सजगता और संरक्षण बिन जल संकट से मुक्ति नहीं
सजगता और संरक्षण बिन जल संकट से मुक्ति नहीं
दिल्ली पेयजल संकट के दौर से गुजर रही है। लेकिन लोग तय नहीं कर पा रहे है कि यह संकट गर्मी बढ़ने के परिणाम है या जल प्रबंधन असफलता का। क्योंकि दिल्ली सरकार के मुखिया ने जल बोर्ड के प्रभारी मंत्री को कुप्रबंधन का दोषी मानते हुए हटा तो दिया लेकिन उसी दिन से मौन साधे है। ऐसे में एक बात तो तय है कि पेयजल संकट का मुख्य कारण जल प्रबंधन का अभाव ही है। सरकार ने दावे तो बड़े-बड़े किये लेकिन वह राजनैतिक दावे पेचों में ऐसा व्यस्त रही कि न तो यमुना नदी की सफाई करा सकी और न ही अन्य प्राकृतिक जलस्रोतों के संरक्षण की कोई कारगर योजना बना सकी।
कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली में भूमिगत मैट्रो के निर्माण के दौरान सूख चुके अनेक बावड़ी और तालाब मिले। लेकिन आज भी दिल्ली में झील, तालाब, कुएं व बावड़ी समेत एक हजार से अधिक ऐसे जलस्रोत हैं जो अवैध निर्माण और रखरखाव के अभाव के कारण बहुत खराब हालत में है। ऐसे में जब जल संरक्षण हमारी प्राथमिकता में ही शामिल नहीं है तो पेयजल के लिए दूसरों पर निर्भरता और अंततः निराशा होना स्वाभाविक है।
यह कटु सत्य है कि केवल दिल्ली ही नहीं सारे देश में जल संरक्षण को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता। जबकि जल संरक्षण हमारी परम्परा है। हमारे ऋषियों ने जल को ‘आपो ज्योति रसोअमृतम’ घोषित किया तो ‘अप् सुक्त’ (ऋचा- शं नो देर्वी अभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं र्यो अभिस्त्रवन्तु नः.....- ऋग्वेदः 10/9/4) जल पर लिखी विश्व की प्रथम कविता है। आज भी हर शुभ अवसर पर पवित्र संकल्प और हाथ के जल को अभिमंत्रित करने की परम्परा जनकल्याण का भाव का ही विस्तार है जिसके संबंध में अनेक जनश्रुतियां भी प्रचलित हैं। आज भी हम जल को देवता मानते हुए वरुण देव की पूजा करते हैं। भारतीय संस्कृति नदियों को जीवनदायिनी माता कहती है। नदी किनारे पवित्र स्नान, उसकी आरती का विशेष जगजाहिर है। हर मांगलिक अवसर पर कलश की स्थापना मात्र एक कर्मकांड नहीं बल्कि जल के महत्व के प्रति हमारी पूर्वज ऋषियों का चिंतन है जिसे वे लोक व्यवहार में लाकर जल संरक्षण को सुनिश्चित करना चाहते थे। यह सर्वज्ञात है कि जल के दो मुख्य स्रोत हैं-एक वर्षा और दूसरा हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियां। पतितपावनी गंगा का जल सर्वाधिक पवित्र और स्वच्छ था। इसे ग्रहण कर अथवा इसमें डुबकी लगाकर मन शुद्ध, तन रोग मुक्त होता था। अथर्ववेद 3/12/9 में कहा गया है- इमा आपः प्र भराम्ययक्ष्मा यक्ष्मनाशनीः। गृहानुप प्रपसीदाम्यतेन सहाग्नि।। अर्थात् भली भांति रोगाणु रहित तथा रोगों को दूर करने वाला जल लेकर आता हूँ। इस शुद्ध जल के सेवन से यक्ष्मा टीबी जैसे रोगों का नाश होता है। हमारी शिराओं में जीवन बन कर बहता रक्त जल ही है। अन्न, दूध, घी आदि द्रव्यों में जल का महत्वपूर्ण स्थान है।
