‘गण’ ही बचायेगा गणतंत्र का गौरव


गण’ ही बचायेगा गणतंत्र का गौरव
आज हम स्वतंत्र भारत के गणतंत्र के 70 वर्ष पूरे कर रहे हैं। लेकिन गणतंत्र से हमारा संबंध केवल 70 वर्षों का नहीं है। वास्तव में भारत ने ही दुनिया को गणतंत्र की अवधारणा दी है। हजारों वर्ष पहले भी भारतवर्ष में अनेक गणराज्य थे, जहाँ शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वहां यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में ही किया गया है। वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में हमारे  यहां अधिकांश स्थानों पर गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। महाभारत में गणराज्य व्यवस्था की भी विशद विवेचना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। आगे चलकर यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया। 
इतिहास ही नहीं, आज भी हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। सशक्त गणतंत्र हैं जहां ‘गण’ ही ‘तंत्र’ का मुखिया है। वह जमाना लद गया जब सर्वोच्च पद पर ‘परिवार विशेष’ के लोग ही बैठते थे। आज एक साधारण व्यक्ति का पुत्र भी वहां पहुंच सकता है। वर्तमान राष्ट्रपति हो या प्रधानमंत्री दोनो का इस पद तक पहुंचना हमारे गणतंत्र की ऐसी खूबी है जिसपर भारत गर्व कर सकते है। लेकिन हमारी यह उपलब्धि अनेक शक्तियों को चुभती है। भारत को सपेरों, मदारियों को देश बताने वाले मुंह की खा चुके हैं लेकिन उन्हीं के विचारपुत्र आज भी भारत को कमजोर करने का कोई मौका नहीं गंवाते।
गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। लेकिन दुर्भाग्य कि वोटबैंक की राजनीति  इसे अल्पसंख्यकों के शासन में बदलने का प्रयास कर रही है। यह विशेष स्मरणीय है कि गणतंत्र के ‘गण’ और ‘तंत्र’ महज शब्द नहीं जो अनायास आपस में जुड़ गये हो। वह संस्कृति ही है जो इन्हें जोड़ती है। इतिहास साक्षी है कि अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए ‘गण’ से ‘तंत्र’ तक सभी सजग, सचेष्ट रहे है। यह भी सत्य है कि जब-जब विभाजक तत्वों ने अपनी चाले चलकर कुछ लोगों को व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए उकसाया,  भारी क्षति हुई है। इतिहास की उन क्षणिक भूलों की कीमत चुकाने में  सदियों लगती है। भारत सांस्कृतिक गणतंत्र हैं तो केवल ‘तंत्र’ की ‘गन’ से नहीं बल्कि ‘गण’ के ‘मन’ से है। इसीलिए इस धरा के पुत्र (गण) अपने द्वारा चुने हुए तंत्र से यह आपेक्षा जरूर करते हैं कि वह देश को बांटने वाली शक्तियों का पूरी शक्ति से  उपचार करें। यदि ‘तंत्र’ ऐसा नहीं करता तो वह निश्चित रूप से दोषी है।  
भारत उत्सवधर्मी देश हैं। इसलिए यह कैसे संभव है कि हम अपने गणतंत्र दिवस को धूमधाम से न मनाये। राजपथ पर शानदार परेड, झंाकियॉ, फ्लाईंग -पास्ट इस धरा के ‘गण’ के मन और ‘तंत्र’ की गन के जीवन्त प्रमाण ही तो हैं।  लेकिन  कुछ तथाकथित ‘बुद्धिजीवी’ इसे फालतू की कवायद करार देते हैं। अपनी जड़ों से कटे ये लोग यह समझने को तेयार नहीं कि किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र का अपना सौंदर्यबोध और शक्तिबोध होता है। देश के विकास की तस्वीर, सांस्कृतिक कार्यक्रम और राज्यों की झंाकियाँ हमारा सौंदर्यबोध है जबकि सेना, अनुशासन, आधुनिकतम अस्त्र- शस्त्र और वायुसेना का शानदार फ्लाइंग पास्ट हमारे शक्तिबोध का प्रतीक ही तो है। इससे राष्ट्र में आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान की भावना का संचार होता है। आत्मविश्वास की कमी ही महाभारत युद्ध में महारथी कर्ण की पराजय का कारण बनी थी, जबकि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन में आत्मविश्वास की भावना का संचार कर उसे विजय भी दिलवाई थी।
