राणों तक पर संकट आ जाता है। हम लाखों खर्च्र कर जीवन रसता में बाधा बने अवरोध वाले स्थान पर तत्काल ‘स्टड’  लगवाते हैं। कई बार ‘बाईपास सर्जरी’ भी करवानी पड़ती है। स्मरण रहे रक्त में होमोग्लोबिन, श्वेत रक्त कणिकायें, लाल रक्त कणिकाओं होती है। इनके बिना रक्त का कोई मतलब नहीं है। ठीक उसी प्रकार से समरसता में भी पढ़ाई, दवाई, कमाई (शिक्षा, स्वास्थ, आर्थिक सुरक्षा) का होना अनिवार्यहै। समाज के हर व्यक्ति तक ये तीनों पहुंचे तभी समरसता की सार्थकता है।
आज जब हम समरसता की बात करते हैं तो  इसे किसी जाति, धर्म, प्रांत, भाषा तक सीमित नहीं कर सकते। हर भारतीय को समरसता की आवश्यकता है। कानून से अधिक यह समाज की जिम्मेवारी है कि समरसता सुनिश्चित करें। कानून की अपनी सीमायें है। कानून समान अपराध के लिए समान दंड का पाधर है लेकिन वोट बैंक के ठेकेदार इस अवधारणा को भंग कर समरसता के वातावरण को नष्ट करने में लगे हैं। उनकी दृष्टि में सैनिकों पर हमले करने वाले, देश के टुकड़े टुकड़े करने के नारे लगाने वाले देशद्रोहीं ‘भटके हुए नौजवान’ हैं लेकिन ऐसे लोगों को तार्किक विरोध करने वाले ‘साम्प्रदायिक’। गलत परिभाषाएं गढ़ी जा रही है। विश्व के सबसे बड़े स्वयसेवी संगठन को कभी साम्प्रदायिक तो कभी समरसता का विरोधी करार दिया जाता है। मैं बाल्यकाल से स्वयंसेवक हूं। आधी शताब्दी से अधिक बीत जाने के बाद आज तक भी किसी ने मुझसे मेरी जाति नहीं पूछी। किसी के भेदभाव का तो प्रश्न ही नहीं। मुझे याद है पहली बार ‘सहभोज’ का कार्यक्रम बना तो मैं अत्यंत प्रसन्न था। क्योंकि उस समय हमारे लिए भोज का अर्थ था- पकवान, मिष्ठान, आनंद। लेकिन वहां तो हर से ही को घर से सादा भोजन लाने को कहा गया। सबकी रोटियों मिला दी गई। सबकी दाल सब्जी भाजी का रसास्वादन सबने किया। कोई भेदभाव नहीं। संघ को समरसता का विरोधी बताने वालों को कहना चाहता हूं यदि यह समरसता नहीं है तो फिर कहीं भी समरसता नहीं है। इससे अधिक व्यवहारिक समरसता हो ही नहीं सकती। 
बाबा साहिब ने संविधान में समानता पर बल दिया। समानता और समरसता एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। सबको न्याय, समानता, समरसता मिले। समान रूप से आगे बढ़ने का अवसर मिले तभी हमारा राष्ट्र उन्नत राष्ट्र बन सकता है। यह हम सबका प्रथम कर्तव्य है कि हम अपनी संकीर्णताओं का त्याग कर अपनी मातृभूमि, प्यारे भारत की प्रतिष्ठा की पताका बुलन्दी तक पहुंचाने के लिए बाबा साहिब अम्बेडकर की मूर्तियों बनाने से भी अधिक महत्वपूर्ण है उनके आदर्शोंों को हम समरसता को अपने व्यवहार में मूर्त रूप से अपनायें। 
हम सभी को सदा याद रखना होगा- न जाति, न धर्म 
सबसे पहले हमारा अपने समाज के हित में समरसता के लिए कर्म। 
इन्द्रप्रस्थ साहित्य भारती द्वारा इस विषय पर संगोष्ठी साहित्य की उस महान परम्परा का विस्तार है जो सब के हित का चिंतन करता है। महर्षि बाल्मिकी से आज तक परपीड़ी की अनुभूति और संवेदनशील होना साहित्य की प्रथम शर्त है।
  रिपोर्ट-- शांति कुमार स्याल, नोएडा   986890687

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