अनेक दशकों से सपरिवार दिल्ली में रह रहे एक मित्र ने बताया कि वे अपने पूर्वजों के गांव ‘मिट्टी निकालने’ जा रहे हैं तो मैंने उनसे ‘मिट्टी निकालने’ का अर्थ जानना चाहा। उन्होंने बताया कि एक निश्चित मास की अमावस्या को अपने गांव के मंदिर में जाकर पुजारी को कुछ दान आदि देकर थैली या अपने रूमाल में कुछ मिट्टी लेकर आते हैं जिसे बाद में ‘कहीं’ डाल देते है। मैंने उनसे इस परम्परा का अभिप्राय जानना चाहा तो उन्होंने पल्ला झाड़ते हुए कहा, ‘हम बचपन से ही ऐसा देखते आये है परंतु हमें इस परम्परा के निहितार्थ की जानकारी नहीं है। हाँ, इसी बहाने हमें वर्ष में एक बार अपने पूर्वजों के गांव जाने का मौका जरूर मिल जाता है।’
मुझे उनके उत्तर से बहुत निराशा हुई कि आखिर हम अपनी श्रेष्ठ परम्पराओं को क्यों नहीं समझते? आखिर क्यों किसी जीवान्त परम्परा को हम एक निर्जीव कर्मकांड बना देते हैं? मैंने उन्हें बताया कि लगभग पूरे भारत में यह परम्परा रही है कि बरसात से पूर्व लोग सूखे तालाब से चिकनी ‘मिट्टी निकालते’ थे। वे उस मिट्टी से अपने घर की मरम्मत करते। उसे अपने घर के आसपास डालकर बरसात में पानी अंदर घुसने से रोकने का उपाय करते। जिन्हें नया घर आदि बनाता होता वे भी मजबूत चिकनी मिट्टी लाते। वर्षभर की जरूरतों के लिए कुछ मिट्टी अपने घर में भी सुरक्षित रखते। कुम्भकार बंधु भी अपनी उत्पादन जरूरतों के लिए बरसात से पूर्व ही मजबूत, काली चिकनी मिट्टी प्राप्त करते। ऐसा करने से जहां वे बरसात से पूर्व उसके प्रभावों से बचाव का आवश्यक प्रबंधन करते वहीं तालाब को भी गहरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते। इससे बरसात का अधिकतम जल बर्बाद होने से बच जाता जो तालाब में एकत्र होकर वर्षभर की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करता। यह एक और प्रमाण है कि हमारे पूर्वज कितने सजग और पर्यावरण प्रेमी थे। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि अब गांवों में रहन सहन में हुए बदल के साथ साथ सोच में हुए परिवर्तन ने ‘मिट्टी निकालने’ को एक निर्जीव कर्मकांड बना दिया है। इसके दुष्परिणाम भी हमारे सामने हैं। तालाब गहरे होना तो दूर गायब हो रहे हैं। भूमाफिया तालाबों में कचरा, मलबा डालकर उसपर कब्जा करने की नीति पर चल रहा है। शासन और समाज की निष्क्रियता भूमाफिया के इस अपराध में सहायक बन रही है जो अंततः जलस्तर को रसातल में पहुंचाने मंे सहायक बन रही है। केवल तालाब ही नहीं, नदियों के तटों पर भी माफिया एवं उद्योगों के कब्जे स्थिति को बद से बदतर बना रहे हैं। प्रदूषण फैलाने और पर्यावरण को नष्ट करने वाले लोग हमारे पवित्र जलस्रोतों को पाट कर धनपति बनने के प्रयास में हैं। ऐसे में कराहती नदियां अपनी पीड़ा कहें भी तो आखिर किससे कहें? जबकि हमे यह ज्ञात है कि विश्व की हर सभ्यता नदी घाटी सभ्यता कहलायी। हमारी अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति की जल के बिना कल्पना ही संभव नहीं हैं।