अस्त्र-शस्त्र के प्रदर्शन का उद्देश्य किसी को भयभीत करना नहीं है क्योंकि हमारा दर्शन सदा से ही ‘न भय काहू को देत और न भय काहू का मानत’ रहा है। यह शक्तिबोध राष्ट्र के ‘गण’ को ‘तंत्र’ की ओर से आश्वस्त करना भर है। यदि इस खर्च को धन की बर्बादी कहा जाएगा तो कल देश की सीमाओं की रक्षा पर होने वाले खर्च का भी प्रश्न उठ सकता है। तब तो कुछ भी कर पाना संभव नहीं होगा। हर खर्च का मूल्यांकन मूल्य के साथ-साथ महत्व से भी किया जाता है। यदि इसे अनावश्यक प्रदर्शन माना जाये तो देश की संसद द्वारा बहुमत से पारित कानून के विरूद्ध प्रलाप क्या है? अपने नेताओं की दूरदर्शिता के कारण हुए देश विभाजन के समय उसपार  छूट गये अपने लोगों पर हो रहे अत्याचारों पर मौन अनुचित है।  इसी मौन के कारण ही  भारत पुत्रों की उपेक्षा जारी रही है, देश में भी और विदेश में भी। आज यह सोच बदल रही है और किसी अन्य को प्रभावित किये पीड़ित भारतपुत्रों के विस्थापन की सोच सामने आने पर  देश में उत्पात मचा रहे घुसपैठियों के लिए अराजकता की हर सीमा पार करना  गणतंत्र को चुनौती है। इस देशद्रोही  चुनौती को स्वीकारने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है इसलिए राजपथ पर प्रदर्शित शक्ति का व्यवहारिक प्रदर्शन हर उसपर पथ पर होना ही चाहिए जिसे बाधित करने की जिद्द  सिर उठाये।
गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेना हर जवान के लिए गौरव की बात है, गौरव के उस क्षण को प्राप्त करने के लिए हमारे बहादुर बच्चे, सेना के जवान जी-तोड़ मेहनत करते हैं। बहादुर बच्चे जब हाथी पर बैठकर राजपथ से निकलते हैं, तो सभी को रोमांच होता है। यह रोमांच प्रेरणा उत्पन्न करता है- कुछ कर दिखाने की। आज हम अपना राष्ट्रगान भूल रहे हैं। राष्ट्रगीत वन्देमातरम् तो लगभग भूल ही चुके हैं। यदि विघ्नसंतोषियों की बात मान गणतंत्र दिवस परेड रोक दी जाए, तो आधुनिकता ओर भौतिकवाद की गिरफ्त में आई हमारी डिजिटल युवा पीढ़ी को कौन बतायेगा ‘क्या होता है गणतंत्र और उसका अर्थ क्या है।’  
हाँ, यह जरूर सत्य है कि ‘तंत्र’ पर काबिज लोग जिस रफ्तार से फलते-फूलते हैं, उस अनुपात में गण क्यों नहीं बढ़ रहा है। गणतंत्र के इन 70 वर्षों में गरीब, किसान, मजदूर की स्थिति पर लम्बे-लम्बे आंसू बहाये गये पर बदलाव बहुत छोटे- छोटे भी नहीं हो सके तभी तो देश के पिछड़े दूर-दराज के गांव या कस्बें नहीं, बल्कि राजधानी दिल्ली में भी मुफ्त के नारों की धुन पर नाचने वाले कम नहीं है। यह भी कम शर्म की बात नहीं कि तंत्र को गण की भाषा में नहीं, गुलामी की भाषा में ‘हांका’ जाता है। जिसके लिए कानून बना, व्यवस्था बनी, उन्हें ही भ्रम में रखने के लिए गुलामी की भाषा को हमने आज तक अपनेे सिर का ताज बना  रखा है। इसी का प्रभाव है कि ‘भारत’ पर ‘इण्डिया’ हावी है यानी  दोहरी शिक्षा प्रणाली है तो दोहरी स्वास्थ्य व्यवस्था भी है। यहां तक कि कानून में भी एकरूपता नहीं। दुर्भाग्य यह कि ये दोहरे मापदंड सांपनाथ, नागनाथ, से भुजंगनाथ तक जारी थे। जारी हैं। पर क्यों, इसका उत्तर मौन है।
देश की सभी समस्याओं, सभी चुनौतियों की चिंता ‘गण’  की है। गण को ही तंत्र की लगाम कसनी होगी। दागी को दागे बिना सच्चे गणतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। मुफ्ती हो या मुफ्त, टिकट खरीदने वाले को ही नहीं, बेचने वाले को भी तंत्र कोई सजा नहीं दे सकता क्योंकि रहबर और राहजन भाई-भाई हैं। निर्भया के दोषियों को सजा न मिलने की टीस यदि  सालती है तो घर बैठे रहने की अपराधिक भूल सुधारनी होगी। गण और तंत्र के बीच दीवार बने ऐसे सभी विषधरों का सफाया करने के लिए प्रत्येक भारतपुत्र को अपने लोकतांत्रिक अधिकार को अपना नैतिक कर्तव्य समझना होगा।
आओ हर चुनौती, हर बाधा के बावजूद बावजूद देश के गौरव के नये अध्याय लिखने वाले उन तमाम जवानों, किसानों, धरती पुत्रों को शत-शत प्रणाम करें जिन्होंने अपनी जननी और जन्मभूमि की शान बढ़ाई। यह उन्हीं का पुण्य प्रताप है कि ‘हम है सबसे बड़ा गणतंत्र! सच्चा गणतंत्र!! जयहिंद!’
शुभकामनाओ सहित 
डा. विनोद बब्बर संपर्क-   9868211911

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