पिछले वर्ष लाटूर में ऐसा जल संकट था कि वहां रेलों से पेयजल पहुंचाया गया। कर्नाटक तथा तमिलनाडु में कावेरी जल विवाद हो या पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के बीच सतलुज यमुना लिंक बनाये जाने को लेकर चल रही खींचतान सहित अनेक अन्य स्थानों पर जल बंटवारे को लेकर विवाद की स्थिति है। यह स्थिति अचानक उत्पन्न नहीं हुई बल्कि यह लगातार उपेक्षा और हमारी अदूरदर्शिता का परिणाम है।
पिछले दिनों अपने मिजोरम प्रवास के दौरान मैंने देखा कि वहां की ढालदार छतों के चारों और नालीदार टीन की ऐसी व्यवस्था है कि वर्षा का जल घरों में जमीन के भीतर बनी बड़ी-बड़ी टंकियांे में एकत्र होता है। लेकिन शहरों में स्थिति विपरीत है। बढ़ते आधुनिकरण ने जल उपयोग से अधिक बर्बादी को बढ़ावा दिया है। स्वचलित धुलाई मशीन में बहुत अधिक जल बर्बाद होता है। यदि हम उस जल को नाली में बहाने की बजाय एकत्र कर सफाई आदि कार्यों में उपयोग करने का अभ्यास बनाये तो जल संकट पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। इसके लिए जल संवर्धन व संरक्षण को स्कूली पाठ्यक्रम तथा सामाजिक संस्कारों से जोड़ा जाना चाहिए ताकि बचपन से ही जल के महत्व का व्यवहारिक ज्ञान हो सके।
एक आम धारणा यह है कि गंगा सहित अन्य नदियां मैदानी क्षेत्रों में ही प्रदूषित होती है। लेकिन वास्तविकता इससे भिन्न है। बढ़ते पर्यटन और भोगवाद ने नदियों के उद्गम स्थलों से ही उसे प्रदूषण का शिकार बनाना प्रारंभ कर दिया है। हमारे एक मित्र ने अपनी गंगोत्री यात्रा के जिन चित्रों को सोशल मीडिया पर दर्शाया है उसके अनुसार उनके दल के सभी सदस्य अपने हाथ में प्लास्टिक की बोतल लिये चल रहे हैं। चहूं ओर प्लास्टिक का कचरा फैला है। जाहिर है कि आज नदियों के पवित्र उद्गम स्थलों पर भी मौज-मस्ती की संस्कृति हावी हो रही है इसीलिए तो पवित्र माना जाने वाला गंगाजल आज अनेक स्थानों पर आचमन के योग्य भी नहीं रह गया है। उसपर भी हम पूजा सामग्री, पुराने चित्र, फूल आदि नदियों में बहाते हुए यह नहीं समझना चाहते कि आखिर हम क्या कर रहे हैं? ऐसे में क्या हमें अपने आप से यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि संकट संवेदना और समझदारी का है या जल का? हम अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित जल संरक्षण की परम्पराओं का पालन कर रहे है या उनपर पानी फेर रहे हैं? मेरे मित्र, आप ‘मिट्टी निकालने’ अपने गांव जरूर जायें परंतु उसके निहितार्थ को भी समझे। अगर हमने अपने व्यवहार से संवेदनहीनता का कचरा नहीं हटाया तो बहुत संभव है कि आज का जल संकट एक ऐसे जलजले का रूप धारण कर ले जो सम्पूर्ण मानव जाति के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दें।
-विनोद बब्बर 09868211911, 7892170421 rashtrakinkar@gmail.com,
सजगता और संरक्षण बिन जल संकट से मुक्ति नहीं
Reviewed by rashtra kinkar
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